Skip to main content

क्रिस्टोफर कॉडवेल का द्वंद्वात्मक विज्ञान – रॉब वालेस

क्रिस्टोफर कॉडवेल

बीसवीं सदी के मार्क्सवादी आलोचकों में क्रिस्टोफर कॉडवेल एक बड़ा नाम है। 1907 में जन्मे कॉडवेल 1937 में स्पेन के गृहयुद्ध में फासीवादियों के खिलाफ लोकतांत्रिक मोर्चे की ओर से लड़ते हुए, 29 साल की उम्र में मारे गए। इतनी कम उम्र में ही समकालीन साहित्य और विज्ञान पर उन्होंने गंभीर चिंतन किया था। इसके लिए उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन और औजारों का इस्तेमाल किया। वे ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उनकी मौत के बाद साहित्य और विज्ञान की आलोचना पर उनकी आठ किताबें प्रकाशित हुई हैं। दुनिया भर में इनमें से कुछ किताबों को पाठ्य-पुस्तकों के रूप में पढ़ा गया है। इसके अलावा उनके दो कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक जासूसी उपन्यास, डेथ ऑफ ऐन एअरमैन, भी प्रकाशित हुए।

यह बड़े अचरज की बात है कि कॉडवेल ने मुख्यधारा के समाजविज्ञानियों द्वारा डार्विन के विकासवाद की ग़लत व्याख्या की आलोचना करते हुए जैविकी के ऐसे गंभीर सवालों को छेड़ा, जिन पर आज गंभीर बहस छिड़ी हुई है, जब जैविकी पर आणविक स्तर की बेहतर समझ बन चुकी है। रॉब वालेस ने 1986 में प्रकाशित उनकी किताब 'हेरिडिटी ऐंड डेवलपमेंट' की गहन समीक्षा की है, जिसकी शुरुआत में कॉडवेल का रोचक परिचय है।



इंकलाबी बायोलॉजी

क्रिस्टोफर कॉडवेल का द्वंद्वात्मक विज्ञान रॉब वालेस

मंथली रीविउ' के नवंबर 2016 अंक में प्रकाशित आलेख : https://monthlyreview.org/2016/11/01/revolutionary–biology/ का लाल्टू द्वारा अनुवाद

आइस ऑफ हीरोइक हार्ट सील्स प्लाज़्मिक सॉएल / व्हेयर थिंग्स लुडिक्रस्ली टेक रुट” चार्ल्स डॉनेली –1937

(बिखरी हुई माटी को बहादुर दिल की बर्फ ढक लेती है / और वहाँ चीज़ें बेतुके ढंग से जड़ पकड़ती हैं)



अगले साल ख़ारामा की जंग की अस्सीवीं बरसी होगी।

फरवरी 1937 में फ्रांसिस्को फ्रांको के फासीवादी हमले के खिलाफ माद्रिद शहर को बचाने में लड़ते हुए ग्यारह हजार रिपब्लिकन मारे गए थे। इनमें से ज्यादातर आलमी एकजुटता के तरफदार थे। स्पेन के गृहयुद्ध के इस चरण पर, विद्रोही राष्ट्रवादी और रिपब्लिकन ताकतों के बीच मुल्क बराबर-बराबर बँटा हुआ था।1 माद्रिद पर इसके पहले हुआ एक हमला खदेड़ा जा चुका था। इसके बाद रिपब्लिकन ताकतों ने मान्सानारेस नदी के किनारों पर अपनी सुरक्षा मजबूत की। माद्रिद की दक्षिणी बस्तियों पर हमला करने पर फ्रांको को भारी नुकसान उठाना पड़ता। इसी बीच में सिएरा दे गुआदार्रामा की पहाड़ियों पर पापुलर फ्रंट की ताकत ने शहर के उत्तरी हिस्से में जेनरल एमीलिओ मोला के सिपाहियों को रोक रखा था।

फ्रांको के हिमायती राष्ट्रवादियों ने रिपब्लिक की जंग के दौरान तय की गई अस्थायी राजधानी से माद्रिद का संपर्क तोड़ने की ओर ध्यान दिया। उन्होंने वालेन्सिया की ओर सड़क पर कब्जा जमाने के लिए उत्तर की ओर घूमने से पहले दक्षिण की ओर गश्त लगाना तय किया। फ्रांको ने जंग लड़ते हुए पुख्ता हो चुके अपने 40,000 मोरक्कन (मोरक्को से आए) सिपाहियों और मुसोलिनी की भेजी एक टुकड़ी के सिपाहियों को हमला करने का हुक्म दिया। 11 फरवरी को ये सेनाएँ ख़ारामा नदी पार कर गईं। दिमित्रोव बटालियन और ब्रिटिश बटालियन समेत पंद्रहवीं अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की तीन बटालियनों को लेकर रिपब्लिकन जेनरल होसे मिआहा ने हमले का सामना किया।

