Skip to main content

Posts

Showing posts from July, 2007

पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था

पहाड़ - १ पहाड़ को कठोर मत समझो पहाड़ को नोचने पर पहाड़ के आँसू बह आते हैं सड़कें करवट बदल चलते - चलते रुक जाती हैं पहाड़ को दूर से देखते हो तो पहाड़ ऊँचा दिखता है करीब आओ पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा पहाड़ के ज़ख्मी सीने में रिसते धब्बे देख चीखो मत पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था पहाड़ के जिस्म में भी छिपे रहस्य हैं। पहाड़ - २ इसलिए अब अकेली चट्टान को पहाड़ मत समझो पहाड़ तो पूरी भीड़ है उसकी धड़कनें अलग - अलग गति से बढ़ती - घटती रहती हैं अकेले पहाड़ का जमाना बीत गया अब हर ओर पहाड़ ही पहाड़ हैं। पहाड़ - ३ पहाड़ों पर रहने वाले लोग पहाड़ों को पसंद नहीं करते पहाड़ों के साथ हँस लेते हैं रो लेते हैं सोचते हैं पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई बाकी भी गुज़र जाएगी। (1988; ' एक झील थी बर्फ की ' में संकलित - आधार )

बीमारी

कल पेट खराब था, आज गला खराब है। हो सकता है, दोनों एक ही बीमारी की पहचान हों। हमारे यहाँ साफ पीने का पानी तो मिलता नहीं, इसलिए एक फिल्टर लगा रखा है। बाल्टी में पानी भर के उसे पंप से फिल्टर से पास कर साफ करते हैं। उसपर भी बहुत ध्यान देते नहीं, सुस्ती मार जाती है। इसलिए कहीं से मौसमी जीवाणु शरीर में घुस गए हैं। वैसे मुझे लगता है कि कुछेक ऐसे भाई लोग हमेशा से मुझसे मुहब्बत कर बैठे हैं। जब जब भी किसी वजह से शरीर पर ज्यादा बोझ पड़ता है और शरीर थक कर अँगड़ाइयाँ लेता है, ये लोग उछल कूद मचाने लगते हैं। दिन को घर से चालीस किलो मीटर दूर विज्ञान व प्राद्यौगिकी विभाग की सभा में था, शाम लौटे तो सिर, पेट दुख रहा था। बदन में थकान और बीमारी का अहसास। रात को कुछ खाया नहीं और दुखते पेट को सहलाता रहा। सुबह पेट से जरा राहत मिली तो गला खराब है। बदन भी लेटना चाहता है। चलो, यह भी सही। आमतौर से दवा लेता नहीं हूँ, शायद इस बार लेनी पड़े। कई बार मुझे लगता है कि ऐसी बीमारियाँ बीच बीच में होती रहनीं चाहिए। इससे व्यस्त जीवन से अलग कुछ करने का मौका मिलता है; और कुछ नहीं तो लेटे लेटे आदमी कुछ कहानी कविताएँ ही पढ़ ले...

वापस कविता आदि

हिंदी में टाइप करने की दिक्कत को लेकर सुझाव आए हैं| मैं आमतौर पर लीनक्सवादी हूँ| मामला बडा सीधा है| बिल गेट्स को और धनी बनाने की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अपने दफ्तर में लीनक्स और फेदोरा पर इंटर/इंटरानेट इनपुट मेथड से फोनेटिक हिंदी की आदत बना ली| हालांकि टंकन की गति अंग्रेजी की तुलना में कम है| कहीं और जाते हैं, तो विंडोज वाला सिस्टम थमा देते हैं तो ले लेता हूँ| स्वभाव का मारा हूँ| ज्यादा माँग नहीं रखता| पर फिर किसी नए फांट की आदत डालनी पड़ती है| अब फायरफाक्स के ऐड आन का इस्तेमाल कर रहा हूँ| इसमें ड़ ढ़ नहीं हैं| हर बार ड़ ढ़ लिखते हुए कहीं से कापी पेस्ट करना पड़ता है| इस बारे में कोई शक नहीं कि हिंदी में टाइप करने की आदत रही होती तो काफी लिखते| बहरहाल, हाल में हिंदी कविता पर जो बहस चल रही है, वह कुछ लोगों पर केंद्रित है और निश्चित रुप से दु:खदायी है| कुछ बातें जो सामान्यत: कही जा सकती हैं, उन्हें लिख रहा हूँ: १. आज की कविता का उद्गम पारंपरिक कविता है, पर अपने स्वरुप और मिजाज में वह बिल्कुल अलग है| जिस तरह हमारी मध्य वर्गीय जिंदगी में परंपरा की जगह कम होती जा रही है, कविता में भी...