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Showing posts from August, 2008

कामयाब ग़ज़ल

मैं आम तौर पर ग़ज़ल लिखता नहीं। भला हो उम मित्रों का जिन्होंने सही चेतावनी दी है समय समय पर कि यह तुम्हारा काम नहीं। पर कभी कभी सनक सवार हो ही जाती है। तो गोपाल जोशी के सवाल का जवाब लिखने के बाद से मन में कुछ बातें चल रही थीं, उनपर ग़ज़ल लिख ही डाली। कमाल यह कि यह ग़ज़ल दोस्तों को पसंद भी आई। साथ में जो दूसरी ग़ज़लें लिखीं, उन को पढ़कर लोग मुँह छिपाते हैं, भई अब दाढ़ी सफेद हो गई है, दिखना नहीं चाहिए न कि कोई मुझ पर हँस रहा है। तो यह है वह कामयाब ग़ज़लः बात इतनी कि हाइवे के किनारे फुटपाथ चाहिए कुछ और नहीं तो मुझे सुकूं की रात चाहिए मामूली इस जद्दोजहद में कल शामिल हुआ यह कि शहर में शहर से हालात चाहिए आदमी भी चल सके जहाँ मशीनें हैं दौड़तीं रुक कर दो घड़ी करने को बात चाहिए गाड़ीवालों के आगे हैसियत कुछ हो औरों की ज्यादा नहीं बेधड़क चलने की औकात चाहिए कहीं मिलें हम तुम और मैं गाऊँ गीत कोई सड़क किनारे ऐसी इक बात बेबात चाहिए ज़रुरी नहीं कि हर जगह हो चीनी इंकलाब छोटी लड़ाइयाँ भी हैं लड़नी यह जज़्बात चाहिए। **************************** तो यह तो ठहरी ग़ज़ल। अब ताज़ा हालात परः ********************...

एक क्षण होता है ऐसा

देशभक्त दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई जिसने हत्या की। जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है जिसका हटाया गया जिसने बंदूक के सामने सीना ताना जिसने बंदूक तानी। कोई भी हो सकता है माँ का बेटा, धरती का दावेदार उगते या अस्त होते सूरज को देखकर पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता । एक क्षण होता है ऐसा जब उन्माद शिथिल पड़ता है प्रेम तब प्रेम बन उगता है देशभक्त का सीना तड़पता है जीभ पर होता है आम इमली जैसी स्मृतियों का स्वाद नभ थल एकाकार उस शून्य में जीता है वह प्राणी देशभक्त । वही जिसने ह्त्या की होती है जिसकी हत्या हुई होती है । मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

गोपाल जोशी ने सवाल उठाया है कि सिर्फ समस्याओं को कहना क्यों, समाधान भी बतलाएँ। अव्वल तो समाधान की कोशिश ब्लॉग पर करना या ढूँढना मेरा मकसद नहीं है, मैं तो सिर्फ अपनी फक्कड़मिजाज़ी के चलते चिट्ठे लिखता हूँ। फिर भी अब बात चली है तो आगे बढ़ाएँ। समस्याओं के साथ जूझने का हम सबका अपना अपना तरीका है। एक ज़माना था जब लोग लाइन या एक निश्चित वैचारिक समझ की बात करते थे। हमलोगों ने कभी दौड़ते भागते पिटते पिटाते जाना कि हम मूलतः स्वच्छंदमना प्राणी हैं और लाइन वाला मामला हमलोगों पर फिट नहीं बैठता। ऐंड वाइसे वर्सा। दूसरे हमने यह भी जाना कि कुछ बुनियादी बातें हैं, जैसे बराबरी पर आधारित समाज, सबको न्यूनतम पोषकतत्वयुक्त भोजन, शिक्षा और आश्रय, आदि बातें, जिनके लिए कोई खास समझ की ज़रुरत नहीं होती, बस यह जानना ज़रुरी होता है कि आदमी आदमी है। जानवरों के साथ भी अच्छा सलूक करना है, यह भी बुनियादी बात है, पर मैं मांसाहारी हूँ, इसलिए .....। बहरहाल बात हो रही है समाधान की। भाई, जहाँ अंतरिक्ष और नाभिकीय विज्ञान जैसी चुनौतियों पर लोग भिड़े हुए हैं, वहाँ अगर गरीबी कैसे कम करें या गाँव गाँव में बेहतर स्कूल क्यों नहीं...

