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Showing posts from September, 2009

टिप्पणी का सिलसिला

कोई नई बात नहीं एक और आलेख एक और लिंक http://www.timesonline.co.uk/tol/news/world/asia/article6837585.ece कोई अदम गोंडवी लिखे फिर एक गीत 'सौ में सत्तर आदमी जब भूख से नाशाद हो दिल पे रख कर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है...' दोस्तो, मेरे पिछले एक चिट्ठे पर किसी अंजान भाई की एक टिप्पणी आई । निरपेक्षता का आग्रह है। मैंने एक जवाबी टिप्पणी में स्पष्ट किया है कि प्रेषक की टिप्पणी न केवल प्रासंगिक नहीं, बल्कि उसके अपने पूर्वाग्रहों की ओर संकेत करती है। ऊपर Times की लिंक उसी सिलसिले में है।

परेशान एक दूसरे से पेश आते हुए

Margaret Atwood की कविता बेटी के ब्लॉग से और मेरा अनुवादः We are hard on each other -- Margaret Atwood परेशान एक दूसरे से पेश आते हुए - मार्ग्रेट ऐटवुड i) परेशान एक दूसरे से पेश आते हुए हम अपनी बातों को साफगोई कहते हैं अपने पैने सच सावधानी से चुन फेंकते हैं निरपेक्ष मेज पार। जो बातें हम कहते हैं, वह सच हैं हमारे निशानों में ही होतीं तिकड़में जिससे वे खूँखार बन जाते हैं। ii) सच है कि तुम्हारे झूठ ज्यादा खुशगवार हैं हर बार नये जो ढूँढ लाते हो तकलीफदेह और ऊबाऊ तुम्हारे सच बार बार कहे जाते हैं शायद इसलिए कि उनमें से बहुत कम हैं जिन्हें तुम मानते हो कि तुम्हारे हैं iii) सच ज़िंदा तो है पर इसका ऐसा इस्तेमाल गलत है। मुझे प्यार है तुमसे यह सच है या औजार? iv) इस तरह हिलते डुलते क्या शरीर झूठ बोलता है ये स्पर्श, केश, यह गीला नर्म संगमरमर जिसपर मेरी जीभ दौड़ती है क्या ये झूठ हैं जिन्हें तुम कह रहे हो? तुम्हारा शरीर कोई शब्द नहीं यह झूठ नहीं कहता सच भी नहीं कहता बस मौजूद है यहाँ या मौजूद नहीं है। We are hard on each other -- Margaret Atwood ...

हर कोई

सुबह निकलता हूँ। रात होने पर घर लौटता हूँ। जैसे हर कोई। हर कोई हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक्त उठते ही एक सुबह पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका संभावनाओं के सभी हिसाब किताब गड्डमड्ड कर साल की सबसे सर्द भोर जैसी दरवाजे पर खड़ी होती है हर कोई जानता है ऐसा हमेशा से तय था फिर भी कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में सोचते रह सकने का हर कोई शुक्रिया अदा करता है उस अनिश्चितता का जो बिना किसी सैद्धांतिक बयान के होती चिरंतन हर कोई होता है तैयार सड़क पर निकलते ही 'ओफ्फो! बहुत गलत हुआ' सुनने को या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को या अकेले में बैठ चाह सकता है किसी की गोद में आँखें छिपा फफक फफक कर रोना हर कोई गुजरता है इस वक्त से अपनी तरह और कभी डूबते सूरज के साथ लौटा देता है वक्त उसी समुद्र को फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा हर किसी के जीवन में। (१९९४; इतवारी पत्रिका-१९९७)

हम लोग सुनते रहते हैं

आखिरकार जो किसी भी स्वस्थ दिमाग के आदमी को अरसे पता था, वही सच सामने आया इशरत तो अब है नहीं, जैसे नीलोफर जान और आशिया जान नहीं हैं। जैसे न जाने कितने कितने निर्दोष गायब हो गए हैं, सिर्फ इसलिए कि बीमार दिमागों की भीड़ उन्हें पुलिस और फौज की वर्दियों में या कभी बस सादे लिबासों में आ खा गई। एक बार अपनी लिखी कविताओं को पढ़ता हूँ और दो पल रो लेता हूँ। हिंदू में आज प्रोफेसर पनिक्कर का एक आलेख भी है। इसका मूल वक्तव्य हैः जबतक सार्वजनिक क्षेत्र के धर्म निरपेक्ष स्वरुप की पुनर्प्रतिष्ठा नहीं होती, जो धार्मिक स्वरुप इसने अख्तियार किया है, वह राज्य के कार्यों पर हावी होता रहेगा। (Unless the secular character of the public sphere is retrieved, the religious character that it has come to have could impinge on the functions of the state. पिछले दिनों मीरा नंदा हमारे यहाँ आई थी। उसने अपनी पुस्तक 'The God Market' पर भाषण देना था, जिसमें पिछले दशकों में वैश्वीकरण और उदारीकरण की सरकारी नीतियों के साथ मध्य वर्ग में बढ़ रही मजहबपरस्ती पर अपने शोधकार्य पर उसने कहना था। कुछ लोगों ने कोशिश की...