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Showing posts from July, 2009

एक दिन में कितने दुःख

एक दिन में कितने दुःख मुझे सहला सकते हैं मैं शहर के व्यस्त चौराहे पर देखता हूँ अदृश्य मानव संतान खेल रहे हैं गिर रहे हैं मोपेड स्कूटरों पर पीछे बैठी सुंदर युवतियों पर चवन्नी अठन्नी के लिए मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह डाँटता हूँ कहता हूँ हटो नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार कि मेरे बच्चों को बचाओ मैं बीच रात सुनता हूँ यंत्रों में एक नारी की आवाज अकेली है वह बहुत अकेली कोई नहीं है दोस्त उसका कहता हूँ उसे कि मैं हूँ भरोसा दिलाता हूँ दूसरों की तरफ से पर वह है कि न रोती हुई भी रोती चली है इतनी अकेली इतनी सुंदर वह औरत रात की रानी सी महकती बिलखती वह औरत औरत का रोना काफी नहीं है यह जताने रोता है एक मर्द जवान मर्द रोता है जीवन की निरर्थकता पर कुछ कहते हुए भरोसा देता हूँ उसे पढ़ता हूँ वाल्ट ह्विटमैन ' आय सेलीब्रेट माईसेल्फ ....' मुग्ध सुनता है वह एक बच्चे के कवि बनने की कहानी एक पक्षी का रोना एक प्रेमी का बिछुड़ना पढ़ते हुए मेरी आँखों से बहते हैं आँसू हल्की फिसफिसाहट में शुक्रिया अदा करता हूँ कविता का चलता हूँ निस्तब्ध रात को सड़क पर कव...

वह बच्चा

एक मित्र ने कहा कि मैं मेरा भारत महान कहकर सचमुच के देशप्रेमियों को चोट पहुँचाता हूँ। सही है, चोट पहुँचती होगी। क्या मैं चाहता हूँ कि उन्हें चोट पहुँचे? मैं जानता हूँ कि किशोरावस्था तक मुझे भी किसी के इस तरह कहने से चोट पहुँचती थी। देश नामक भ्रामक धारणा से मुक्त होने की कोई आसान राह नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि व्यावहारिक रुप से देश की जो धारणा है, एक बड़े जनसमुदाय का कम से कम सिद्धांततः स्वशासन में होना या अपने चुने प्रतिनिधियों के द्वारा शासित होना (या राजतंत्र में अपनी इच्छा से किसी राजा के अधीन होना) - इससे भिड़ने के लिए मैं नारा दे रहा हूँ - यह जानते हुए भी कि जन्म से पहले हममें से किसी ने भी अपना देश नहीं चुना। यह भी नहीं कि भौगोलिक रुप से परिभाषित किसी देश में बाहर के घुसपैठिए आकर गड़बड़ी करें तो हम उसका विरोध न करें। तो आखिर मेरा मकसद क्या है? हम आम तौर से मान ही लेते हैं कि सबको स्पष्ट होगा ही कि मेरा भारत महान कहते हुए हम उस भारत की ओर संकेत कर रहे हैं जो एक बीमारी की तरह हमारे मन में बसा है - एक भारत जो शस्य श्यामला है, जहाँ लोग सुखी हैं, जहाँ नारी देवी है, जहाँ सब गड़ब...

उदय प्रकाश के बहाने

जब तक यह नहीं जानोगे कि तुम खुद कितना नीचे गिर सकते हो, तब तक तुम्हारी समझ कमजोर ही रहेगी। जब मैं इक्कीस साल का था, यह बात मुझे सुमित मजुमदार ने कही थी, जो मुझसे चार साल सीनीयर था और एक समय मुझे जिसका protege समझा जाता था। सुमित अब अमरीका में भौतिक शास्त्र का अध्यापक है। मैं कभी उदय प्रकाश से मिला नहीं। १९८८ में हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'People's History of the United States' के पहले अध्याय का अनुवाद पहल में प्रकाशित हुआ था, तो उदय ने प्रशंसा में चार पृष्ठ लंबा ख़त लिखा था। एक बात मुझे काफी अच्छी लगी थी, उदय ने लिखा था कि काश कभी भारत का इतिहास भी इस तरह लिखा जाता। मैंने धन्यवाद का जवाबी ख़त भेजा और कुछ ही दिनों के बाद उदय का जवाब आया था कि उसके कोई अमरीकी इतिहासविद मित्र ने बतलाया है कि हावर्ड ज़िन को अमरीका में कोई खास महत्त्व नहीं दिया जाता है। मुझे रंजिश थी, खास तौर पर इसलिए कि मैंने पहले अध्याय का अनुवाद एकलव्य संस्था के साथियों पर चिढ़ कर लिखा था, क्योंकि वे सामाजिक अध्ययन की पुस्तक में अमरीका पर तैयार किए गए अध्याय पर हमारी प्रतिक्रिया को गंभीरता से नहीं ले रहे थे।...

सोहनी धरती अल्लाह रखे

प्रतिलिपि पर कविता पढ़ कर एक मित्र ने मजाक करते हुए पूछा - दरख्त को क्यों इतनी झेंप? सचमुच कई बार लिखने की कोशिश करते हुए रुक गया। कई कारण हैं चिट्ठा न लिखने के। व्यस्तता, बीमारी, इत्यादि, पर सबसे बड़ा कारण वही सामान्य अवसाद है, जो जरा सा सजग हो कर सोचते ही हावी हो जाता है। इसके बावजूद कि कितने साथी जूझ रहे हैं कि बेहतर सुबह नसीब हो, फिर भी कभी कभी जैसे असहायता का समंदर सा दम घोटने लगता है। वैसे इन दिनों में हमेशा कि तरह कुछ पढ़ता रहा। अब पढ़ने के तुरंत बाद भी सब नाम याद नहीं रहते, पर मसलन Ian Mcewan का उपन्यास Atonement, Per Patterson का Out Stealing Horses – ये दो और David Allyn का Make Love Not War – साठ-सत्तर के दशकों में अमरीका में हुए यौन आंदोलनों पर लिखी इतिहास की किताब पढ़ी। मैं १९७९ में पहली बार अमरीका गया था और छः साल लगातार ठहरा था। Allyn की उम्र मुझसे कम है, इसलिए प्रत्यक्ष अनुभव उन घटनाओं का उसे नहीं है, जिन्हें मेरी पीढ़ी के लोग थोड़ा बहुत देख पाए थे। फिर भी साक्षात्कारों और दस्तावेजों के आधार पर लिखी यह किताब सचमुच पढ़ने लायक है। दो साल से पास पड़ी हुई थी, आखिरकार...