12 फरवरी की सुबह, चिचोन शहर से चार टुकड़ियों वाली ब्रिटिश बटालियन आगे बढ़ी। एक छोटी घाटी से चढ़ते हुए दुश्मन-फौज के पूरब की ओर ख़ारामा के पठार पर पहुँचने के दौरान सिपाहियों ने कई निजी चीज़ें बाँटी।नमें इस्पानी भाषा में लिखी और मार्क्सवाद पर भारी किताबें, नीत्से और स्पिनोज़ा की प्रतियाँ, बौद्ध धर्म पर रीस डेविड्स की किताबें और अनगिनत कविता-संग्रह शामिल थे। ख़ारामा की लड़ाई में शामिल जेसन गर्नी ने अपने संस्मरण में कहा, “उनमें से अधिकतर यह मानते थे कि कुछ ही घंटों में लड़ाई खत्म हो जाएगी और उसी दिन बाद में किसी वक्त वापस इकठ्ठा करने के खयाल से अपना सामान कहीं ढंग से जमाते गए।”2 पठार पार कर चुकने के बाद ब्रिटिश टुकड़ियों ने कासा ब्लांका (सफेद हवेली नामक) पहाड़ी पर और उसके आस-पास मोर्चा गाड़ा। पहाड़ी के बीच की चोटी पर एक छोटा फार्महाउस था, जिससे रिपब्लिकन सिपाहियों को आड़ भी मिल रही थी और वही जर्मन तोपचियों के निशाने पर भी थी। पीछे की ओर मशीन–गन चलाने वाली एक ब्रिटिश टुकड़ी ने मोर्चा गाड़ा।ससे आगे की ओर जमे हुए मोर्चे का बचाव हो पा रहा था।



खून से रंगा ख़ारामा

आज की तरह उन दिनों भी वह घाटी जैतून के पेड़, झाड़ियों और पथरीली दर्रों से भरी थी।ससे दोनों ओर की फौजों को मिल रही आड़ बहुत पुख्ता नहीं थी, पर राष्ट्रवादी कहीं ज्यादा तजुर्बेदार थे और बेहतर औजारों से लैस थे। ब्रिटिश टुकड़ी में सिर्फ भूतपूर्व आई आर ए* से आए स्वयंसेवक किट कॉनवे की कमांड तले एक कंपनी को स्पेन में जंग लड़ने का तजुर्बा था।3 और मशीन–गन वाली टुकड़ी को यह जानकर घोर हताशा होनी थी कि रूसी माक्सिम बंदूकों के साथ सही गोलाबारूद नहीं भेजा गया था। कम तजुर्बा और कामचलाऊ असलाह रिपब्लिकन फौजों के लिए तबाही की वजह सिद्ध हुए, भले ही वे बड़ी शिद्दत से जूझ रहे थे और उनकी मोर्चाबंदी भी मजबूत थी। ब्रिटिश सिपाही बुरी तरह हार गए। बारह तारीख को मोर्चे पर मौजूद 600 सिपाहियों में से सिर्फ 225 ही मौत और घायल होने से बच पाए।

गर्नी नाम का सिपाही अपने मुल्क ब्रिटेन में संगतराश का काम करता था। ब्रिटिश कमांडर टॉम विन्ट्रिंगहैम ने उसे जंग के बारे में जानकारी लेने के लिए भेजा

मैंने देखा कि घायल लोगों के एक समूह को मरहम-पट्टी के लिए किसी ठिकाने पर ले जाया गया था, ... जहाँ इसका कोई इंतज़ाम नहीं था,... और उन्हें वहीं छोड़ दिया गया था। करीब पचास स्ट्रेचर(चौखटे) वहाँ पड़े हुए थे और हरेक पर कोई लेटा हुआ था, पर

