Saturday, July 28, 2007

पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था

पहाड़-


पहाड़ को कठोर मत समझो
पहाड़ को नोचने पर
पहाड़ के आँसू बह आते हैं
सड़कें करवट बदल
चलते-चलते रुक जाती हैं


पहाड़ को
दूर से देखते हो तो
पहाड़ ऊँचा दिखता है


करीब आओ
पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा
पहाड़ के ज़ख्मी सीने में
रिसते धब्बे देख
चीखो मत


पहाड़ को नंगा करते वक्त
तुमने सोचा न था
पहाड़ के जिस्म में भी
छिपे रहस्य हैं।



पहाड़-


इसलिए अब
अकेली चट्टान को
पहाड़ मत समझो


पहाड़ तो पूरी भीड़ है
उसकी धड़कनें
अलग-अलग गति से
बढ़ती-घटती रहती हैं


अकेले पहाड़ का जमाना
बीत गया
अब हर ओर
पहाड़ ही पहाड़ हैं।



पहाड़-


पहाड़ों पर रहने वाले लोग
पहाड़ों को पसंद नहीं करते
पहाड़ों के साथ
हँस लेते हैं
रो लेते हैं
सोचते हैं
पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई
बाकी भी गुज़र जाएगी।

(1988; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित - आधार)

Friday, July 27, 2007

बीमारी

कल पेट खराब था, आज गला खराब है। हो सकता है, दोनों एक ही बीमारी की पहचान हों। हमारे यहाँ साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं, इसलिए एक फिल्टर लगा रखा है। बाल्टी में पानी भर के उसे पंप से फिल्टर से पास कर साफ करते हैं। उसपर भी बहुत ध्यान देते नहीं, सुस्ती मार जाती है। इसलिए कहीं से मौसमी जीवाणु शरीर में घुस गए हैं। वैसे मुझे लगता है कि कुछेक ऐसे भाई लोग हमेशा से मुझसे मुहब्बत कर बैठे हैं। जब जब भी किसी वजह से शरीर पर ज्यादा बोझ पड़ता है और शरीर थक कर अँगड़ाइयाँ लेता है, ये लोग उछल कूद मचाने लगते हैं। दिन को घर से चालीस किलो मीटर दूर विज्ञान व प्राद्यौगिकी विभाग की सभा में था, शाम लौटे तो सिर, पेट दुख रहा था। बदन में थकान और बीमारी का अहसास। रात को कुछ खाया नहीं और दुखते पेट को सहलाता रहा। सुबह पेट से जरा राहत मिली तो गला खराब है। बदन भी लेटना चाहता है। चलो, यह भी सही। आमतौर से दवा लेता नहीं हूँ, शायद इस बार लेनी पड़े। कई बार मुझे लगता है कि ऐसी बीमारियाँ बीच बीच में होती रहनीं चाहिए। इससे व्यस्त जीवन से अलग कुछ करने का मौका मिलता है; और कुछ नहीं तो लेटे लेटे आदमी कुछ कहानी कविताएँ ही पढ़ लेता है। कल के भाषण की तैयारी में कई दूसरे काम दरकिनार किए हुए थे, अब उनपर हमला करना था। पर बीमारी के बहाने चिट्ठागीरी पर लग गए।

हाल में हिंदी चिट्ठों की दुनिया में काफी तीखापन आया है। पहले मुझे यह बात तंग करती रही कि ज्यादातर सामग्री एक छोटी सी दुनिया में केंद्रित है। फिर हाशिया पर असीमा भट्ट की आलोक धन्वा को तबाह करने के मकसद से लिखी आत्म कथा पढ़ी। पढ़ कर बहुत परेशान हुआ। यह परेशानी जल्दी जानेवाली नहीं। इस पर कोई लंबा विवाद नहीं हुआ, जैसा कि नया ज्ञानोदय प्रसंग में हुआ था। यह कहा जा सकता है कि पाठ को हम कैसे पढ़ते हैं, वह हमारे अपने पूर्वाग्रहों पर निर्भर करता है। असीमा के तीन लेखों के केंद्र में आलोक है, इसको देखने के अलग नज़रिए हो सकते हैं। एक तो सिर्फ यह कि चूँकि हममें से (यानी कि हिंदी में लिखने वालों में से) ज्यादातर लोग सामंती परिवारों से आए पुरुष हैं, इसलिए हम इसे एक नारी का हताश आक्रोश मान रहे हैं। दूसरा यह कि चूँकि हममें से कई लोग नारी अधिकारों के लिए चल रहे आंदोलनों से या तो जुड़े हैं या उनसे सहानुभूति रखते हैं, इसलिए यह लाजिमी है कि हम इस विवाद में आलोक को अपराधी मानकर असीमा के पक्ष में खड़े हों।

