Saturday, June 07, 2014

आशंकाएँ

यह आलेख 'सबलोग' के ताजा अंक में छपा है। मैंने यह कोई तीन हफ्ते पहले लिखा था। इसी बीच पश्चिम बंगाल में स्थिति काफी बिगड़ गई है। संदेशखाली और फलता इलाकों में में भाजपा और तृणमूल समर्थकों में जम कर लड़ाई हुई। पहली मार भाजपा समर्थकों को पड़ रही है, और उनका जनाधार तेजी से बढ़ रहा है। संदेशखाली कांड की जाँच करने भाजपा की उच्च-स्तरीय समिति पहुँची और प्रधान मंत्री को रिपोर्ट दर्ज की गई है। आज खबर कि राज्य की आआपा इकाई पूरी पूरी भाजपा में शामिल हो गई है। इसी बीच आम आदमी की ज़िंदगी बदतर होती जा रही है।


आशंकाएँ

भाजपा को बहुमत हासिल हो जाने से सत्ता में रहने को लेकर संघ परिवार को कोई असुरक्षा न होगी। इसलिए सांप्रदायिक दंगों जैसे जो तरीके अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए संघ परिवार अपनाता रहा है, उनमें कमी आनी चाहिए। अगर किसी को ऐसा लगता है तो वे भयंकर भ्रम में हैं।

यह तो हर कोई जान ही गया है कि आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान सांसद नहीं चुना गया। चुने गए 543 सांसदों में 5% भी मुसलमान नहीं हैं। देश की धर्म-निरपेक्षता पर कोई सवाल उठाता है तो ग़लत क्या है! भाजपा संसदीय राजनीति में संघ परिवार की पहचान है। बेहतर सभ्यता का तकाज़ा यह होता कि जनसंख्या में अपने अनुपात की तुलना में अधिक संख्या में लघुसंख्यक सांसद चुने जाते। पर जहाँ धन और सांप्रदायिकता ही चुनावों की राजनीति के मुख्य संचालक हों, वहाँ कैसी सभ्यता और कैसे मूल्य!

कम से कम जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहाँ हर तरह की हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं के बढ़ने की पूरी संभावना है। इनमें सबसे अधिक बुरा हाल पश्चिम बंगाल का हो सकता है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय से गुंडा संस्कृति का वर्चस्व है। साठ के दशक में वामपंथियों का सरकार में आना आसान नहीं था। जैसे सौ साल पहले लोग मानते थे कि ब्रटिश सिंह को भारत से निकालने आसान नहीं है, वैसे ही आज़ादी के दो दशक बाद तक अन्य राज्यों की तरह बंगाल में भी लोग मानते थे कि कॉंग्रेस को हराना आसान नहीं है। वामपंथियों के सत्तासीन होने की प्रक्रिया में व्यापक हिंसा हुई। सरकारी दमन के खिलाफ संगठित जनांदोलन करते हुए जनता के प्रतिनिधि सरकार में आ तो गए, पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए लगातार पार्टी को संघर्ष करना पड़ा। नतीज़तन, तकरीबन उसी तरह का छल बल कौशल, जो संघ परिवार में दिखता है, वाम ने भी अपनाया। एक मायने में संघ से वे पीछे थे। संघ के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के वैचारिक प्रहार में कमी नहीं आई, बस नवउदारवादी विकास का मुहावरा साथ जुड़ गया। पर संसदीय वाम का वैचारिक पक्ष कमजोर होता रहा, यहाँ तक कि सदी के अंत तक कहना मुश्किल होता जा रहा था कि वैचारिक स्तर पर कॉंग्रेस और सीपीआईएम में फर्क कितना रह गया है। आम लोग, खास तौर से नई पीढ़ियाँ भय और पार्टी के स्तर के भ्रष्टाचार (जो कॉंग्रेस के व्यक्ति स्तर के भ्रष्टाचार से अलग है) के व्यापक माहौल से तंग आ चुके थे। अंततः नंदीग्राम और सिंगूर कांड के बाद जन-आक्रोश विस्फोट बन कर फैला और तीस साल के बाद वाम दल राज्य की सत्ता खो बैठे। तृणमूल कॉंग्रेस सत्ता में जनादेश से आई, बुद्धिजीवियों के बड़े तबके ने उनके समर्थन में खुल कर लड़ाई लड़ी। पर सत्ता में आते ही नए दल ने हिंसक तरीकों से अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया। कुछ सालों में ही स्थिति हद से ज्यादा बिगड़ गई। हाल के चुनाव में स्थानीय अखबारों में आई रिपोर्टों के मुताबिक केंद्र से आए पर्यवेक्षक सुधीर राकेश सिपाहियों के साथ कुछ गाँवों में मतदाताओं को बुलाने गए तो गाँववासियों ने साफ कह दिया कि वे मतदान करने नहीं जाएँगे क्योंकि वे भविष्य में सुरक्षा को लेकर आतंकित हैं। बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को धमकाया गया और उनके वोटर स्लिप छीन लिए गए। फिर भी अगर बड़ी संख्या में मत डलने का दावा है तो कल्पना कीजिए कि वह कैसे हुआ होगा। राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में इन बातों पर चर्चा कम ही हुई, क्योंकि मीडिया इस कदर बिका हुआ था कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के अलावा कुछ दिखलाना उन्हें महत्त्वपूर्ण नहीं लगा। लोग कत्ल हो रहें तो होते रहें।

