Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2014

मेरे मुहल्ले में

यह आलेख छत्तीसगढ़ खबर में छपा है - मेरे मुहल्ले में मोदी मुहल्ले में मोदी ! अब यह तो कोई शिकवा नहीं हो सकता ! मोदी नहीं राहुल गाँधी भी आते तो कौन सा हमारी शटल मुझे पिक अप करने के लिए सुबह खड़ी होती ! मुझे फिर भी घूम घाम के गलियों में से जाना होता ! वह तो शुक्र है कि लौटते हुए शटल के ड्राइवर को इस तरफ से घर जाना था और वह उस भयंकर चौराहे तक छोड़ गया जहाँ सोलह दिशाओं से गाड़ियाँ आती हैं और हर गाड़ी आठ दिशाओं में जा सकती है। इसी के बारे में मैंने कहीं कविता लिखी है न कि ईश्वर के एक सौ आठ नाम हैं , बाकी बीस यम के धाम ! तो मुहल्ले में मोदी ! लौटते हुए एक किलोमीटर चलते हुए सिर्फ एकबार किसी ने रोका और वी आई पी पास माँगा। मैं घबरा गया पर जब उसे कहा कि मैं तो यहीं पीछे रहता हूँ तो उसने जाने दिया। घर पहुँचकर जल्दी से फ्रेश होकर मैं स्टूल उठा कर बैलकनी में आ गया। यहाँ से रैली का मैदान भी दिखता था और गुड बैड नो गवर्नेंस पर कन्नड़ में चल रहा शोर भी सुना ई पड़ रहा था। आखिर देर से मोदी आए। दूसरे तमाम बड़े लोगों के बाद बंगलौर के भाई बहनों को उन्होंने नमस्कार कहा। फिर उन्होंने भाषण ...

एक मुद्दा भाषा का

इस आलेख का संपादित संस्करण आज के जनसत्ता में आया है।  फासीवाद उभार का भाषाई पहलू संसदीय चुनावों में फासीवादी ताकतें पूरा जोर लगा रही हैं कि वे सत्ता हथिया लें। देश - विदेश से आया बेइंतहा सरमाया उनके साथ है , मीडिया का बड़ा हिस्सा उनके साथ है। मीडिया पंडितों ने लोगों की राय के सर्वेक्षण के आधार पर यह घोषणा भी कर दी है कि मोदी जी तो बस आ ही गए। अस्लियत कुछ और है। यह तो लगता है कि कॉंग्रेस और संप्रग की सरकार तो नहीं बनेगी , पर मोदी सरकार के लिए अभी दिल्ली दूर अस्त। और क्या होगा यह तो 16 मई के बाद ही पता चलेगा। अगर किसी तरह इस बार मोदी को रोक भी लिया जाए , यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि क्या भारत में फासीवादी उभार रुक जाएगा। फासीवाद एक सामूहिक मनोरोग है जो अनुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों में सिर उठाता है। पिछले दो दशकों में भारत में लगातार इसकी ताकत बढ़ते रहने के कई कारण हैं। इन कारणों पर बहुत सारे चिंतक विमर्श करते रहते हैं। पर एक कारण ऐसा भी है , जिस पर बातचीत कम हुई है और सुनियोजित ढंग से नहीं हुई है। अगर हम यह देखें कि गत बीस सालों में कौन सी बातें एक जैसी रफ्तार से बढ़...

क्यों चुप हो ?

एक सौ छठी बार आज मैं एक सौ छठी बार बच्चा बनूँगा चिढाऊँगा सबको जीभ मोड़ मोड़ आँखें झपक झपक जब सब हँसते रहेंगे धीरे धीरे उनकी तस्वीरें बना रख लूँगा अपने खयालों में रात को जब सब सो जायेंगे खोल लूँगा अपने औजारों का बक्सा चुन चुन उनकी तस्वीरें क्षत-विक्षत कर दूँगा चीखते हुए क्यों चुप हो ? क्यों चुप हो ? ( साक्षात्कार - 1987)

घुघनी

आज से पैंतालीस साल पहले 22 अप्रैल 1969 में , जब मैं 11 साल का था और आठवीं में पढ़ता था , सी पी आई ( एम एल ) पार्टी बनी। नक्सलबाड़ी में विद्रोह की घटना को करीब दो साल हो चुके थे। बंगाल में '67 की पहली युक्त फ्रंट सरकार के गिरने और राष्ट्रपति शासन से बाद नई बनी सरकार में वाम की ताकत बढ़ी थी। पर संसदीय प्रणाली में रहकर अपने वादों को जल्दी पूरा करने में वाम दल सफल नहीं हो पा रहे थे। कोलकाता शहर युवा क्रांतिकारियों का गढ़ था। हर दूसरे दिन पता चलता कि किसी दादा ( बड़े भाई ) को पुलिस पकड़ कर ले गई है। हमलोगों को डराया जाता था कि घर से दूर मत जाना , नक्सल बम फोड़ रहे हैं। कहा जाता था कि लंबे बालों वाले किसी लड़के को देखते ही पुलिस उसके बाल काट देती है। आम जनता की सहानुभूति नक्सलवादियों के साथ थी। आज जो लोग आआपा के प्रति शहरी मध्य - वर्ग के युवाओं के समर्थन से अचंभित हैं , उनकी कल्पना में नहीं आ सकता कि वह क्या वक्त था। इंकलाब की महक हवा में थी। बस अब कुछ समय में ज़माना बदलने को था। जो विरोध में थे , उनके कई तर्कों में एक था कि चीन भारत को हड़पने को आ रहा है। न इंकलाब आया न चीन आया। ब...