मैं उन लोगों में हूँ जो आजीवन किसी न किसी वजह से जीने के लिए संघर्ष करते रहे हैं। मतलब यह नहीं कि हमें भर पेट खाने को नहीं मिला - उस स्थिति से तो बहुत पहले ही निकल चुके थे - पारिवारिक समस्याएँ ऐसी रहीं कि कहीं भी पैर जमा पाना संभव नहीं हुआ। मैं अपने चारों ओर देखता हूँ तो पाता हूँ हमारे जैसे लोग, जो यथास्थिति का विरोध और सामाजिक परिवर्त्तन की किसी परंपरा में जुड़ने की ईमानदार कोशिश में लगे रहे हैं, विवाह उनके लिए तबाही का माध्यम रहा है। अनुभवी लोग ये बात समझते हैं; इसे स्वीकारना काफी ईमानदारी की अपेक्षा रखता है। इसलिए मुझे तकलीफ यह हुई कि असीमा के लेख पोस्ट करने वालों ने यह नहीं सोचा कि आलोक और असीमा कोई ऐरे गैरे नहीं हैं, जिनकी निजी तकलीफों को यूँ उछाला जाए। इसके पहले कि इन्हें पढ़कर सैंकड़ों पाखंडी लोग 'हाय, हाय' करें, हो सकता था कि भले लोग असीमा को कुछ समय दें और अच्छी तरह सोच-विचार कर ही असीमा ये लेख पोस्ट करें। संभव है यह प्रक्रिया हुई हो। हाशिया का मकसद अगर यह था कि लोग इनको पढ़कर समाज में नारी की स्थिति पर कुछ और जागरुक हो जाएँ तो मुझे शक है कि ऐसा वाकई हुआ है। हुआ महज यह है कि अधिकतर लोगों को मजा आ रहा है कि बड़ा क्रांतिकारी कवि बनता था, छोकरी ने खुले बाज़ार नंगा कर दिया। हिंदी का आम बुद्धिजीवी और लेखक इसी मानसिकता से ग्रस्त है। विड़ंबना यह भी है कि हिंदी चिट्ठागीरी में शामिल अधिकतर लोग तो पहली बार आलोक धन्वा का नाम सुन रहे होंगे। यही हिंदी का दुर्भाग्य है - इससे पहले कि हम पाठक को 'ऊपर नील आकाश / नीचे हरी घास' से खींच कर आधुनिक साहित्य तक लाएँ, हम एक दूसरे के कपड़े उतारने लग जाते हैं। ऐसे में दुविधाग्रस्त पाठक भागकर कामायनी और गोदान ढूँढता फिरे तो गलती किसकी?

Sunday, July 15, 2007

वापस कविता आदि

हिंदी में टाइप करने की दिक्कत को लेकर सुझाव आए हैं|
मैं आमतौर पर लीनक्सवादी हूँ| मामला बडा सीधा है| बिल गेट्स को और धनी बनाने की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अपने दफ्तर में लीनक्स और फेदोरा पर इंटर/इंटरानेट इनपुट मेथड से फोनेटिक हिंदी की आदत बना ली| हालांकि टंकन की गति अंग्रेजी की तुलना में कम है| कहीं और जाते हैं, तो विंडोज वाला सिस्टम थमा देते हैं तो ले लेता हूँ| स्वभाव का मारा हूँ| ज्यादा माँग नहीं रखता| पर फिर किसी नए फांट की आदत डालनी पड़ती है|
अब फायरफाक्स के ऐड आन का इस्तेमाल कर रहा हूँ| इसमें ड़ ढ़ नहीं हैं| हर बार ड़ ढ़ लिखते हुए कहीं से कापी पेस्ट करना पड़ता है|

इस बारे में कोई शक नहीं कि हिंदी में टाइप करने की आदत रही होती तो काफी लिखते|

बहरहाल, हाल में हिंदी कविता पर जो बहस चल रही है, वह कुछ लोगों पर केंद्रित है और निश्चित रुप से दु:खदायी है| कुछ बातें जो सामान्यत: कही जा सकती हैं, उन्हें लिख रहा हूँ:

१. आज की कविता का उद्गम पारंपरिक कविता है, पर अपने स्वरुप और मिजाज में वह बिल्कुल अलग है| जिस तरह हमारी मध्य वर्गीय जिंदगी में परंपरा की जगह कम होती जा रही है, कविता में भी परंपरा को हम या तो यांत्रिक रुप से या महज पाखंड की तरह निभाते हैं| इसलिए जबरन परंपरा से जुडने की कोशिश में कविता में पाखंड रह जाता है| कविता जीवन से अलग नहीं हो सकती| हिंदी का आम पाठक और रचनाकार इस वजह से परेशान है| सबसे बड़ी समस्या है कि लिखने वाले ज्यादातर ऊँची जाति के पुरुष हैं और चूँकि आधुनिक समय में लिखना विरोध का ही एक पर्याय सा (पहले से कहीं ज्यादा) बन चुका है, जीवन और लेखन में विरोधाभास हर ओर है| इस बात को हर कोई मान ले तो बहुत सारी बहस यूँ ही खत्म हो जाएगी|