नहीं समझ सकते

बीस साल पहलेः उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी। नहीं समझ सकते कितने अच्छे हो सकते हैं हम उठ सकते कच्ची नींद सुबह पहुँच सकते दूर गाँव भीड़ भरी बस चढ़ भूल सकते दोपहर-भूख एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते पी सकते एक कप चाय समझ सकते हैं पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ लौटते शाम ढली थकान ब्रेड आमलेट का डिनर पढ़ते नई किताब पर नहीं समझ सकते हम कि है अध्यापक नाखुश अपनी ज़िंदगी से कितने अच्छे हो सकते हैं हम बेसुरी घोषित कर सकते सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से सीख सकते नए उसूल भर सकते आँकड़े रचे दर परचे सभा बुला सकते हैं सबको साथी मान साझा कर सकते हैं देश विदेश अपनी उनकी बातें मौका दे सकते हैं सबको बोलने का लिख सकते डायरी में मनन कर सकते फिर भी नहीं समझ सकते कि हैं कम पैसे वाले लोग नाखुश अपनी ज़िंदगी से कितने अच्छे हो सकते हैं हम दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ एक-एक कर छोड़ सकते हैं बन सकते आदर्श कई भावुक दिलों में हो सकते इतने प्रभावी कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी दूर से पहचान लें आकार लें हमारे शब्दों से गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ...

गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान

पूछो कि क्या तुम्हारी साँस तुम्हारी है क्या तुम्हारी चाहतें तुम्हारी हैं क्या तुम प्यार कर सकते हो जीवन से, जीवन के हर रंग से क्या तुम खुद से प्यार कर सकते हो धूल, पानी, हवा, आस्मान शब्द नहीं जीवन हैं जैसे स्वाधीनता शब्द नहीं, पहेली भी नहीं युवाओं, मत लो शपथ गरजो कि जीवन तुम्हारा है ज़मीं तुम्हारी है यह ज़मीं हर इंसान की है इस ज़मीं पर जो लकीरें हैं गुलामी है वह दिलों को बाँटतीं ये लकीरें युवाओं मत पहनो कपड़े जो तुम्हें दूसरों से अलग नहीं विच्छिन्न करते हैं मत गाओ युद्ध गीत चढ़ो, पेड़ों पर चढ़ो पहाड़ों पर चढ़ो खुली आँखें समेटो दुनिया को यह संसार है हमारे पास इसी में हमारी आज़ादी, यही हमारी साँस कोई स्वर्ग नहीं जो यहाँ नहीं जुट जाओ कि कोई नर्क न हो देखो बच्चे छूना चाहते तुम्हें चल पड़ो उनकी उँगलियाँ पकड़ गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान हम ही हैं नई भोर के दूत हम इंसां से प्यार करते हैं हम जीवन से प्यार करते हैं स्वाधीन हैं हम।

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ? मैं माँग करता हूँ हवा से पानी से कि उनमें घुलते मिलते रंग गंध हों और कोई कह रहा है कि मैं विक्षोभवादी हूँ मुल्क में किसी भी समझदार व्यक्ति को पुकारा जाता है मार्क्सवादी कहकर दाल रोटी ज्यादा ज़रुरी है जीवन के लिए जानना मुश्किल कि मार्क्स कितना समझदार था क्या मैं समझदार हूँ? वैसे विक्षोभवादी होने में क्या बुरा है? सोचो तो रंग अच्छा है मार्क्सवादी भी कहलाना अच्छी बात है बशर्ते यह बात समझ में आ जाए कि इसका मतलब गाँधीजी का अपमान नहीं है हालांकि इसका मतलब यह ज़रुर है हम गाँधी के साथ खड़े हो जनता जनार्दन की जय कहते हैं चलो तय हुआ कि मैं विक्षोभवादी हूँ प्रबुद्ध जन तालियाँ बजाएँ वक्ता की बातें सुन इसी बीच एक वक्ता को यह चिंता है कि दूसरा उसका पर्चा छापेगा या नहीं मैं विक्षोभवादी हूँ मैं बाबा को याद करता गाता हूँ 'जली ठूँठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक बाल ना बाँका कर सकी शासन की बंदूक'।

