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Showing posts from October, 2013

उनसे मिलना अच्छा लगता था

' हंस ' में मेरी पाँच कहानियाँ और करीब पच्चीस कविताएँ प्रकाशित हुई हैं , अधिकतर नब्बे के दशक में। उस ज़माने में जब बहुत कम लोगों को जानता था , चंडीगढ़ से कहीं आते - जाते हुए दिल्ली से गुजरते हुए एक दो बार स्टेशन से ही पैदल चल कर राजेंद्र यादव से मिला था। कविताओं में उनकी रुचि कम थी , यह तो जग - जाहिर है , मेरी कहानियाँ पसंद करते थे। उनका बहुत आग्रह था कि मैं लगातार लिखूँ। स्नेह से बात करते थे। वैचारिक बात - चीत करते थे। इसलिए उनसे मिलना अच्छा लगता था। आखिरी बार मिले तीन साल से ऊपर हो गए। शायद 2010 में इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में कविता पाठ था , तब मुलाकात हुई थी। या कि उसके भी दो साल पहले आई आई सी में रज़ा अवार्ड के कार्यक्रम में मिले थे। आखिरी सालों में उनके वक्तव्यों में वैचारिक संगति का अभाव दिखता था और तरह तरह के विवादों में ही उनका नाम सामने आता रहा। पर खास तौर पर नब्बे के दशक में ' हंस ' को हिंदी की प्रमुख पत्रिका बनाने में उनका विशाल योगदान था। कॉलेज के दिनों में ' सारा आकाश ' और बाद में कहानियाँ पढ़कर ही उन्हें जाना था। मेरे प्रिय रचनाकारों में स...

हादसा और उदारवादी उलझनें

जीवन में बड़े हादसे हुए हैं। औरों के हादसों की सूची देखें तो मुझसे लंबी ही होगी। फिर भी हर नया हादसा कुछ देर के लिए तो झकझोर ही जाता है। आमतौर पर अपनी मनस्थिति के साथ समझौता करने यानी अपनी थीरेपी के लिए ही मैं चिट्ठे लिखता हूँ। यह चिट्ठा खासतौर पर एक अपेक्षाकृत छोटे हादसे में घायल मनस्थिति से उबरने के खयाल सा लिख रहा हूँ। शनिवार को महज एक स्टॉप यानी पाँच मिनट से भी कम की इलेक्ट्रॉनिक सिटी से होसा रोड की बस यात्रा में मैं पॉकेटमारी का शिकार हुआ। आमतौर पर वॉलेट में अधिक पैसे होते नहीं। कार्ड भी एक दो ही होते हैं। संयोग से उस दिन तकरीबन साढ़े बारह हजार रुपए , एक क्रेडिट कार्ड , दो ए टी एम कार्ड , ड्राइविंग लाइसेंस और कुछ पासपोर्ट साइज़ फोटोग्राफ साथ थे। सब गए। मन के घायल होने की वजह सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है। बेंगलूरु में नया हूँ , कब तक ठहरना है , पता नहीं , इसलिए सारे कार्ड हैदराबाद के पते के थे। उनको दुबारा बनवाने की परेशानी है। पर जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है , वह है कि मैं खुद को मुआफ नहीं कर पा रहा। मैंने भाँप लिया था कि जो दो लोग मुझे गेट पर धकेल कर खड़े हैं...

उसकी कविता

मैं अकेला नहीं , सभी संवेदनशील लोग कह रहे हैं कि चीखों की तो आदत हो गई है। अपने हैदराबाद के छात्रों से महीने की मुलाकात के लिए आया हूँ। कल पूर्णिमा की रात मकान के पीछे जंगल में आधी रात के बाद कुछ युवा छात्र शोर मचा रहे थे , नींद टूट गई और दिल धड़कने लगा। देर तक शोर चीत्कार सुनता रहा औऱ शोर बंद होने के बाद भी जगा रहा। सोचकर बड़ी तकलीफ हुई कि ऐसी हर आवाज जिसे सुनकर खुश होना चाहिए कि सृष्टि में प्राण है , भय क्यों पैदा कर रही है। यह हमारा समय है। इसी बीच कुछ अच्छा देख सुन लें तो क्या बात। पिछले कुछ दिनों में नूराँ बहनों को सुना - सचमुच क्या बात जुगनी टुंगटुंग चन्न कित्थे गुजारी वे पंजाब के लोकगीत हमेशा से ही एक अपार ऊर्जा के स्रोत रहे हैं , पर जिस तरह नूराँ बहनों ने इसे दिखाया है वह कमाल का है। cokestudioindia पर उनका गाया अल्ला हू वह मजा नहीं देता जो उनके मेलों में गाए गीतों में है। हिंदी में इन दिनों फिर स्त्री रचनाकार और पुरुष व्यभिचार प्रसंग पर चर्चाएँ सरगर्म हैं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि हम पुरुष इन चर्चाओं में किस हद तक गंभीर होते हैं और हम में कितन...