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ऊपर लिखी पंक्तियाँ पंद्रह दिन पहले की हैं|अब वापस हैदराबाद में अपने लीनक्स मशीन पर gedit का इस्तेमाल कर लिख रहा हूँ| फिर से इस ध्वन्यात्मक इनपुट को उँगलियों में ढालने में थोड़ा समय लगेगा। एकबार सोचा कि ऊपर का अपूर्ण प्रसंग ठीक नहीं लग रहा। फिर लगा कि नहीं अपूर्ण सही - हम कौन सा कोई थीसिस लिख रहे हैं। पड़े रहने देते हैं। फिर से पढ़ते हुए बहुत पुरानी एक बात याद आ गई। कोई पचीस साल पहले प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मृणाल सेन को एकबार अपनी फिल्मों के बारे में बोलते सुना था। उन दिनों उन्होंने अलग किस्म की फिल्में बनानी शुुरु की थीं। मृणाल का मानना था कि पहले वाली फिल्में (जैसे कोलकाता ७१) जिनके लिए बनाई गईं थीं, वे लोग फिल्में देखते नहीं या देखने के काबिल नहीं (आर्थिक विपन्नता, निरक्षरता आदि की वजह से)। जो देख रहे थे उन लोगों के लिए वे फिल्में थीं नहीं। इसलिए अपनी दिशा बदलते हुए नई किस्म की फिल्में (जैसे खंडहर, खारिज) बनाईं, जो मध्य वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रख कर बनाई गईं थीं, जिनमें मध्य वर्ग के विरोधाभासों पर जोर था।

बहरहाल पुरानी बात को जरा खींचूँ। यानी कि एक और बिंदु जोड़ दूँ।

२. कविता में शाश्वत सिर्फ संवेदना होती है। कथ्य देश-काल सापेक्ष होता है। संवेदना के शाश्वत स्वरुप की वजह से कविता में प्रतिबद्धता निहित होती है।

बहुत पहले मैंने लिखा थाः

सबने जो कहा
उससे अलग
सच सिर्फ धुंध

शब्द उगा
सबने कहा
गुलाब खूबसूरत

शब्द घास तक पहुँचा
किसी ने देखी
हरीतिमा घास की
किसी ने देखी
घास पैरों तले दबी

धुंध का स्वरुप
जब जहाँ जैसा था
वैसे ही चीरा उसे शब्द ने।
- (कविता-१; एक झील थी बर्फ की; आधार प्रकाशन, १९९०)

इसलिए मुझे रुप और प्रतिबद्धता की बहस निरर्थक लगती है। रुप का बोध गहन चिंतन और मंथन की अपेक्षा रखता है। जो लोग समझते हैं कि कविता महज शब्दों का सौंदर्यपूर्ण विन्यास है, और जो समझते हैं कि प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा ही कविता को सार्थक करती है, दोनों ही मुझे गलत लगते हैं। कथ्य के जरिए संवेदना संप्रेषित होती है। यह कविता की सीमा है। अक्सर हमलोग 'पोएटिक टेंशन' की बात करते हैं। आधुनिकता एक ओर जीवन की अनगिनत जटिल और परतों में छिपी सच्चाइयों के साथ हमारा मुठभेड़ कराती है, दूसरी ओर इन सच्चाइयों का बयान करने में हमें पहले से ज्यादा असहाय बनाती है। इसका असर आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कविता में दिखता है। कविता के इस पक्ष से वाकिफ हो जाने पर जो कुछ भी स्पष्ट है, वह खोखला और गद्यात्मक लगता है, क्योंकि जीवन में स्पष्टता कम है। तब 'पोएटिक टेंशन' ही हमें कविता लगती है। मुसीबत यह है कि इस स्थिति में कई स्थूल सच्चाइयों के प्रति हमारी संवेदना मर चुकी होती है। जैसे भारत में रहने वाले लोगों को यह नज़र नहीं आता कि हमारी रेलवे की लाइनें और सार्वजनिक शौचालय एक दूसरे का पर्याय हैं। आधुनिक अमूर्त्त कला की दुनिया में नए नए आए लोगों को पुरानी यथार्थ वादी कला बेकार लगती है।

3. अनुभव और परिपक्वता से हम वापस कला के व्यापक आयामों से अवगत होते हैं।

4. न तो हर कही बात कविता है और न ही हमारी पसंद से इतर हर कविता-कर्म खोखला है।

5. अंत मेंः- लगातार पढ़ने लिखने से हम कविता या साहित्य की किसी भी विधा में जो नया है, उसे समझते हैं और कभी कभी उससे प्रभावित भी होते हैं। हिंदी की दुनिया में एक दूसरे पर कीचड़ फेंकना ज्यादा और पढ़ने लिखने की कोशिश कम दिखती है।