वाम के शासन में पश्चिम बंगाल में लघु-संख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा थी और बंगाल में बड़े सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। पर वाम अपने वैचारिक आधार को मजबूत न बना सका और हिंदुओं के एक हिस्से में हमेशा से बसी सांप्रदायिक भावना बढ़ती गई कि वाम का मुसलमानों के प्रति तुष्टीकरण का रवैया है। तृणमूल कॉंग्रेस का कोई खास वैचारिक पक्ष है ही नहीं, इसलिए सत्ता की राजनीति पर ध्यान रखते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए और भी नरम रुख दिखलाया, जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा का जनाधार बढ़ा और आखिरकार हाल के चुनावों में भाजपा को तीन सीटें मिल गईं। अब संघ को खून की गंध मिल गई है। सीपीआईएम के कार्यकर्त्ताओं में ताकत नहीं है कि वे तृणमूल कॉंग्रेस के गुंडों से लड़ सकें। पर लोगों में आक्रोश है, और इसका भरपूर फायदा संघ उठाएगा। संघ का तरीका आसान है। पहले कोई छोटी घटना को अंजाम दो, जैसे कहीं कोई हिंदू मुसलमान लड़के-लड़की का मामले को तूल दो, फिर अफवाहें फैलाओ, फिर दंगा करवा दो - इस सबमें सांप्रदायिक भावनाएँ बढ़ती ही रहेंगी और संघ का जनाधार बढ़ता रहेगा। आदिवासी इलाकों में उन्होंने एकल विद्यालय जैसे तंत्र खोल ही रखे हैं जहाँ संकीर्ण सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का जहर बचपन से भरा जाता है।

पश्चिम बंगाल के अलावा असम में भी सांप्रदायिक माहौल के बदतर होने की संभावना है। धेमाजी में नरेंद्र मोदी के - बांग्लादेशियों को लाने के लिए गैंडों को मारा जा रहा है - वाले भाषण के कुछ दिनों बाद वहाँ कोई पैंतीस निर्दोष मुसलमानों को मारा गया, जिनमें कई बच्चे शामिल थे। इन दोनों राज्यों में मुसलमानों के प्रति बदसलूकी का सीधा असर बांग्लादेश के हिंदू लघु-संख्यकों पर पड़ेगा। वहाँ हिंसा बढ़ेगी; एक ऐसा निष्ठुर चक्र बढ़ता चलेगा जिसका फायदा संघ परिवार और जमाते-इस्लामी जैसे संगठनों को तो मिलेगा, पर दक्षिण एशिया के सामान्य लोगों का जीवन इससे बुरी तरह प्रभावित होगा।

