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Showing posts from August, 2009

कैसे दूँ उसे मौन यूँ जीवन भर दान?

अफलातून ने बतलाया कि मेरी तीन प्रेम कविताएँ उसने अपने ब्लाग पर पोस्ट की थीं, कई साथियों ने उन पर प्रतिक्रिया भेजी है। प्रेम कविताएँ होती ही ऐसी हैं कि हर कोई पसंद करता है। आधुनिक अंग्रेज़ी कविता में तीन कवियों की कविताएँ मुझे बहुत भाती हैं, जिनमें एक है सेरा टीसडेल (१९३० के दशक की न्यूयार्क की कवि)। कई मित्रों को उसकी कविताएँ पढ़वाई हैं। पहली बार उसकी कविता से परिचय हुआ रे ब्रैडबरी की कहानी 'August 2026: And There Will Come Soft Rains' ('अगस्त २०२६: आएँगी हल्की फुहारें' शीर्षक से मेरा अनुवाद १९९५ के आस पास साक्षात्कार में आया था)। कहानी में नाभिकीय विस्फोट के बाद की स्थिति का वर्णन है - यह कहानी नेट पर उपलब्ध है, ज़रुर पढ़ें. बहरहाल इस कहानी में सेरा टीसडेल की इस कविता का उद्धरण है, "There will come soft rains and the smell of the ground, And swallows circling with their shimmering sound; And frogs in the pools singing at night, And wild plum trees in tremulous white; Robins will wear their feathery fire, Whistling their whims on a low fence-wire; And not ...

पंखा चलता तो शहतीर काँपती

पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान यूनिवर्सिटी और कालेज अध्यापकों के लिए तरह तरह के रीफ्रेशर कोर्सों में भाषण देता था, कभी कभार साहित्य पर भी कुछ कहा है। सत्यपाल सहगल ने एम ए के हिंदी के विद्यार्थियों से शरतचंद्र पर कुछ कहने को कहा था। दो बार शरतचंद्र पढ़ा पाया हूँ। अब मुझे संस्थान में बी टेक के छात्रों को विज्ञान के अलावा हिंदी साहित्य भी पढ़ाने का मौका मिला है। पिछले साल भी पढ़ाया था और इस साल भी पढ़ा रहा हूँ। चूँकि साहित्य में मेरा औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है, इसलिए मैं इसे रीडिंग्स या पाठ का कोर्स कहता हूँ। हमलोग कविता कहानियाँ पढ़ते हैं और उन पर चर्चा करते हैं। तुलनात्मक समझ के लिए हिंदी के अलावा विश्व साहित्य से भी कुछ सामग्री पढ़ते हैं। इस बार मैं फिल्में भी दिखा रहा हूँ। बहरहाल आज ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता' पढ़ते हुए खूब बातें हुईं। कोर्स शुरु होने के पहले छात्र समकालीन हिंदी साहित्य से अपरिचित थे। पर रुचि के साथ पढ़ रहे हैं। पाँच कक्षाओं में लगातार कविताएँ पढ़ते रहे तो एक ने कहा कि अब कुछ कहानियाँ पढ़ी जाएँ। इस तरह आज ज्ञानरंजन पढ़ने लगे। पिता एक अजीब प्राणी है य...

सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए

यह सिर्फ इसलिए कि कई दिन हो गए और चिट्ठा लिखा नहीं। जब लिखने को बेचैन होता हूँ तो वक्त नहीं होता। वक्त मिलता है तो दूसरे ब्लाग्स पढ़ने में ही चला जाता है। बहुत सारे लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। बीच बीच में दो चार मित्र जो मुझे पढ़ते हैं कहते रहे हैं कि कुछ तो पोस्ट किया करो। तो फिलहाल इसलिए। वैसे कहने को तो बहुत बातें थीं, तड़पता भी हूँ। हाल में ही पास्तरनाक की एक उक्ति फिर से पढ़ी कि जीवन जीने के लिए है न कि जीने की तैयारी के लिए। कोई नई बात नहीं, पर पढ़ के बेचैनी बढ़ गई। तब से खुद को कह रहा हूँ कि और कुछ नहीं तो कोई पुरानी कविता ही पोस्ट कर दो। तो यह है उन दिनों की कविता जब खयाल तो नए थे पर हिंदी का मुहावरा अभी कमजोर था। यह कविता मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संगृहित है। दुःख के इन दिनों में छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है कुछ बड़े भी हैं दुःख हमेशा कोई न कोई होता है हमसे अधिक दुःखी हमारे कई सुख दूसरों के दुःख होते है न जाने किन सुख दुःखों के बीज ढोते हैं हम सब सुख दुःखों से बने धर्म सबसे बड़ा धर्म खोज आदि पिता की नंगी माँ की खोज पहली बार जिस...