सिपाहियों में से कई मर चुके थे और बाक़ी में से अधिकतर सुबह तक मर जाने की हालत में थे। इनमें से ज्यादातर गोलाबारूद से ज़ख्मी हुए थे और चोटें इतनी भयंकर थीं कि हालत में सुधार होने की कोई उम्मीद न थी; ये सभी ऐसे सिपाही थे जिनको मैं अच्छी तरह जानता था और कइयों को तो बहुत करीब से जानता था एक अठारह साल का यहूदी युवा… पीठ पर लेटा हुआ था… उसकी अंतड़ियाँ नाभि से बाहर निकलकर गुप्तांग तक फैली हुई थीं। घिनौनीसी मटमैली कुंडलियों में अंतड़ियाँ पड़ी हुई थीं। जब उन पर मक्खियाँ चक्कर लगातीं तो वे जरा फड़क–सी उठती थीं। वह पूरी तरह जगा हुआ था… एक सिपाही जिसे मैं खास तौर पर बहुत पसंद करता था, सीने में नौ गोलियों से लगी चोटों से मर रहा था। उसने मुझे अपना हाथ थामने को कहा… और मैं तब तक थामे रहा जब उसका हाथ निस्तेज हो गया और मैं जान गया कि वह मर चुका था। मैं बिल्कुल बेबस-सा एक से दूसरे तक जाता रहा… कोई भी रो या चीख नहीं रहा था… वे सब पानी माँग रहे थे, पर मेरे पास पिलाने को पानी नहीं था। उनकी पीड़ा और उनकी मदद करने में अपनी नाकामी से मैं इस कदर दहशत से भर गया कि मुझे लगा कि मेरी आत्मा को स्थायी चोट पहुँच चुकी थी।4

इसके बाद से कासा ब्लांका पहाड़ी को खुदकुशी की पहाड़ी कहा जाने लगा। बच गए स्वयंसेवक पीछे हटकर बटालियन के हेडक्वार्टर में आ गए। राष्ट्रवादियों ने तेजी से उन मोर्चों पर धावा बोला, जो अब खाली हो चुके थे। पर अब तक मशीन-गन की टुकड़ी को सही गोला-बारूद मिल चुका था, उन्होंने उन्हें रोके रखा। अगले दिन ब्रिटिश टुकड़ी को फिर बड़ी हार मिली। विन्ट्रिंगहैम ने “यांक” बर्ट लेवी को उद्धृत करते हुए लिखा है:

तीन बजे के करीब दुश्मन ने हमारे दायीं ओर के पठारी छोर पर दो गोले दागे। दायीं ओर ताककर मैं हैरान रह गया कि चौथी टुकड़ी के सिपाही कमांडर ओ० (बर्ट ओवर्टन) की अगुवाई में करीब 25 गज की दूरी तक जान लगाकर दौड़भाग रहे हैं। फिर कंपनी (टुकड़ी) नंबर दो के हैरी (फ्राई) और मैंने मशविरा किया और बीच में खड़ी मशीन-गन को करीब 50 गज दायीं ओर भेजा और बाद में जब हमने 25 और 50 के गुटों में दुश्मन के सिपाहियों को झाड़ियों में से होते हुए पहाड़ी पर चढ़ते हुए देखा, तो हैरी ने वापस मशीन–गन को अपनी पहले की जगह पर वापस लौटाने का आदेश दिया।

ओ० ने हमें पीछे हटने के लिए संदेश भेजा, पर यह जानते हुए कि पिछले दिन उसने कैसी कमजोरी दिखलाई थी, फ्राई ने उसकी बात पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। फिर फ्राई पीछे तक गया और वापस लौट कर उसने हमें कहा कि हम हर हाल पर अपने मोर्चे पर डटे रहेंगे और ओ० की कही किसी बात पर जरा भी ध्यान नहीं दें…

दुश्मन की बंदूकों से चलती गोलियों की तादाद बढ़ चली। फिर मैं सामने की बंजर ज़मीन के पार देखने के लिए50 गज अपनी दायीं ओर चला और मैंने बड़ी तादाद में फासिस्टों को वहाँ मौजूद पाया।


विन्ट्रिंगहैम ने आगे लिखा: “लेवी और फ्राई ने मुझे ओ० की कायरता के बारे में एक लफ्ज़ भी कभी नहीं कहा था। अगर मुझे यह पता होता कि 12 तारीख को वह कैसे अपने सिपाहियों को छोड़कर भाग गया था तो मैंने उसे 13 को फ्राई के मोर्चे के बगल से बचाव के लिए सिपाही न दिए होते।”