कर्नाटक में भी भाजपा सत्ता में नहीं है और लंबे समय से संघ परिवार के साथ जुड़े संगठन वहाँ सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश करते रहे हैं। राम सेने नामक एक गुट मंगलूर में साथ बैठे टिफिन खाते युवा हिंदू-मुसलमान लड़के-लड़कियों पर हमला जैसी घटिया करतूतों से खौफ का माहौल बनाता रहा है। अच्छी बात यह है कि मुख्य-मंत्री सिद्धरमैया काफी सुलझे हुए व्यक्ति हैं और स्थिति को सँभालने में दक्ष हैं। पर अंधकार की ताकतों के साथ कितनी देर तक जूझा जा सकता है, यह देखना है। चाहे अनचाहे वोट की राजनीति में कॉंग्रेस और अन्य दल भी सांप्रदायिक ताकतों के साथ कमोबेश समझौता करते ही रहते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि नागरिक समूह स्वयं इस पर निगरानी रखें कि विभाजक तत्वों से कैसे बचा जाए।

बिहार और उत्तर प्रदेश में वैसे ही राजनैतिक अस्थिरता है। अब नीतिश कुमार के इस्तीफा देने के बाद संघ परिवार को अपने पहले से बढ़े आधार को और मजबूत बनाने में सुविधा ही होगी। क्या इन राज्यों में भी हालात बिगड़ेंगे? हो सकता है, क्योंकि जब तक राज्य सरकारें भी अपने हाथ नहीं आतीं, संघ परिवार खुराफातें करते रहेगा। पंजाब में भाजपा के ही सांप्रदायिक आधार वाले साथी अकाली दल ने पहले ही उत्पीड़न की इंतहा की हुई है। साथ में सीमा पार से मादक पदार्थों की तस्करी में भी उनके कई नेता कॉंग्रेस के कुछ भाई-बंधुओं के साथ शामिल हैं। इस बार कॉंग्रेस और आआपा के बीच मतों के बँट जाने से अकाली दल का बंटाधार होते होते रह गया। अब स्पष्ट हो गया कि अगली बार विधान सभा चुनावों में उनकी स्थिति डाँवाडोल होगी। इससे बचने के लिए अकाली नेतृत्व क्या करेगा - क्या वह लोगों की भलाई के लिए गंभीर कदम उठाएगा? नहीं, भारत की जनता की किस्मत में ऐसा होना मुश्किल ही लगता है। लगता यही है कि विरोधियों पर ज़ुल्म बढ़ेगा, भ्रष्टाचार से कुछ लोगों को खरीदा जाएगा। फसादात होते रहेंगे।अच्छे दिन का नारा सुनते रहें, वास्तविकता में 'कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती'

दंगे फसाद अपने आप नहीं होते। वे भड़काए जाते हैं। इनके पीछे निहित स्वार्थ होते हैं। साधारण लोग रोजमर्रा की ज़िंदगी जीते हुए बड़े पटल पर चल रहे इतने जटिल समीकरणों औऱ सत्ता के खेल को नहीं देख पाते और शिकार बन कर रह जाते हैं। पूँजीवाद के गुलाम संवेदनाहीन मध्य-वर्ग से उम्मीद करनी बेमानी है कि शिक्षा और सूचना की सुविधाओं का इस्तेमाल कर वे सच्चाइयों को जानें और फैलाएँ। जनपक्षधर लोगों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। कई लोगों को यह लगता है दंगों की बात कर हम सामान्य लोगों को अन्य बुनियादी मुद्दों से विमुख कर रहे हैं। दरअसल अतीत के हर उत्पीड़न के बारे में हमें लगातार बात करनी चाहिए कि हम दुबारा ऐसी परिस्थितियों के आने से पहले ही सावधान हो सकें। शिक्षा, स्वास्थ्य और दीगर बुनियादी क्षेत्रों में जो संकट हैं, उनके और समुदायों के बीच नफ़रत फैला कर किए गए सामाजिक उत्पीड़न के कारण अलग नहीं हैं। सोचना यह है कि जिस तरह विभाजक ताकतें हमारे अंदर के शैतान को जगा सकती हैं, उसी तरह भले लोग हमारे भलेपन को भी छू सकते हैं। इतनी सी तो बात है कि हम जान लें कि इंसान हर जगह एक ही है, हिंदू हो या मुसलमान।

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