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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, September 11, 2009

हर कोई

सुबह निकलता हूँ। रात होने पर घर लौटता हूँ। जैसे हर कोई।


हर कोई

हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक्त
उठते ही एक सुबह
पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका
संभावनाओं के सभी हिसाब किताब
गड्डमड्ड कर
साल की सबसे सर्द भोर जैसी
दरवाजे पर खड़ी होती है

हर कोई जानता है
ऐसा हमेशा से तय था फिर भी
कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में
सोचते रह सकने का हर कोई
शुक्रिया अदा करता है
उस अनिश्चितता का जो
बिना किसी सैद्धांतिक बयान के
होती चिरंतन

हर कोई
होता है तैयार
सड़क पर निकलते ही
'ओफ्फो! बहुत गलत हुआ' सुनने को
या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को
या अकेले में बैठ चाह सकता है
किसी की गोद में
आँखें छिपा फफक फफक कर रोना

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा
हर किसी के जीवन में।
(१९९४; इतवारी पत्रिका-१९९७)

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5 Comments:

Blogger संजय तिवारी said...

लेखनी प्रभावित करती है.

6:28 PM, September 11, 2009  
Anonymous अनिकेत said...

अपने कॉलेज के कुछ खराब दिन याद आ गए. लगा जैसे कि कल की ही बात हो.
खराब ही क्यों न सही, अगर आज ठीक ठाक सा चल रहा हो, तो पुराने दिन याद करना हमेशा अच्छा लगता है. कविता बेहद खूबसूरत है.

6:55 PM, September 11, 2009  
Blogger डा. अमर कुमार said...


अनदेखे प्रारब्ध का चिंतन !

9:00 AM, September 12, 2009  
Blogger प्रदीप कांत said...

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

सबका अपना अपना प्रारभ्ध........

9:15 PM, September 12, 2009  
Blogger प्रदीप कांत said...

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

सबका अपना अपना प्रारभ्ध........

9:28 PM, September 12, 2009  

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