बगल से कोई सुरक्षा न होने से, हर तरफ से टुकड़ी घिरती चली। और “पत्थर की दीवार की ओर से आते फासिस्ट ऊपर चढ़ते चले जा रहे थे, जहाँ ओ० को अपने सिपाहियों को तैनात करना था। दायीं ओर पीछे से लेवी पर हमला कर रहे फासिस्ट ओ० की बंदूकों के 100 गज सामने थे। वह पीछे दौड़ते हुए सड़क पर ऐसी जगह पहुँच चुका था, जहाँ उसके सामने जैतून के पेड़ थे और ज़मीन में ढलान थी। इस वजह से जो जिम्मेदारी मैंने उसे सौंपी थी, उसके लिए वह पूरी कर पाना असंभव हो गया था। और वह महज कुछ गोलीबारी और दो मौतों की वजह से पीछे हट गया था।”5

जाहिर है कि यह प्रहसन महज एक कायर कमांडर का मसला ही नहीं था, बल्कि अधूरी तैयारी, कमज़ोर असलाह और माद्रिद में अपने से ज्यादा ताकतवर दुश्मन के खिलाफ ग़लत रणनीति और नेतृत्व से निकला था। दो दिनों में दो सौ ब्रिटिश सिपाही मारे गए और लड़ते रहने के काबिल केवल 140 ही बचे रह गए। कमाल की बात थी कि ब्रिटिश मोर्चा एक और रात बुलंद रहा। पर अगले दिन तोप-टैंकों की मदद से राष्ट्रवादियों के हमले ने रिपब्लिकन ताकतों की अगली कतार को कुचल डाला। तमाम नुकसान और शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह थक चुकने के बावजूद, बचे हुए 140 जवानों ने बहादुरी के साथ मोर्चे को वापिस हासिल किया। इससे फासिस्ट हैरान रह गए। उन्होंने ग़लती से एकजुटतावादियों (इंटरनैशनलिस्ट्स) को अपनी ओर से आई नई फौजें समझ लिया। ख़ुदकुशी-पहाड़ी के पार पठार के किनारे रिपब्लिकन कतारें फिर से जम गईं। दोनों ओर से मोर्चाबंदी हो गई और जंग की बाक़ी अवधि तक ख़ारामा में गतिरोध जारी रहा।



मोटरसाइकिल चलाने वाला लोहार

ख़ारामा की लड़ाई के पहले दिन, 12 फरवरी, के अंत में 3 नं० टुकड़ी के दो जवानों ने चार्कोट लाइट मशीनगन का भार संभाला। वे ख़ुदकुशी-पहाड़ी पर से पीछे हट रही ब्रिटिश फौज को आड़ दे रहे थे। क्लेम बेकेट ने लोहार के काम की ट्रेनिंग ली थी और वह ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (सी पी जी बी) का सदस्य था।6 1920 के बाद के दशक में आखिरी सालों में धड़ाधड़ बढ़ रहे मोटरसाइकिलों के जाल में वह भी तेज़ी से दौड़ रहा था। मेले के मैदानों में मौत के गुबंद (डोम ऑफ डेथ) में मोटरसाइकिल चलाने में उसने नाम कमाया था। इसके बाद तेज चलने वाले वाहनों की सड़कों (स्पीड-वे) पर रेस में वह शामिल होने लगा। खास तौर पर कामगार वर्गों में इस खेल की लोकप्रियता बढ़ने के साथ बेकेट और उसके साथियों ने एक नया स्टेडियम बनाने में अपनी बचत लगा दी।हाँ ‘डेयरडेविल’ (साहसी) बेकेट ने, जिसे ग्रेहम स्टीवेंसन ने अपने ज़माने का डेविड बेकम (प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी) कहा है, 15000 लोगों के सामने प्रतियोगिता जीती — “1930 के इस रेसिंग स्टार को तेज गति के एहसास में बेहद मजा आता था, उसे भीड़ से उठते गरजते शोर का हल्का सा एहसास ही होता था; वह उस बुलबुले में खो जाता था, जिसे बड़े खिलाड़ी ‘द ज़ोन’ (रहस्यमय इलाका) कहते हैं।7

