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Showing posts from June, 2014

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो

चलो मन आज चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो स्वर्ण पदक ले लो विजेता के साथ खड़े होकर निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे मैच जो नहीं हुआ दर्शक - दीर्घा में नाराज़ लोगों को कविता सुनाओ पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं खिंची नसों को सहेजो घावों पर मरहम लगाओ गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर खेलता ढूँढता है घास अपना पूरक बनता हरे कैनवस पर भरपूर प्राण चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो ( अमर उजालाः 2008) खेल कई अपूर्ण इच्छाओं में एक अच्छा फुटबालर बनने की है सरपट दौड़ता साँप सा बलखाता धनुष बन स्ट्रेट और बैक वाली करता कंधों के ऊपर से उड़ता नाचता राइट हाफ एक इच्छा दुनिया को मन मुताबिक देखने की है भले लोगों को गले लगाता बुरों को समझाता जादुई हाथों से सबके घाव सहलाता सबका चहेता मैं इच्छाओं को धागों से बाँध रखा मैंने कभी देख लेता हूँ मन ही मन खेलता हूँ उन्हें पूरे करने के खेल। ...

मैं अब ईराक के बारे में नहीं लिखूंगा

स्मृति बड़ी सुबह दरवाज़े पर दस्तक एक स्मृति। साथ सही - गलत खाते में मौजूद अन्य स्मृति। इन दिनों अकेले में भी टेलीफोन पर कंप्यूटर पर। शाम शायरी जाम साकी बन आती स्मृति। उसके अलग अंदाज़ अलग स्मृति। स्मृतियों की भी स्मृति। अनंत स्नायुतंत्र। कौन भारमुक्त। अंत तक जीती स्मृति। फिर भी धन्यवाद कि दस्तक देती स्मृति। धन्यवाद कि वापस मनःस्थिति - अवसाद। वापस कवि की उक्ति फिर भी शांति , फिर भी आनंद वापस कवि की नियति। मैं अब ईराक के बारे में नहीं लिखूंगा। दज़ला - अफरात स्मृति बेरिंग दर्रा पारकर धरती के उस ओर स्मृति। निरंतर हारे हुए लोगों की फिर - फिर उठ खड़ी होती स्मृति। मैं ईराक पर नहीं लिखूंगा। मैं जब रोता हूँ तुम भी रोते हो मैं जब रोता हूँ तुम रोते हो स्मृतियों की भी स्मृति अनंत स्नायुतंत्र ।   ( पहल - 2004; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित)

प्रक्रियाएँ तो अनादि काल से चल रही हैं

वह सुबह कभी तो आएगी ( 9 जून 2014 को 'रविवार' में प्रकाशित ) ' जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी , वह सुबह कभी तो आएगी ,' साहिर ने लिखा था। सभ्य समाज से बहुत सारी अपेक्षाएँ होती हैं। कोई भी सरकार सभी अपेक्षाओं को पूरा कर नहीं सकती , पर कई ऐसी बेवजह , ख़ामख़ाह की मान्यताएँ भी सरकार के बारे में हैं , जिनके बारे में सोचना चाहिए। जैसे कि सरकारें झुकती नहीं हैं। चाहे देश में महामारी फैली हो , कोई सरकार बाहर के लोगों का यह कहना पसंद नहीं करती कि उसे इस बारे में प्रभावी कदम उठाने होंगे। यह निहायत ही ग़लत रवैया है। इसके पीछे मानसिकता यह है कि दूसरे लोग हमें कमजोर और अयोग्य साबित करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूँ में दो किशोरियों का बलात्कार और उसके बाद हत्या कर पेड़ पर लटकाए जाने की घटना पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने कह दिया कि हमारे देश में लगातार हो रही बलात्कार की घटनाओं को गंभीरता से लिया जा रहा है। तो सरकार की प्रतिक्रिया क्या है - उन्हें पता होना चाहिए कि हमारे यहाँ न्याय की व्यवस्था है और उस मुताबिक प्रक्रियाएँ चल रही हैं। प्रक्...

सात कविताएँ - जीवन

नहीं नहीं बनना मुझे ऐसी नदी जिसे पिघलती मोम के प्रकाश के घेरे में घर चाहिए शब्द जीवन से बड़ा है यह ग़लतफहमी जिनको हो उनकी ओर होगी पीठ रहूँ भले ही धूलि सा जीवन ही कविता होगी मेरी। ('एक झील थी बर्फ की' में संकलित) पहली कविता जीवन।   लंबी कविता   जीवन। छोटी कविता   जीवन। मुक्तछंद कविता   जीवन। छंदबद्ध कविता   जीवन। आखिरी कविता जीवन। (रविवार डॉट कॉम - 2010)

