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Showing posts from November, 2013

ऐ वे मैं चोरी चोरी

करीब पंद्रह दिनों पहले मैंने नीचे के तीन पैरा लिखे थे। पोस्ट नहीं कर पाया था। उसके बाद एक - एक कर हिंदी के दो बड़े साहित्यकार गुजर गए। विजयदान देथा और ओमप्रकाश बाल्मीकि। और फिर मेरी प्रिय लेखिका डोरिस लेसिंग। मौत तो सबकी होनी है . ये सभी बड़ी उम्र में ही गुजरे , पर इनका जाना एक वर्तमान का इतिहास बन जाना है। बापू साधारण मजदूर था। सरकारी गाड़ी चलाता था। कभी कभी दारू पीकर लौटता तो एक संदूक में पड़ी पोथियाँ निकालकर हमें हीर - राँझा , नल - दमयंती आदि गाकर सुनाता। हम उसे ' तुसीं ' यानी आप कहते थे , पर माँ को ' तू ' कहते थे। अब स्मृति में वह अपना ऐसा हिस्सा लगता है कि उसके लिए आप नहीं सोच पाता। बड़े होकर जाना था कि बापू के गाए कई गीत पंजाब के प्रसिद्ध लोकगीत हैं और इनके गानेवालों में जमला जट , आलम लोहार और रेशमा आदि हैं। विदेश में पढ़ते हुए एकबार न्यूयॉर्क के जैक्सन हाइट्स की दूकानों में हिंदुस्तानी संगीत के कैसेट ढूँढ रहा था तो किसी बुज़ुर्ग ने रेशमा का कैसेट पकड़ाया। अब भी मेरे पास है , पर अरसे से प्लेयर खराब है तो बजाया नहीं जाता। रेशमा को याद करना बापू को ...

मुक्ता दाभोलकर

पिछले एक पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि हमलोगों ने डॉ . नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के खिलाफ दुख और रोष प्रकट किया था। साथी भूपेंद्र ने उनकी बेटी मुक्ता के साथ संपर्क किया और 25 अक्तूबर को हमने उनका व्याख्यान रखा। साथ ही अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति की ओर से प्रशांत ने कुछ प्रयोग भी दिखलाए। मुक्ता बहुत ही अच्छा बोलती हैं। उनकी बातों में जेहनी प्रतिबद्धता झलकती है और साथ ही अपनी तकरीर में वह सहिष्णुता का अद्भुत नमूना पेश करती हैं। उस दिन हॉल खचाखच भरा हुआ था और चूँकि मैंने मंच सँभालने की जिम्मेदारी ली थी , आज तक कई साथी आ - आकर मुझे धन्यवाद कह रहे हैं कि यह कार्यक्रम आयोजित किया गया। आखिर क्या वजह है कि लोगों ने इसे इतना पसंद किया। प्रतिबद्धता और सहिष्णुता ही दो बातें हैं जो अलग से दिखती हैं। कुछ लोग दुख साझा करने के मकसद से आए होंगे और मैंने मुक्ता से आग्रह भी किया था कि वह अपने पिता के मानवीय पक्ष पर बोले। पर मुक्ता ने निजी संदर्भों के साथ आंदोलन के पहलुओं को जोड़ कर लोगों को गहराई तक प्रभावित किया। सवाल जवाब देर तक चला। एक बात कई बार आई कि स्वयं नास्तिक होते हुए भी अंधविश्वास के खिला...