पर मोटरसाइकिल की दुनिया के वे शुरुआती दिन बड़े बेरहम थे। स्टेडियम के मालिक बेतज़ुर्बा जवानों को खेल में शामिल कर लेते थे, जिससे कई बार बड़ी चोटें और यहाँ तक की मौतें हो जाती थीं। इस शोषण को रोकने की कोशिश में बेकेट ने ‘द डर्ट-ट्रैक राइडर्स एसोसिएशन’ नामक ट्रेड यूनियन बनाने में मदद की; “उसके चमड़े के जैकेट के नीचे सोने का दिल था। वह दिल कामगार लोगों के संघर्ष के साथ एक ताल में धड़कता था।”8 1930 के बाद के पहले सालों में बेकेट आम लोगों के इस्तेमाल की खुली जगहों के लिए मुहिम में सक्रिय हो गया। ब्रिटिश वर्कर्स स्पोर्ट्स फेडरेशन की मैनचेस्टर शाखा द्वारा आयोजित किंडर ट्रेसपास# में वह शामिल हुआ, जिसमें 400 घुसपैठियों ने पुलिस और ज़मींदारों के साथ लड़ाई लड़ी, कि उन्हें वहाँ आने दिया जाए। इसे बाद में पीक डिस्ट्रिक्ट नैशनल पार्क बना दिया गया।

फिर स्पेन में जंग छिड़ गई। सी पी जी बी की मैनचेस्टर शाखा के दूसरे सदस्यों के साथ बेकेट भी अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड में शामिल हो गया। बेकेट ने मोर्चे से अपनी पत्नी को लिखा: “मुझे पता है कि तुम समझ लोगी कि अगर मैंने मदद न की होती तो मैं कभी भी संतुष्ट न रह पाता। फासीवाद के प्रति नफ़रत की वजह से ही मैं यहाँ आया हूँ।”9

हरफनमौला उपसंपादक

चार्कोट गन पर लगा दूसरा आदमी क्रिस्टोफर सेंट जॉन स्प्रिग था, जिसे क्रिस्टोफर कॉडवेल के नाम से बेहतर जाना जाता है। अपने भाई के साथ मिलकर हवाई उड़ान और एप्लाइड साइंस की किताबें छापने का धंधा शुरू करने से पहले पंद्रह साल की उम्र में उसने स्कूल की पढ़ाई छोड़कर किशोर पत्रकार का काम किया था। वह छिप–छिपकर जासूसी उपन्यास और कविताएँ भी लिखता था। उसके राजनैतिक विचार आम परंपरागत किस्म के थे। सच है कि,

1926–27 में थोड़े वक्त तक क्रिस्टोफर ने एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश मलया (मलेशिया) के लिए पहले उप-संपादक और बाद में संपादक का काम किया। पत्रिका का मुख्य उद्देश्य रबर और टिन के बाज़ार का विकास था। ब्रिटिश मलया की विचारधारा ब्रिटिश साम्राज्य के पक्षधरों की थी और स्प्रिग भाइयों को यह ग़लत नहीं लगती होगी, क्योंकि 1926 की आम हड़ताल के दौरान उन्होंने हड़ताली कामगारों की जगह स्वयंसेवक बनकर काम करने की पेशकश की थी।10


पर लेबर पार्टी की नपुंसकता, मुल्क में आर्थिक-संकट, फासीवादियों के ब्रिटिश संगठन की बढ़ती ताकत, बुर्जुआ संस्कृति के विकार, मार्क्स को पढ़ना और वैज्ञानिक भौतिकवाद की अपनी समझ से निकलते निजी रास्तों के चक्कर लगाते हुए 1934 में कॉडवेल सी पी जी बी का सदस्य बन गया। "पहली जंग से तो बच गए, नए आतंक सामने आ गए। तंगी से बनी टूटन में सब कुछ खत्म हो रहा है,” कॉडवेल ने अपने जमाने के उपदेशात्मक लहजे में लिखा,

नात्सीवाद से बर्बरता और आतंक का सैलाब आ गया है। आगे क्या है? लगातार गहराते महा-संकट सा शस्त्रों का बढ़ता भंडार, सामूहिक पागलपन, राष्ट्रों का बौखलाए पागल कुत्तों जैसा व्यवहार। लगता है कि यह सब ऐसे लोगों को बड़े घोर संकट की भयंकर दिशा में ले जा रहा है। इन्हें इनकी वजहें मालूम नहीं हैं। अब भी बुर्ज़ुआ लोग आज़ाद होने का नाटक कैसे कर सकते हैं, वे कैसे मान सकते हैं कि उन्हें निजी स्तर पर मुक्ति मिल रही है? यह तभी हो सकता है जब कोई पहले से ज्यादा घटिया ग़फलतों में डूब जाए; कला, विज्ञान, भावनात्मकता और आखिर में अपने जीवन को ही नकार दे। बुर्ज़ुआ संस्कृति से उपजा मानवतावाद आखिर में उससे अलग होता जा रहा है। भयंकर खुला नंगा पूंजीवाद सारे आस्मां में छाता जा रहा है। और इससे अलग हो गई, या ज़बरन अलग की गई, मानवता को या तो सर्वहारा वर्गों के हाथ चढ़ना होगा या चुपचाप किसी कोने में दुबककर अपना गला काटना होगा।11

