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Showing posts from November, 2011

दो प्रेम कविताएँ

दो प्रेम कविताएँ। पहली का सन्दर्भ पुराना है और दूसरी पुरानी है। नहीं, ये नया ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक में नहीं छपी थीं। वह एक अजीब गड़बड़ कहानी है। मैंने ग्यारह टुकड़ों की प्रेम कविता भेजी, पता नहीं किस बेवकूफ ने बिना मुझसे पूछे दस टुकड़े फ़ेंक दिए और पहले टुकड़े को 'एक' शीर्षक से छाप दिया। यह हिन्दी में संभव है, क्योंकि कुछेक हिंदी की पत्रिकाओं के संपादक ऐसे बेवक़ूफ़ होते हैं। क्या करें, हिंदी है भाई। मैं दो साल से सोच रहा हूं कि सम्पादक से पूछूं कि उसने ऐसा किया कैसे. पर क्या करें, हिंदी है भाई, हिम्मत नहीं होती, कैसे कैसे भैंसों से टकरायें। वैसे नीचे वाली कविता नया ज्ञानोदय में ही छपी थी। ठीक ठाक छपी थी और कइओं ने फोन फान किया था कि बढ़िया कविता है। इस मटमैले बारिश आने को है दिन इस मटमैले बारिश आने को है दिन में सेंट्रल एविनिउ पर तुम्हारी गंध ढूँढ रहा हूँ। मार्बल की सफेद देह पर लेटा हंस झाँक रहा है , मैं दौड़ती गाड़ियों के बीच तुम्हारे पसीने का पीछा करता हूँ जल्दी से पार करता हूँ चाहतों के सागर। पहुँच कर जानता हूँ मैं पार कर रहा था तीस साल। तुम्हारा न ...

स्याही फैल जाती है

इशरत 1   इशरत ! सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली तू क्या कर रही थी पगली ! लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू यह जान कर ही होगी चली ! सो जा अब सो जा पगली . 2   इन्तज़ार है गर्मी कम होगी बारिश होगी हवाएँ चलेंगी उँगलियाँ चलेंगी चलेगा मन इन्तज़ार है तकलीफें कागजों पर उतरेंगी कहानियाँ लिखी जाएँगी सपने देखे जायेंगे इशरत तू भी जिएगी गर्मी तो सरकार के साथ है . 3 एक साथ चलती हैं कई सड़कें . सड़कें ढोती हैं कहानियाँ . कहानियों में कई दुख . दुखों का स्नायुतन्त्र . दुखों की आकाशगंगा प्रवाहमान . इतने दुख कैसे समेटूँ सफेद पन्ने फर - फर उडते . स्याही फैल जाती है शब्द नहीं उगते . इशरत रे ! ( दैनिक भास्कर – 2005; वर्त्तमान साहित्य -2007; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित )

निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी

भूपेन हाज़ारिका का चले जाना एक युग का अंत है । एक तरह से हबीब तनवीर के गुजरने के बाद से जो सिलसिला शुरू हुआ था , वह गुरशरण सिंह और भूपेन हाज़ारिका के साथ युगांत पर आ गया है । यह हमारी पीढी , खासकर कोलकाता जैसे शहरों में साठ के दशक के आखिरी और सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में कैशोर्य बिताने वाली पीढी के लोगों के लिए भी जैसे सूचना है कि हम अब बूढ़े हो चले हैं । भूपेन हाज़ारिका हमारे उन प्रारंभिक युवा दिनों की दूसरी सभी बातों के साथ हमारी ज़िन्दगियों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े थे । हमलोग रुना गुहठाकुरता का गाया ओ गंगा तुमी सुनते और कहते अरे भूपेन हाज़ारिका जैसी बात कहाँ । यह हमलोगों का आग्रह था जैसे कोई और उनकी तरह गा ही नहीं सकता । हमलोग सीना चौड़ा कर कहते कि पाल रोब्सन के 'ओल्ड मैन मिसिसीपी' को 'ओ गंगा तुमी' गाया है । जैसे वह हमारे परिवार के कोई थे जिनको ऐसी ख़ास बातों के लिए सम्मान मिला हो । रवींद्र, सलिल चौधरी आदि के बाद बांग्ला संगीत में (हालांकि मूलतः वे अहोमिया थे) वे आखिरी इंकलाबी थ...