आशंकाएँ

यह आलेख 'सबलोग' के ताजा अंक में छपा है। मैंने यह कोई तीन हफ्ते पहले लिखा था। इसी बीच पश्चिम बंगाल में स्थिति काफी बिगड़ गई है। संदेशखाली और फलता इलाकों में में भाजपा और तृणमूल समर्थकों में जम कर लड़ाई हुई। पहली मार भाजपा समर्थकों को पड़ रही है, और उनका जनाधार तेजी से बढ़ रहा है। संदेशखाली कांड की जाँच करने भाजपा की उच्च-स्तरीय समिति पहुँची और प्रधान मंत्री को रिपोर्ट दर्ज की गई है। आज खबर कि राज्य की आआपा इकाई पूरी पूरी भाजपा में शामिल हो गई है। इसी बीच आम आदमी की ज़िंदगी बदतर होती जा रही है। आशंकाएँ भाजपा को बहुमत हासिल हो जाने से सत्ता में रहने को लेकर संघ परिवार को कोई असुरक्षा न होगी। इसलिए सांप्रदायिक दंगों जैसे जो तरीके अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए संघ परिवार अपनाता रहा है , उनमें कमी आनी चाहिए। अगर किसी को ऐसा लगता है तो वे भयंकर भ्रम में हैं। यह तो हर कोई जान ही गया है कि आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान सांसद नहीं चुना गया। चुने गए 543 सांसदों में 5% भी मुसलमान नहीं हैं। देश की धर्म - निरपेक्षता पर कोई सवाल उठाता है तो ग़लत क्य...

विश्व-नागरिक चेतना की ज़रूरत

  ( 3 जून 2014 को जनसत्ता में प्रकाशित ) धरती पर अलग - अलग जगहों पर तरह तरह के ज़ुल्म चल रहे हैं। जब हम इस खुशफहमी में होते हैं कि पिछली सदियों की तुलना में हमने सभ्यता और सह - अस्तित्व की एक मंज़िल पार कर ली है , ठीक तभी कोई झकझोरता हुआ बतला जाता है कि कहीं कहर बरपा है , अभी तो मंज़िल बहुत आगे है। नाईजीरिया के बोको हरम नामक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ने 280 स्कूली बच्चियों का अपहरण किया और पिछले हफ्ते एक वीडियो जारी किया है , जिसमें इन बच्चों को धर्म परिवरतन कर नमाज पढ़ते दिखलाया गया है। बोको हरम का अपना ही एक इस्लाम है जिसके मुताबिक वे इन लड़कियों को यौन - दास के रूप में बेच सकते हैं। बेशक उनकी इस जघन्य हरकत की निंदा हर ओर हो रही है। जिन लोगों को इस तरह की वीभत्स घटना से फायदा उठाना है , वे उठाएँगे। हमारे ही देश के एक भाजपा नेता हैं , जिनकी मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की धमकी पर काफी शोर मचा था। उनके खिलाफ एफ आई आर भी दर्ज़ हुआ था। उन्होंने अपना कहा वापस न लेकर कह दिया था कि वे पाकिस्तान - परस्त लोगों के बारे में कह रहे थे। सांप्रदायिकता का एक छोर राष्ट्रवाद है। दक्ष...

अपने अपने मेफिस्टो

यह आलेख समयांतर पत्रिका के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है - हमारे अपने मेफिस्टोफिलिस हंगरी के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक इस्तवान स्ज़ावो की एक बहुचर्चित फिल्म है - मेफिस्टो। इसमें उन्नीसवीं सदी के जर्मन साहित्यिक गेठे के कालजयी त्रासद नाटक ' फाउस्ट ' के खलनायक मेफिस्टोफिलिस के रुपक का इस्तेमाल है। गेठे का मेफिस्टो ईश्वर से बाजी लेता है कि वह एक भले इंसान डॉक्टर फाउस्टस को नैतिकता की राह से हटाकर उसे हैवानियत के अंधकार में ले जाएगा। जर्मन साहित्य के अलावा दीगर पश्चिमी कृतियों में मेफिस्टो का जिक्र गाहे बगाहे शैतान के रूप में आता है। 1981 में बनी अपनी फिल्म में स्ज़ावो ने हेंड्रिक होयफ़गेन नामक एक प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता को इसी तरह नात्ज़ी पार्टी के साथ समझौता करता हुआ दिखाया है। होयफ़गेन मेफिस्टोफिलिस के चरित्र का अभिनय करना चाहता है , पर अपनी समझौतापरस्ती में वह फाउस्टस में तबदील होता जाता है। सचमुच का मेफिस्टो एक नात्ज़ी नेता है। स्ज़ावो की फिल्म आज के संदर्भ में नए अर्थ लेकर आई है। कल के कई जानेमाने प्रगतिशील नाम आज अचानक खेमा बदलते दिखलाई ...