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Showing posts from December, 2007

चार कविताएँ: 7 दिसंबर 2007

सुंदर लोग एक दिन हमारे बच्चे हमसे जानना चाहेंगे हमने जो हत्याएँ कीं उनका खून वे कैसे धोएँ हताश फाड़ेंगे वे किताबों के पन्ने जहाँ भी उल्लेख होगा हमारा रोने को नहीं होगा हमारा कंधा उनके पास कोई औचित्य नहीं समझा पाएँगे हम हमारे बच्चे वे बदला लेने को ढूँढेंगे हमें पूछेंगे सपनों में हमें रोएँ तो कहाँ रोएँ हर दिन वे जिएँगे स्मृतियों के बोझ से थके रात जागेंगे दुःस्वप्नों से डर डर कई कई बार नहाएँगे मिटाने को कत्थई धब्बे जो हमने उनको दिए हैं जीवन अनंत बीतेगा हमारी याद के खिलाफ सोच सोच कर कि आगे कैसे क्या बोएँ। --------------------------------------------------- कोई भूकंप में पेड़ के हिलने को कारण कहता है कोई क्रिया प्रतिक्रिया के वैज्ञानिक नियमों की दुहाई देता है हर रुप में साँड़ साँड़ ही होता है व्यर्थ हम उनमें सुनयनी गाएँ ढूँढते हैं साँड़ की नज़रों में मौत महज कोई घटना है इसलिए वह दनदनाता आता है जब हम टी वी पर बैठे संतुष्ट होते हैं सुन सुन सुंदर लोगों की उक्तियाँ इसी बीच नंदीग्राम बन जाता है ग्वेरनीका जीवनलाल जी यह हमारे अंदर उन...

गानों का धक्का

गानों का धक्का गर्मियों में गाने लगे भीष्मलोचन शर्मा - वाणी उनकी हल्ला बोले दिल्ली से बर्मा! लगा जान की बाजी गाए, जी जान लगा के गाए, भागें लोग चारों ओर, भन भनन सिर चकराए। मर रहे कई जख्मी हो, कई तड़पें हो आहत चीख रहे, "गई जान, रोको गान फटाफट।" बंधन तोड़े, भैंसे घोड़े, सड़क किनारे गिरे; भीष्मलोचन तान ताने, नज़र न उनको पड़े। उलट चौपाए जन्तु सारे, गिर रहे हो मूर्छित, टेढ़ी दुम, होश गुम, बोले गुस्से में "धत् छिः।" जल के प्राणी, हो हैरानी, गहरे डूबे चुपचाप, वृक्ष वंश, हुए ध्वंस, बेशुमार झपझाप। खाएँ चक्कर, मारें कुलाटी, हवा में पक्षी सारे, सभी पुकारें, "बस करो दादा, थामो गाना प्यारे।" गाने की दहाड़, आस्माँ को फाड़, आँगन में भूकंप, भीष्मलोचन गाए भीषण, दिल खुशी से हड़कंप। उस्ताद मिला टक्कर का, इक बकरा हक्का बक्का, गीत के ताल में पीछे से, मारा सींग से धक्का। फिर क्या था, एक बात में, पड़ा गान पर डंडा, "बाप रे", कहकर भीष्मलोचन हो गए बिल्कुल ठंडा। - मूलः सुकुमार राय (आबोल ताबोल)

ये लोग न हों तो मेरा जीना ही संभव न हो।

हड्डियाँ चरमरा रही हैं। कल जबकि औपचारिक रुप से मैं बूढ़ा हो गया, उसी दिन संस्थान को अपना स्पोर्ट्स डे करना था। ज़िंदगी में पहली बार शॉटपुट, रीले रेस और ब्रिस्क वाक रेस में हिस्सा लिया। और जिसका अंदाज़ा था वही हुआ। लैक्टिक अम्ल के अणुओं ने तो जोड़ों में खेल दिखाना था, सारे बदन में बुखार सा आया हुआ है। वैसे कल मानव अधिकार दिवस भी था और कल ही के दिन नोबेल पुरस्कार भी दिए जाते हैं। मेरी एक मित्र जो हर साल बिला नागा मुझे इस दिन बधाई देती है, जब उसका संदेश नहीं आया तो चिंता हुई कि कुछ हुआ तो नहीं। हमउम्र है। अकेली है। नितांत भली इंसान है, धार्मिक प्रवृत्ति की और सोचकर यकीन नहीं होता, तीन बार तलाक शुदा है। तो संक्षिप्त मेल भेजी -क्या हुआ, कहाँ हो। तुरंत जवाब आया - टेलीपैथी से बधाई भेज तो दी थी। जानकर अच्छा लगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। अब इस पड़ाव पर आकर यही सहारा होगा। जब भी अवसाद आ घेरेगा, तो खुद को याद दिलाऊँगा कि कोई टेलीपैथी द्वारा मुझसे संपर्क कर रहा है। यह अलग बात है कि दिल जो है चोर, हमेशा ही माँगे मोर। हद यह कि मुझे बिल्कुल याद नहीं रहता कि किसी को कभी बधाई भेजनी...

स्ज़ाबो वायदा

हैदराबाद फिल्म क्लब के शो अधिकतर अमीरपेट में सारथी स्टूडिओ में होते हैं। मुझे वहाँ पहुँचने में वक्त लगता है, इसलिए आमतौर पर फिल्में छूट ही जाती हैं। इस महीने किसी तरह तीन फिल्में देखने पहुँच ही गया। इनमें एक हंगरी के विख्यात निर्देशक इस्तवान स्ज़ाबो की '25 फायरमैन्स स्ट्रीट' थी और दूसरी पोलैंड के उतने ही प्रख्यात निर्देशक आंद्रस्ज़े वायदा की 'प्रॉमिज़ड लैंड' । मुझे वायदा की फिल्म हमारे समकालीन प्रसंगों में, खासतौर पर वाम दलों की राजनीति के संदर्भ में सोचने लायक लगी। हालांकि कहानी पूँजीवाद के शुरुआती वक्त की है, न कि आधुनिक पूँजीवाद की, पर मूल्यों के संघर्ष की जो अद्भुत तस्वीर वायदा ने पेश की है, उसमें बहुत कुछ समकालीन संदर्भों से जुड़ता है। कहानी में कारोल नामक एक अभिजात पोलिश युवा अपने एक जर्मन और एक यहूदी मित्र क साथ मिल कर अपनी फैक्ट्री बनाने के लिए संघर्ष करता है। एक शादीशुदा औरत के साथ संबंध की वजह से अंततः उसकी फैक्ट्री में आग लगा दी जाती है। एक के बाद एक समझौते करता हुआ वह शहर का प्रतिष्ठित संपन्न व्यक्ति बन ही जाता है। फिल्म के अंत में दबे कुचले श्रमिकों के संग...