Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2014

फिर वही

इसराइल अपने सभी पड़ोसी मुल्कों पर एकाधिक बार हमला कर चुका है। एक जमाने में लेबनन का बेरुत शहर  मध्य - पूर्व का स्वर्ग कहलाता था। 1978 और 1982 के इसराइली हमलों से बेरुत तबाह हो गया। 1982 में मैं  अमेरिका में था। हमारे विश्वविद्यालय में एक इंटरनैशनल सेंटर था जहाँ विदेशी छात्र इकट्ठे होते थे और सांस्कृतिक  गतिविधियों में भाग लेते थे। सेंटर से पत्रिका निकालने की बात सोची गई। उन दिनों मैं ज्यादातर अंग्रेज़ी में ही लिखता    था। 1983 में 'Thoughts' नाम से छपी पत्रिका में मेरी कई सारी कविताओं में पंजाबी , हिंदी और बांग्ला में लिखी  एक - एक रचना भी थी। हिंदी में लिखी कविता लेबनन पर इसराइली हमले की खबर सुनकर लिखी थी। इन दिनों  फिलस्तीन पर हो रहे ज़ुल्म की खबरें पढ़ते हुए वह कविता याद आई तो ढूँढ के निकाला। आज की शाम फिर वही   थकी - सी बदली   यादों से लदी कीचड़ घुली परेशान - सी बदली आज चाँद - तारों पर सैंकड़ों गुनाहों का बोझ गंदी दीवारों में घिरी कैद आज की शाम फिर वही तड़पती  ...

कमल जीत चौधरी की कविताएँ

मैंने इस ब्लॉग में अब तक अपने चिट्ठे ही पोस्ट किए हैं। युवा कवि कमल जीत चौधरी ने आग्रह किया है कि इसमें एक खुले मंच की तरह दूसरों के लिए भी जगह रखूँ। ठीक है। इस बार उनकी कुछ कविताएँ हैं -  मेरे दो परिचित वे दोनों जब मिले थे उस वक्त सुबह थी एक दूसरे के नंगे पाँव देख वे खुश होते थे उनके दरमियाँ वे दोनों तक न थे ... अचानक एक दिन उनके बीच कन्डी की जेठी दोपहर आ गई वे धूप से बचना चाहते थे सूखे गरने के बिसले कांटे उनकी छाया कैसे बनते वे एक दूसरे को ओढ़ना चाहते थे पर वे अब आसमान न रहे थे वे एक ऐसी चादर बन चुके थे जिससे एक साथ सिर और पैर नहीं ढके जा सकते थे ... अब जब शाम का किवाड़ खुल रहा है उनके प्रेमघर के आँगन में वे नया होकर निकलने की आस लिए सूरज के साथ डूबना चाहते हैं ...   **** हार चायकाल में अपने कड़वे कसैले हृदयों को शूगरलेस टी से करते हैं सिंचित करते हैं चिंतन होते हैं चिंतित बातें करते हैं इधर उधर की कुछ इधर से उधर कुछ उधर से इधर ठीक यही से निश्चित होती है काले धारीले अंगूठों मजबूत सिरों की माप कटार तलवार धार - एकलव्य बार्बरीक की हार ...

यूँ जाते हुए कौन सा जाना होगा

यह पोस्ट रॉबिन विलियम्स की स्मृति को  समर्पित। यह  कविता 'पाखी' जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है. सड़क पर 1 हम किसी सफर में नहीं हैं कोई पहाड़ी ,  नदी या बाग नहीं हम शहर के बीच हैं ये आम दिन हैं सड़क पर फ़ोन बजता है सैंकड़ों वाहनों के बीच बातें करते हैं हम जीवन के रंगों की बातें हैं दफ्तर के रंग बच्चों के रंग जैसे वर्षों से बसंत ढूँढती औरत का रंग छत की मुंडेर से आस्मान में चल पड़ते आदमी का रंग खुद से ही छिपती जाती लड़की का रंग कुछ रंग वर्षों से धुँधले होते गए हैं और हम भूल ही जाते हैं उन्हें यूँ सड़क पर फ़ोन पर अपने दिनों पर बातें करते हुए हम मान लेते हैं कि ज़िंदगी अभी भी जीने लायक है अचानक आती है कवियों की गुहार कि बाकी लोगों का क्या होगा अपनी तो सोच ली बाकी लोगों का क्या होगा। 2 मैं देर से इंतज़ार में हूँ कि एक दिन इसी सड़क पर ईश्वर की आवाज आएगी या चित्रगुप्त मुझे बतलाएगा कि ईश्वर आएगा मेरे सभी तर्कों का खंडन कर वह प्रतिष्ठित करेगा खुद को मैं इसी सड़क पर उसे कहूँगा कि वह हत्यारो...

चिट्ठा अगस्ता

नौ साल पहले हमलोगों ने जब हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया था , तो पोस्ट के लिए एक शब्द चला था ' चिट्ठा '; धीरे - धीरे वह गायब ही हो गया।  कुछ दिनों पहले केदार जी को ज्ञानपीठ मिलने पर चिट्ठा लिखा और ग़लती से वह डिलीट हो गया। फिर हताशा में लंबे समय तक कुछ लिखा नहीं। केदार जी की एक कविता , ' प्रश्न - काल ', जिसकी चर्चा कम होती है , मेरी प्रिय है। यह ' उत्तर - कबीर और अन्य कविताएँ ' में संकलित है। बीस साल पहले विज्ञान और जन - विज्ञान आंदोलन जैसे विषयों पर बोलते हुए मैं इस कविता की पंक्तियों का इस्तेमाल किया करता था। मेरे पास संग्रह नहीं है। कुछ दोस्तों को लिखा कि हो सके तो यह कविता भेजें , पर मदद मिली नहीं। इसकी पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं - पूछो कि पूछने वालों की सूची में क्यों नहीं है तुम्हार नाम , पूछो कि पूछने पर थोड़ी सी और अलग , थोड़ी सी और बेहतर बन जाती है दुनिया। उन दिनों कभी केदार जी से मैंने जिक्र किया था कि उनकी इस कविता का इस्तेमाल मैं करता रहा हूँ , तो बहुत खुश हुए थे और स्मृति से सुनाई भी थी। फिर उसके बाद चिट्ठा लिखा ही नहीं गया। कल खबर मिली कि...