अपनी माँ की शादी के पहले वाले नाम से कॉडवेल ने दिन में 5000 शब्दों की चौंधियाती गति से बड़े आलेख लिखे। ये लेख जैविकी, भौतिकी, गणित, मनोविज्ञान, काव्यशास्त्र, और राजनीति की पड़ताल करते हुए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के विभिन्न प्रयोगों पर थे।12 साथ में वह कविता-कहानी भी लिखता रहा।


1936 में विक्टोरिया पार्क में हुई फासिस्टों की सभा के विरोध में हुए हििंसक प्रदर्शन में कॉडवेल शामिल हुआ।13 वह पारिस गया, जहाँ पापुलर फ्रंट (लोकप्रिय मोर्चा) ने आम चुनाव जीता था और वहाँ हफ्ते में 40 घंटे काम और दो हफ्ते तनख्वाह सहित छुट्टी की व्यवस्था लागू की गई थी। वतन लौटकर उसने ऐल्डस हक्सली के शांतिवाद की प्रतिक्रिया में लंबा पर्चा लिखा। दिसंबर 1936 में पापुलर फ्रंट के समर्थन में स्पेन में ऐंबुलेंस चलाने के लिए वह स्वयंसेवक बना। वहाँ पहुँचकर वह इंटरनेशनल ब्रिगेड में शामिल हो गया। “मैं एक मशीन-गन का नंबर 1 प्रभारी हूँ, या सही कहा जाए तो यह ‘फ्यूसिल मित्रेलूस’ (फ्रांसीसी नाम) है; पुरानी पड़ चुकी और बहुत विश्वसनीय न होने पर भी काम की है,” उसने अपनी मित्र एला लामोर को लिखा, जिसका जीवन-साथी जॉन लामोर कॉडवेल की टुकड़ी में काम कर चुका था, “मैंने सोचा था कि यहाँ आने के बाद मैं पार्टी सदस्यता की जिम्मेदारी छोड़ दूँगा और लिखने का काम करूँगा। पर जैसा होना होता है, पार्टी कहीं खत्म नहीं होती। सही बात यह है कि मैं एक राजनैतिक गुट का प्रतिनिधि हूँ जो सचमुच पार्टी का काम नहीं है। मुझे लेबर पार्टी के एक गुट को प्रशिक्षण देना है और मैं दीवार पत्रिका का सह-संपादक हूं।”14

अधिकारियों में से किसी को, यहाँ तक कि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में भी, इस स्प्रिग/कॉडवेल बंदे के बारे में कुछ भी पता नहीं था। तब तक उसका एक ही सैद्धांतिक काम छपा था और जैसा कि जॉन बेलामी फोस्टर ने कहा है, बहुत बाद में ही वह “बेशक” अपनी पीढ़ी का सबसे बेहतरीन ब्रिटिश मार्क्सवादी ज़हन के रूप में पहचाना गया।15 ज्यादातर अकेले में और बिना सुविधाओं के लिखी कॉडवेल की उन रचनाओं पर इतिहासकार ई पी थॉम्पसन ने लिखा, “जो सामग्री भेजी गई है, ह महज नया ‘आइडिया’ नहीं है (या ताजा भेजा गया कोई पुराना आइडिया), बल्कि यह चीजों को देखने का नया तरीका है।”

कॉडवेल की गहरी समझ भरी बातें महज बड़ी तादाद में ही नहीं थीं, बल्कि उनमें उनको बाँधते हुए पहले से तैयार एकसूत्री विचार थे। ये पहले से सोचे विचार उसे सांस्कृतिक मानवशास्त्र (ऐंथ्रोपोलोजी), भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन और शायद भौतिकशास्त्र और ज़हनी–विज्ञान के महत्वपूर्ण सवालों तक ले जाते हैं। यहाँ तक कि इन्हीं वैचारिक भ्रमों में से कुछ पारंपरिक मार्क्सवाद में भी गहरी पैठ कर चुके थे, यानी जो मार्क्सवाद के नाम पर जाने गए विचार थे, वे अपनी खुद की रोशनी के सहारे खड़े थे; इस तरह कट्टर मार्क्सवादी परंपरा में कॉडवेल की भूमिका किसी काफिर जैसी हो सकती थी।”16



