गोपाल जोशी ने सवाल उठाया है कि सिर्फ समस्याओं को कहना क्यों, समाधान भी बतलाएँ। अव्वल तो समाधान की कोशिश ब्लॉग पर करना या ढूँढना मेरा मकसद नहीं है, मैं तो सिर्फ अपनी फक्कड़मिजाज़ी के चलते चिट्ठे लिखता हूँ। फिर भी अब बात चली है तो आगे बढ़ाएँ। समस्याओं के साथ जूझने का हम सबका अपना अपना तरीका है। एक ज़माना था जब लोग लाइन या एक निश्चित वैचारिक समझ की बात करते थे। हमलोगों ने कभी दौड़ते भागते पिटते पिटाते जाना कि हम मूलतः स्वच्छंदमना प्राणी हैं और लाइन वाला मामला हमलोगों पर फिट नहीं बैठता। ऐंड वाइसे वर्सा। दूसरे हमने यह भी जाना कि कुछ बुनियादी बातें हैं, जैसे बराबरी पर आधारित समाज, सबको न्यूनतम पोषकतत्वयुक्त भोजन, शिक्षा और आश्रय, आदि बातें, जिनके लिए कोई खास समझ की ज़रुरत नहीं होती, बस यह जानना ज़रुरी होता है कि आदमी आदमी है। जानवरों के साथ भी अच्छा सलूक करना है, यह भी बुनियादी बात है, पर मैं मांसाहारी हूँ, इसलिए .....।
बहरहाल बात हो रही है समाधान की। भाई, जहाँ अंतरिक्ष और नाभिकीय विज्ञान जैसी चुनौतियों पर लोग भिड़े हुए हैं, वहाँ अगर गरीबी कैसे कम करें या गाँव गाँव में बेहतर स्कूल क्यों नहीं हैं, या हर कोई पुलिस को दुश्मन क्यों मानता है जैसे सवाल हमारे सामने हैं तो कहीं कुछ गड़बड़ है। सवाल यह है कि समस्या ही सबको दिखती है क्या! सचमुच हमें गरीबी दिखती है क्या? हम जिस वर्ग के लोग हैं, वहाँ लोगों को गरीबी नहीं दिखती, उनको हर जगह दिखते हैं कामचोर, ज्यादा बच्चा पैदा करने वाले (अब ऐसे लोग बढ़ने लगे है, जिनको लोग गरीब नहीं खुश दिखने लगे हैं)। इसलिए मैं बीच बीच में रो लेता हूँ, कभी घर बैठ कर सिरहाने पर रो लेता हूँ, कभी ब्लॉग पर रो लेता हूँ। तो गोपाल कुमार विकल की लाइन याद दिलाते हैं : ' मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।'
आम तौर पर इस तरह का लिखा बड़ा सरलीकृत सा दृष्टिकोण माना जाएगा। पर सच यह है कि अगर मैं दस किताबें भी लिखूँ और बहुत सारे आँकड़े पेश करूँ फिर भी मूल बात यही होगी। क्या गरीबी कहने से ही दूर हो जाएगी? सही है, कहने मात्र से समस्याएँ खत्म नहीं होतीं। ऐसा नहीं होता कि देश के सारे पैसे लोगों में बाँट दें तो समस्याएँ मिट जाएँगी। कई लोग कहेंगे कि अरे पाकिस्तान के साथ दोस्ती कैसे करें, क्या वो लोग करेंगे। इनके भाईजान सरहद की दूसरी ओर लोगों को इसी तरह बरगलाने में लगे हैं। अब सोचो, दो लोगों की आपस में दोस्ती कराना ज्यादा आसान है या उनको लड़ाना ज्यादा आसान है। इन पंडितों की मानें तो समस्याएँ हमेशा ही विकट रहेंगी, कोई समाधान नहीं है। कुछ लोग हैं जो पूछेंगे दुनिया में कहाँ लोग सुखी हैं। चलो यह भी सही, पर यह तो बतलाओ कि दुनिया में कहाँ लोग सुखी होने के लिए जद्दोजहद नहीं कर