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हम लोग सुनते रहते हैं

आखिरकार जो किसी भी स्वस्थ दिमाग के आदमी को अरसे पता था, वही सच सामने आया


इशरत तो अब है नहीं, जैसे नीलोफर जान और आशिया जान नहीं हैं। जैसे न जाने कितने कितने निर्दोष गायब हो गए हैं, सिर्फ इसलिए कि बीमार दिमागों की भीड़ उन्हें पुलिस और फौज की वर्दियों में या कभी बस सादे लिबासों में आ खा गई। एक बार अपनी लिखी कविताओं को पढ़ता हूँ और दो पल रो लेता हूँ।

हिंदू में आज प्रोफेसर पनिक्कर का एक आलेख भी है। इसका मूल वक्तव्य हैः जबतक सार्वजनिक क्षेत्र के धर्म निरपेक्ष स्वरुप की पुनर्प्रतिष्ठा नहीं होती, जो धार्मिक स्वरुप इसने अख्तियार किया है, वह राज्य के कार्यों पर हावी होता रहेगा। (Unless the secular character of the public sphere is retrieved, the religious character that it has come to have could impinge on the functions of the state.

पिछले दिनों मीरा नंदा हमारे यहाँ आई थी। उसने अपनी पुस्तक 'The God Market' पर भाषण देना था, जिसमें पिछले दशकों में वैश्वीकरण और उदारीकरण की सरकारी नीतियों के साथ मध्य वर्ग में बढ़ रही मजहबपरस्ती पर अपने शोधकार्य पर उसने कहना था। कुछ लोगों ने कोशिश की कि यह भाषण होना नहीं चाहिए। आखिर हुआ भी तो बहुत कम लोग सुनने आए। जो आए उनका खयाल था कि संविधान बनाने वालों को जनमानस की सुध न थी। एक दोस्त कह गया कि निजी क्षेत्र में धर्म का मकसद कल्याणकारी है। देखना यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र में भी ऐसा हो। यानी इसलिए अगर सरकारी नीतियों से धार्मिक संस्थानों को ज़मीनें और अनुदान मिल रहे हैं तो चिंता की बात नहीं। पढ़े लिखे समझदार लोग इस तरह का बकवास करते रहते हैं, हम लोग सुनते रहते हैं। कुछ दो एक हमारे जैसे मित्र थे जिनको मीरा की चिंताएँ ठीक लगीं।

Comments

शायदा said…
ye khabr raat aai thee k ishrat aur uske sath mar diye gaye logon ka encounter farzi tha. subah phir se padhi aur der tak ye sochti rahi k kya is raat ki koi subah hai?
achha kiya ye post likhkar aapne.
azdak said…
अच्‍छा याद दिलाया.
अपने यहां भी इसका लिंक चेंप देता हूं.
Sukesh Kumar said…
मैं समझता हू, इशरत जैसी और कई निर्दोष गायब होते रहेंगे...
सवाल पुलिस या फौज में बीमारी होने का नहीं है, सवाल समाज में बीमारी की कीटाणु होने का है, और जब तक कीटाणु रहेंगे, 'वॅक्सीन' नाम से इलाज होता रहेगा...
मैं भी स्माज में धरम के बढ़ते प्रभाव के बारे में आप ही की तरह सोचता हू, पर मुझे लगता है इसका कारण लोगो के मान मे दूसरे धर्मो से असुरक्षा का भाव होना है| ध्यान देने वाली बात यह है की लोग किसी दूसरे धरम के प्रति अपने धरम क़ी
डॉमिनेशन चाहते हैं, ब्ज़ाएे की अपने धरम की तराकी सिरफ़ अपने लिए करने के
Anonymous said…
I think this says it all. We need to be unbiased from either side.

http://gurcharandas.blogspot.com/

"The difficulty of being Good"

By gurucharn das
अंजान भाई ने कह दिया 'This says it all. We need to be unbiased from either side'

अपने आप में इस वक्तव्य से किसी को क्या आपत्ति है! न ही
गुरचरन दास के इस वक्तव्य से कि 'Hindu nationalists must resist hijacking our religious past and turning it into votes. Secularists must learn to respect the needs of ordinary Indians for a transcendental life beyond reason. Only then will secularism find a comfortable home in India.'

मुसीबत यह है कि मेरे पोस्ट में जो बातें हैं उनका इन बातों से कोई ताल्लुक नहीं है। मैं 'a retired civil servant who had once been a favourite of Indira Gandhi' नहीं हूँ जिसे धार्मिक लोगों से चिढ़ है, न ही मैं इस तरह की प्रवृत्ति पसंद करता हूँ।
मेरी तकलीफ उन लोगों से है जिन्हें यह समझ में नहीं आता कि एक ऐसे देश में जहाँ एक धर्म के अनुयायी संख्याबहुल हैं, वहाँ अगर राज्य सत्ता धर्म से जुड़ती है तो वह धर्म निरपेक्ष नहीं रह सकती। दूसरी बात यह कि धर्म के अलावा गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों के लिए पैसे चाहिए। हमारी सरकार धार्मिक संस्थानों को पैसे देती है या रियायती दरों में ज़मीनें देती है तो यह देश की जनता के साथ धोखा है।
अंजान भाई, हम कैसे, क्या तर्क चुनते हैं, यह हमारे पूर्वाग्रहों को दर्शाता है। गुरचरण दास इस बात को जानता है, इसलिए बड़ी समझदारी से उसने तर्क पेश किए हैं, पर भाई तुम तो किस प्रसंग में क्या कह गए, यह तुम्हें सोचना चाहिए।

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