पिछले चिट्ठे में हल्के मिजाज में मैंने लिखा था कि गंभीर फ्रांसीसी फिल्म याद नहीं आ रही। इस पर मित्रों ने याद दिलाया कि भइया त्रुफो गोदार्द को मत भूलो। अरे यार ! मैं मजाक कर रहा था। दोपार्दू भी मेरा प्रिय अभिनेता रहा है। नार्वे में हुई भयानक घटना के साथ भारत की समकालीन राजनीति का जो संबंध उजागर हो रहा है , उसे जानकर एक ओर तो कोई आश्चर्य नहीं होता , साथ ही अवसाद से मन भर जाता है। अवसाद इसलिए भी कि हमारे बीच कई लोग ऐसे हैं जिन्हें उस आतंकी की बातों से सहमति होगी। उसकी एक बात जो हैरान करने वाली है , वह है कि लोगों में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मुसलमानों को मत मारो , ऐसी आतंक की घटनाओं को अंजाम दो , जिसमें आम लोग बड़ी तादाद में मारे जाएँ। सरकारें अपनी गुप्तचर संस्थाओं के जरिए एक दूसरे के मुल्कों में या कभी अपने ही मुल्क में इस तरह की जघन्य हरकतें करती रहती हैं , यह तो सुना था , पर आतंकवादी ऐसे विचारों से संचालित हो रहे हों तो आदमी कहाँ छिपे। पर जीवन तो चलता ही रहता है। मुंबई हो या ओस्लो , जीवन का संघर्ष निरंतर है। हम उम्मीद करते रहेंगे , वह सुबह आएगी , जब ऐसी बीमारि...