रहे? तो चीज़ों को ऐसे देखना है तो देखो कि लड़ाई है बंधु, हम सब इस लड़ाई में शामिल हैं, वो लकीरें खींचते रहेंगे, हम उनको मिटाने के लिए लड़ते रहें, वो हिंदू मुसलमान बनाते रहें, हम इंसान के साथ खड़े रहेंगे। हमसे बंदूक उठती नहीं, जिसने अन्याय के खिलाफ बंदूक उठाई है, हम डरते हैं, पर उसे हम देशद्रोही तो नहीं कहेंगे। उन्हें ज़रुर देशद्रोही कहते रहेंगे जो लोगों का पैसा मौत की सौदागरी में लगा रहे हैं। जो इंसान को धर्म और जाति से परे नहीं देखते, जो मर्द और औरत को बराबरी का दर्जा नहीं देंगे, हम उनके साथ भिड़ते रहेंगे। यह सबकुछ यह जानते हुए कि हम भी अदने से हैं और हमारी गल्तियाँ, हमारे पाखंड कम नहीं यानी कि काफी सारी लड़ाई खुद से भी है।
तो गोपाल जी, किसी को हम क्या सलाह दें कि समाधान क्या है। अक्सर बच्चों से हम कहते हैं कि अपने आस पास देखो कि क्या दिखता है। कुछ पढ़कर दिखता है तो पढ़ो, कुछ कर के दिखता है तो करो। जुड़ो, कहीं जुड़ो। लड़ो तो और चीज़ों के साथ गुटबाजी के खिलाफ भी लड़ो। यह नहीं कि हमारे तुम्हारे जुड़ने से दुनिया रातोंरात बदल जाएगी, पर जो भी होगा वह बेहतरी के लिए होगा या जितनी बदहाली अन्यथा हो सकती है उससे कम ही होगी। और जुड़ने के लिए हजारों हाथ हैं। कोई संपूर्ण क्रांति के सपने देखता है तो कोई महज शहर की सड़क के किनारे फुटपाथ होने चाहिए यही कह रहा है। बड़े छोटे हर किस्म के इंकलाब हैं। अपने दुःखों और अपनी औकात के मुताबिक अपनी बात। अपने अपने इंकलाब। यह ज़रुरी नहीं कि हर जगह चीन जैसी सांस्कृतिक क्रांति ही हो, सड़क पर पड़ा हुआ केले का छिलका उठा कर परे करना भी एक छोटा सही पर ज़रुरी कदम है। बहुत सारी बातें हो रही हैं, लोकतांत्रिक ढाँचे में रहकर हजारों साथी बहुत महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं।
आइए हाथ उठाएँ हम भी।
यह कविता आपके लिएः
अंत में लोग ही चुनेंगे रंगचुप्पी के खिलाफ
किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए
खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफेद
आँखें ढूँढती हैं रंगों के अर्थ
लगातार खुलना चाहते बंद दरवाजे
कि थरथराने लगे चुप्पी
फिर रंगों के धक्कमपेल में
अचानक ही खुले दरवाजे
वापस बंद होने लगते हैं
बंद दरवाजों के पीछे साधारण नजरें हैं
बहुत करीब जाएँ तो आँखें सीधी बातें कहती हैं
एक समाज ऐसा भी बने
जहाँ विरोध में खड़े लोगों का
रंग घिनौना न दिखे
विरोध का स्वर सुनने की इतनी आदत हो
कि न गोर्वाचेव न बाल ठाकरे
बोलने का मौका ले ले
साथी, लाल रंग बिखरता है
इसलिए बिखराव से डरना क्यों
हो हर रंग का झंडा लहराता
लोगों के सपने में यकीन रखो
लोग पहचानते हैं आस का रंग
जैसे वे जानते हैं दुःखों का रंग
अंत में लोग ही चुनेंगे रंग।
(प्रतिबद्धः मई १९९८)