मैं आम तौर पर ग़ज़ल लिखता नहीं। भला हो उम मित्रों का जिन्होंने सही चेतावनी दी है समय समय पर कि यह तुम्हारा काम नहीं। पर कभी कभी सनक सवार हो ही जाती है। तो गोपाल जोशी के सवाल का जवाब लिखने के बाद से मन में कुछ बातें चल रही थीं, उनपर ग़ज़ल लिख ही डाली। कमाल यह कि यह ग़ज़ल दोस्तों को पसंद भी आई। साथ में जो दूसरी ग़ज़लें लिखीं, उन को पढ़कर लोग मुँह छिपाते हैं, भई अब दाढ़ी सफेद हो गई है, दिखना नहीं चाहिए न कि कोई मुझ पर हँस रहा है। तो यह है वह कामयाब ग़ज़लः बात इतनी कि हाइवे के किनारे फुटपाथ चाहिए कुछ और नहीं तो मुझे सुकूं की रात चाहिए मामूली इस जद्दोजहद में कल शामिल हुआ यह कि शहर में शहर से हालात चाहिए आदमी भी चल सके जहाँ मशीनें हैं दौड़तीं रुक कर दो घड़ी करने को बात चाहिए गाड़ीवालों के आगे हैसियत कुछ हो औरों की ज्यादा नहीं बेधड़क चलने की औकात चाहिए कहीं मिलें हम तुम और मैं गाऊँ गीत कोई सड़क किनारे ऐसी इक बात बेबात चाहिए ज़रुरी नहीं कि हर जगह हो चीनी इंकलाब छोटी लड़ाइयाँ भी हैं लड़नी यह जज़्बात चाहिए। **************************** तो यह तो ठहरी ग़ज़ल। अब ताज़ा हालात परः ********************...