What have we done

हिरोशिमा पर एक पुराना स्लाइड शो छात्रों ने देखा और चर्चा की। १९९८ के हिंद-पाक नाभिकीय विस्फोटों के बाद मुख्यतः चेन्नई के इंस्टीच्यूट आफ मैथेमेटिकल साइंसेस आदि और बैंगलोर के विभिन्न विज्ञान शोध संस्थानों से वैज्ञानिकों ने मिलकर 'साइंटिस्ट्स अगेंस्ट न्यूक्लीयर वेपन्स' के लिए ये स्लाइड्स तैयार की थीं। शीर्षक था 'हिरोशिमा कैन हैपेन हीयर'। हमलोग चंडीगढ़ में युद्ध विरोधी और हिंद-पाक शांति के आंदोलनों में जुड़ कर प्रयास कर रहे थे। हमलोगों ने इन स्लाइड्स को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदल कर कई स्कूलों में, सामुदायिक केंद्रों में, गाँवों में दिखलाया। प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हस्ती गुरशरण सिंह ने भी हमें काफी मदद की और हमलोगों ने जगह जगह नुक्कड़ नाटक किए। यहाँ हैदराबाद में इतने साल बाद उन स्लाइड्स का प्रभाव वैसा ही रहा जैसा उनदिनों देखा था। हिबाकुशा (नाभिकीय विस्फोटों से प्रभावित बच गए लोग) के बयानों और उनके खींचे फोटोग्राफ्स और उनके अंकित तस्वीरों को देखकर भला कौन नहीं प्रभावित होगा। चर्चा के दौरान ऐसी बातें भी सामने आईं कि अगर ईराक के पास नाभिकीय बम होते तो क्या अमरीका की...

खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स

'भारत' की खोज पता चला कि भजन गायन के लिए साप्ताहिक सभा होती है, अब उसमें विचार विमर्श भी होगा। विमर्श का उद्देश्य 'भारत' की खोज है। बड़ी आशा और उत्सुकता के साथ मैं गया। मुझे भजन अच्छे लगते हैं। पिछले तीस सालों में प्रचलित हुए भौंडी आवाज में सुबह सुबह कुदरती शांति को नष्ट करने वाले, उत्तर भारत के फिल्मी पैरोडियों वाले भजन नहीं, पारंपरिक भक्ति गीत, खास कर अगर राग में बँधे हों, सुन कर अच्छा लगता है। जिस दिन मैं गया, भजन गाए गए। एक भजन में प्रभु को गोप्य कहा गया था, मैंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों तो थोड़ी चर्चा हुई। इसके बाद विचार के लिए चाणक्य श्लोक पढ़े गए। मुसीबत यह थी कि जिस पुस्तक से श्लोक पढ़े जा रहे थे, उसमें श्लोक और उनके हिंदी में अर्थ के अलावा टीका भी थी। यह टीका जिस स्वामी ने लिखी थी, स्पष्ट था कि वह पूर्वाग्रह-ग्रस्त और पुरातनपंथी है। टीका में भिन्न स्रोतों से उद्धरण थे। कुछ पंचतंत्र जैसे स्रोत थे तो कुछ महज लोकोक्ति। तीसरे ही श्लोक में मेरा धैर्य टूटने लगा। मैंने साथियों से कहा कि हमें श्लोक और उनके अर्थ पढ़कर अपने आप चर्चा करनी चाहिए, न कि टीकाकार पर निर्भर...