कई लोगों को लगे कि इसमें नई कोई बात नहीं है। फिर भी यह बार बार पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए संभवतः पहली बार मैं किसी ब्लॉग से हूबहू कापी कर पोस्ट कर रहा हूं। वैसे यह पहले समयांतर पत्रिका में छप चुका है। अभी मैं एक-जिद्दी-धुन से चुरा रहा हूं - मैंने धीरेश से या पंकज बिष्ट से पूछा नहीं है, पर मैं जानता हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी 1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने क...