डार्विनवाद का वर्गसंघर्ष


इन और कुछ और कारणों से कॉडवेल के अप्रकाशित लेखों में से एक “आनुवंशिकता और विकास (हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट)” 1986 में ही व्यापक रूप से सामने आ पाया, जो मेरे अनुभव में जैविकी पर गहरी सोच का सबसे अच्छा काम है।17 यह तकनीकी महारत की वजह से कम और, जैसा लुडभिग विटगेन्स्टाइन ने कहा है, ऐसी बातों को समझने की इच्छा की वजह से ज्यादा हुआ है, जिन्हें दूसरे लोग देखने की हिम्मत नहीं कर पाते। आखिर कॉडवेल जीवविज्ञानी नहीं थे।

रेमांड विलियम्स, टेरी ईगलटन और जे० डी० बर्नाल जैसे दिग्गजों समेत कई आलोचकों ने कॉडवेल की आलोचना की है और उसके फूहड़ स्टालिनवाद में उसकी कई कमियों की जड़ें ढूँढी हैं, जबकि स्टालिनवादियों ने इन्हीं कमियों को बुर्ज़ुआ प्रवृत्तियों में डाला है।18 उसकी मौत के बाद उसके काम का संपादन करने वाले जाँ दुप्राक और डेविड मार्गोलीस तक ने कॉडवेल के काम में, खास तौर पर जैविकी में, उसके ज्ञान को नज़रअंदाज़ किया है।

हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ में कॉडवेल के बौद्धिक गुणों और उसकी कमियों का फ़र्क सबसे साफ दिखता है। इस आलेख में ‘जीव-पदार्थ की इच्छाओं’ जैसी कमज़ोर मानव-केंद्रिक शब्दावली का इस्तेमाल है; खतरनाक नासमझ तरीके से एक दूसरे से उलट बातें हैं, जैसे जीव और परिवेश में बुर्ज़ुआ अलगावके बरक्सउनमें साम्यवादी सामंजस्य”। द्वंद्वात्मकता का यांत्रिक ढंग से इस्तेमाल किया गया है, जैसे – “मूल डार्विनवाद ने वाइज़मान के जीवाणु-सिद्धांत (जर्म प्लाज़्म थीओरी) के रूप में इसके बरक्स, स्वतःस्फूर्त व्यापक विविधता (वैरिएशन) या ‘बेतरतीब बदलाव (म्यूटेशन्स)’ के विरोधी सिद्धांत को जन्म दिया।"19


इन बातों में ज्यादातर सही हैं, पर इन चिंताओं में असल बात छूट जाती है, जैसे कहावत है कि पेड़ों को देखते हुए जंगल छूट जाता है। कॉडवेल ने आधुनिक द्वंद्वात्मक जीवविज्ञान के कई बुनियादी थीम और नियमों के शब्दचित्र बनाए हैं। अस्सी साल पहले किसी ने इन बातों का हिम्मत से विश्लेषण किया हो, यह अचंभे की बात है जीन को अफलातूनी (प्लेटोनिक) अमूर्तन की तरह मानना, जीन और परिवेश में अलगाव, कारण-कारक व्याख्या, जीवों का शुरू में लघुरूप में होना और वहाँ से विकसित होने का भ्रम (प्री-फॉर्मेशनिस्ट), प्रक्रियाओं के आदर्श नियम, परिवेश में विविधता के बावजूद एक ही तरह का जीन-संचालित शरीर-रूप विकसित होना (कैनलाइजेशन), परिवेश में मौजूद जीवनिर्जीवों में संबंध बनाना (नीश निर्माण), लाइसेंको के विचारों का वामपंथी खंडन और जैसे थॉम्पसन ने लिखा बुर्ज़ुआ वैज्ञानिकों में दूरदर्शिता का अभाव। यह सब कुछ रिचर्ड लेविन्स और रिचर्ड लेवोंतिन के द डायलेक्टिकल बायोलोजिस्ट के प्रकाशन के करीब पचास साल पहले की बात है, जिसमें इन्हीं में से कई विचारों को बढ़ाया गया है।20

