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Showing posts from January, 2011

आदतन ईश्वर

भोपाल में कार्यरत मेरे डाक्टर मित्र राकेश बिस्वास ने जीमेल बज़ पर लिंक भेजा है - मानव के चिंतन प्रक्रिया पर वुल्फगां ग मेव्हेस का आलेख है । रैखिक चिंतन जिसमें निजी स्वार्थ सर्वोपरि है और अन्य की चिंता के लिए जगह नहीं है हमें विनाश की ओर ले जाता है । सामान्य चक्राकार चिंतन हमें दूसरों से जोड़ता हुआ वापस निज तक ले आता है और सूचना आधारित चक्रीय चिंतन हमें दूसरों के साथ जुड़े रह कर भी निजी हितों को भी आगे बढाता है । कोई ख़ास बात नहीं , निज से परे जाने की बात हर भला व्यक्ति कहता है । पर आलेख में ख़ास बात यह है कि पौधों की वृद्धि के साथ इन बातों को जोड़ते हुए तर्क स्थापित किया गया है कि नैसर्गिक विकास को ध्यान में रख सूचना आधारित चिंतन ही सामाजिक संबंधों को सफल और सुखी बना सकता है । चिंतन कैसा भी हो अगर मानव संबंध में 'पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आणे रे' की भावना न हो तो वह सफल नहीं हो सकता। स्वार्थ पर आधारित संबंध अंततः विषम-बंध ...

अच्छी खबर

आखिरकार मौत तो सबको आनी ही है। फिर भी हम चाहते हैं कि हमारे चहेते लोग हमेशा ही हमारे पास रहें। मैंने बहुत पहले कभी बेटी से कहा था कि मैं एमा गोल्डमैन से इश्क करता हूं। वह तब नादान थी और मुझे पूछती रही कि एमा तो बहुत पहले मर गई - उससे कोई कैसे इश्क कर सकता है। अभी मैंने सुना कि नेल्सन मंडेला अस्पताल से छूट कर आया है। अब मैं कैसे किसी को समझाऊँ कि मुझे इस शख्स से इश्क है। मुझे लगता है कि यह आदमी कभी न मरे तो दुनिया बहुत खूबसूरत होगी, पर मैं जानता हूं कि वह बहुत बूढ़ा हो चुका है और वह आज नहीं तो कल हमसे जुदा हो जाएगा। मैं जेसी जैक्सन से तो मिला हूं - पर नेल्सन मंडेला से कभी नहीं मिला - पर किसी के साथ इश्क होने के लिए उससे मिलना ज़रूरी होता है क्या? मैं तो शंकर गुहा नियोगी से भी कभी नहीं मिला, अरुंधती से भी कभी नहीं मिला। मुझे लगने लगा है कि जैविक रूप से प्यार करने वालों और नफरत करने वालों में कुछ फर्क है। अब मैं कैसे समझूं कि इशरत जहां के लिए अब भी मेरी आँखों से आंसू टपकते हैं, जबकि मैं तो जानता तक नहीं कि वह लड़की कौन थी। जो लोग देश के झंडे को देखते ही देखते नफरत के झंडे में बदल द...

लौट जाते हैं ये कुछ ईश्वर

कई बार विषयों की भरमार होते हुए भी दिनों तक समझ नहीं आता कि क्या लिखें - आज कल इतने लोग इतना अच्छा लिख रहे हैं - इसलिए अलग से कुछ लिख पाने के लिए सोचना पड़ता है। बहुत पहले मैंने इसका रास्ता निकाला था कि जब और कुछ नहीं लिखना तो पुरानी कोई कविता डाल दो। तो फिलहाल यही: हर दिन पार करता हूँ शहर का एक व्यस्त चौराहा हर दिन पार करता हूँ शहर का एक व्यस्त चौराहा हर दिन जीता हूँ एक नई ज़िंदगी कई लोग साथ लाते हैं अपने ईश्वर और पार करते हुए सड़क वे बतियाते हैं ईश्वर के साथ ईश्वर खुद परेशान होता है उस वक्त अनेकों ईश्वरों में हरेक को चिंता होती है अपने भक्तों के अलावा उनकी भी जो उनके भक्त नहीं हैं ऐसी चिंता उनके लिए लाजिमी है चूँकि वे ईश्वर हैं कई बार थक जाते हैं कुछेक ईश्वर और गंभीरता से सोचते हैं रिज़ाइन करने की मन ही मन दो या तीन महीने की नोटिस तैयार करते हैं फिर याद आता है कि ईश्वर की नोटिस लेने वाला कोई है नहीं तीव्र यंत्रणा होती है तब ईश्वर को और यह सोचते हुए कि दैवी संविधान में ज़रुरत है संशोधन की और छोड़ते हुए अपने भक्त को दफ्तर लौट जाते हैं ये कुछ ईश्वर ...

शब्द स्वलीन बिलकुल गलत

हाल में राष्ट्रीय मस्तिष्क शोध संस्था से आए मैथ्यू बेल्मोंट का बहुत रोचक और बढ़िया भाषण सुना। मैथ्यू मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ है। उसका शोध कार्य ऑटिज्म या स्वलीनता को लेकर है। उस दिन उसके भाषण का सार यह था कि ऐसे वीडिओ गेम बनाए जा सकते हैं जिनके जरिए मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है। मुझे सबसे रोचक बात यह लगी कि शुरुआत में ही उसने बतलाया कि औटिस्टिक बच्चे दरअसल स्वलीन होते नहीं। वे बड़े ध्यान से दूसरों को देखते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि जो कुछ उनके आस पास हो रहा है उन घटनाओं के पीछे कैसे नियम हैं यानी कि जो कुछ जैसा हो रहा है वह क्यों हो रहा है। इसके पहले कि वह अपनी समझ को कार्यान्वित कर दूसरों के बीच सामाजिक तौर पर शामिल हो सकें , घटनाएं बदलती रहती हैं और वह अगली घटना को समझने की कोशिश में लग जाते हैं। यानी कि वह वाकई स्वलीन नहीं होते। बाद में मैंने ऑटिज्म का हिंदी शब्द ढूंढा तो पाया स्वलीनता। अंग्रेज़ी शब्द का मूल ढूंढा तो पाया कि यह ग्रीक भाषा के आउटोस या स्व और इज़्मोस या अवस्था से आया है। पर मैथ्यू के अनुसार यह अर्थ तो सही नहीं बैठता। और हिंदी में तो बि...