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Showing posts from November, 2010

हूबहू कापी

कई लोगों को लगे कि इसमें नई कोई बात नहीं है। फिर भी यह बार बार पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए संभवतः पहली बार मैं किसी ब्लॉग से हूबहू कापी कर पोस्ट कर रहा हूं। वैसे यह पहले समयांतर पत्रिका में छप चुका है। अभी मैं एक-जिद्दी-धुन से चुरा रहा हूं - मैंने धीरेश से या पंकज बिष्ट से पूछा नहीं है, पर मैं जानता हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी 1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने क...

दोस्तों के साथ गीत

११ तारीख को कोलकाता से जयपुर होते हुए उदयपुर पहुंचा. विज्ञान समाज और मुक्ति पर तीन दिनों का सेमिनार था. उसके बाद दिल्ली होकर लखनऊ फिर १५ की आधी रात के बाद वापस. आते ही काम का अम्बार. सेमेस्टर के आख़िरी दिनों की मार. इसलिए लम्बे समय से ब्लॉग से छुट्टी ली हुई है. उदयपुर की सभा एक प्राप्ति थी. मैं हमेशा ही भले लोगों से मिलने और दोस्ती और प्यार के प्रति भावुक रहा हूँ. इसलिए काम की बात से ज्यादा प्यार की बातें ही दिमाग में घूमती हैं. दिन तीन क्या बीते जैसे लम्बे समय के बाद ज़िंदगी लौट आई. लगा जैसे तीस साल वापस युवा दिनों में वापस लौट गया. यहाँ तक कि बेसुरा ही सही पर मैंने दोस्तों के साथ गीत भी गाए. काम की बात यह कि यह देख कर आश्वस्त हुआ कि विज्ञान विरोधी नवउदारवादियों से अलग चिंतकों की एक पूरी जमात है जो विज्ञान की आलोचना के निर्माण में गंभीरता से जुटी है. इन लोगों की मूल चिंता मानववादी है. मेरे अपने पर्चे पर सब की प्रतिक्रिया से यह ताकत भी मिली कि अब इसे लिख डालना चाहिए. वहाँ आए चिंतकों में रवि सिन्हा को पहले पढ़ा था. और जैसा पढ़ा था वैसे ही गंभीर उनका भाषण था. तारिक़ ...

मानव ही सबसे बड़ा सच है

'They think that they show their respect for a subject when they dehistoricize it- when they turn it into a mummy' - (दार्शनिकों के बारे में नीत्शे का बयान). मानव सभ्यता के विकास के सन्दर्भ में हम राष्ट्रवाद को एक ज़रूरी पर एक बीमार मानसिकता से उपजे अध्यात्म की निकृष्टतम परिणति मान सकते हैं। प्रौद्योगिकी के विकास और पूंजी के संचय के साथ राष्ट्रीय हितों को जोड़ना पूंजीवाद के अन्तर्निहित संकटों से उभरा नियम है। स्थानीय संस्कृतियों और परम्पराओं को एक काल्पनिक बृहत् समुदाय में समाहित कर लेना और उनके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारना - यह पूंजी की होड़ के लिए ज़रूरी है। इसलिए राष्ट्रवाद और उससे जुड़े तमाम प्रतीक पैदा हुए हैं - मातृभूमि , पितृभूमि इत्यादि (आधुनिक राष्ट्रों के बनने के पहले इन धारणाओं का अर्थ भिन्न होता था; तब इनकी ज़रुरत राजाओं के हितों के रक्षा के लिए होती थी)। कहने को जन के बिना राष्ट्र का कोंई अर्थ नहीं, पर राष्ट्र हित में सबसे पहले जन की धारणा ही बलि चढती है। राष्ट्रवाद की धारणा के पाखंड का खुलासा तब अच्छी तरह दिखता है जब हम पुरातनपंथी अंधविश्वासों...

माओ चार्वाकवादी थे

चिट्ठा जगत में जिसकी जो मर्जी है लिख सकता है . मैंने हमेशा इसे एक डायरी की तरह लिया है पर अक्सर लोगों के हस्तक्षेप से मेरा पोस्ट वाद विवाद संवाद जैसा भी बन गया है . मुझे अपरिपक्व बहस से चिढ है , संभवतः जैसा प्रशिक्षण मुझे मिला है उसमें हल्की फुल्की बहस से चिढ़ होने की बुनियाद है . इसलिए मैं जल्दी आलोचनात्मक लेख नहीं लिखता . कहने को ई पी डब्ल्यू में भी कभी कुछ लिखा है , पर आम तौर से मैं इससे बचता हूँ . राजनैतिक विचारों पर जो बहस होती है , उसमें शामिल होते हुए मुझे अपनी अज्ञता का ख़याल रहता है . मुझे लगता है कितना कुछ है जिसके बारे में मुझे अधकचरा ज्ञान है , कितना कुछ है जो अभी मुझे पढ़ना है इसके बावजूद कि देश विदेश के सबसे बेहतरीन अध्यापकों और शोध कर्ताओं से सीखने और विमर्श करने का मौक़ा मिला है . संकोच से ही बात करने का संस्कार अपनाया है . देखता हूँ अधिकतर लोगों को ऐसा कोई आत्म - चैतन्य नहीं , जो मर्जी लिखते रहते हैं . अच्छा है , आखिर ज्ञान की बपौती किसके हाथ ! मैंने सोचा कि कुछ सवालों पर सोचूँ . जैसे : वाम या दक्षिण - इन शब्दों की उत्पत्ति कहाँ से हुई ? हिन्दुस्तान में...

राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी

मैंने सोचा था इस बार एक रोचक गलती पर लिखूं । एक छात्र कुंवर नारायण की कविता पढ़ते हुए 'असह्य नजदीकियां' को 'असहाय नजदीकियां' पढ़ गया। जैसे कोई गलती से कविता रच गया। पर अभी अखबार में पढ़ा कि डंडे मारने वाले दिखा गए कि हम कितने महान लोकतान्त्रिक देश में रहते हैं। इकट्ठे होकर निहत्थे लोगों पर हमला करना आसान होता है। कायर लोग यह हमेशा ही किया करते हैं। मैंने अरुंधती का वक्तव्य पढ़ा जिसमें उसने इस प्रसंग में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं। यह सोचने की बात है कि कायर लोग अरुंधती पर हमला कर देश का क्या भला कर रहे हैं। अफलातून ने सही लिखा ये राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी हैं। एक और छात्र ने यह बतलाया कि प्रख्यात आधुनिक चिन्तक बेनेडिक्ट एन्डरसन राष्ट्र को काल्पनिक समुदाय कहते हुए बतलाते हैं कि राष्ट्र का अर्थ तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि राष्ट्र में हो रही बुराइओं पर खुला विमर्श न हो। पर एन्डरसन तो विदेशी है, जैसे हर ऐसा विचार जिसके साथ हम सहमत नहीं है यह कहकर टाला जाता है की यह तो विदेशी विचार है तो इस को भी फेंको कूड़े में।