कॉडवेल कोई जीवविकास-वैज्ञानिक (ईवोल्यूशनरी बायोलोजिस्ट) नहीं था। अधिकतर जीवविज्ञानियों की तरह उसने ‘हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ की शुरुआत डार्विन से ही की है, पर उसने व्यक्तित्व-वर्णन कम किया है।21 द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़ § § के छपने के पचहत्तर साल बाद लिखते हुए कॉडवेल ने विकासवाद यानी प्रजातियों में बदलाव और डार्विन के कुदरती चुनाव के सिद्धांत को अपनाने के फ़र्क से शुरुआत की है, जिसे आज आमफहम माना जाता है। डार्विन के इस विचार को कॉडवेल ने ‘बार-बार सवालों के कटघरे में खड़ा’ और ‘गठन में धुँधला’ कह कर काटा है। इस वजह से पहली नज़र में लगता है कि उसने नव-डार्विनी संयोजन को नहीं समझा है। तब तक आर० ए० फिशर, सीवॉल राइट, और जे० बी० एस० हाल्डेन ने गणितीय तरीकों का इस्तेमाल कर धारणा के स्तर पर कुदरती चुनाव और मेंडेलियन जीनेटिक्स के बीच एकरूपता को पूरा कर दिखाया था। बीसवीं सदी के शुरुआती सालों में फिर से सामने आए मेंडेलियन जेनेटिक्स में शुरुआत में चयन के उलट बातें दिखती थीं।22 बेशक, जब तक दोनों को जोड़ा नहीं गया था, कॉडवेल सही राह पर था: डार्विन के सिद्धांत के रास्ते में रोड़े थे। जैसा कि प्रजाति की जनसंख्या के माहिर वारेन ईवेन्स ने लिखा है:

1900 में मेंडेलवाद की फिर से खोज हुई। इसमें कणों से बनने–बढ़ने का जो सिद्धांत है, वह जैविक विकास में अचानक होने वाले बदलावों को मानने वालों (सॉलटेशनिस्ट) को सही लग रहा था। ऐसा हुआ कि जल्दी ही बहुत सारे जीवविज्ञानी यह मानने लगे कि जीन में अचानक बेतरतीब बदलाव का नव-डार्विनवादी सिद्धांत ही सही है।मेंडेलवाद ने डार्विनवाद को खत्म कर दिया है’ यह विचार आम होने लगा। दूसरी ओर, प्रजातियों में शारीरिक बदलाव का मापन करने वाले बायोमेट्रीशियन इस बात को मानते रहे कि कुदरती चुनाव के द्वारा धीरे-धीरे विकास का डार्विन का सिद्धांत सही है और इस तरह वे मेंडेलियन व्याख्या की मुख्य बातों से असहमत थे, या कम से कम वे इस बात को नहीं मानते थे कि जीव के विकास में इस व्याख्या का कोई बुनियादी महत्व है।23


कुदरती चुनाव के सिद्धांत के पीछे जो तर्क और प्रमाणिकता है, कॉडवेल ने उसे खारिज करने की कई खामखयाली कोशिशें कीं। उसने इस बात को दिखलाया कि विकासवादी-जीवविज्ञानी विकास के जरिए सफलता को समझाने के लिए फिटनेस (दुरुस्ती) की बात दुहराते रहते हैं; बाद में वे इस समस्या से उबर गए हैं, उन्होंने प्रजाति में शरीर के एक जैसे लक्षण (फीनोटाइप) की खासियतों अनुकूलन के जरिए प्राणियों के जीवित रहने और प्रजनन की समझ बनाई है। उसने डार्विन के सिद्धांत को काटने के लिए जीव-निर्जीवों की साझी भौतिकता की एकरूप समझ बनाने की बेकार कोशिश भी की। निर्जीव वस्तुओं की व्याख्या कुदरती चयन के सिद्धांत का काम नहीं है। (हालांकि भौतिक विज्ञानी ली स्मोलिन ने ब्रह्मांडस्तर पर ऐसे ही सिद्धांत की कल्पना की है, जिससे बहु-ब्रह्मांडों की व्याख्या हो सकती है)24

म्यूटेशन की बात करते हुए कॉडवेल कुदरती चुनाव के सिद्धांत पर जीवों में विविधता का सार थोपने की पुरजोर कोशिश करता है। वैसे, जीवों में विविधता के कई जटिल स्रोतों की उसकी सूची सही है, जिनमें सांस्कृतिक और परिवेश-जनित आनुवंशिकता भी शामिल हैं। और इस तरह प्रजातियों के सही शुरुआत और विकासवाद में सूक्ष्म से स्थूल प्राणियों में बदलने को समझाने में जो मुश्किलें आती हैं, जो आज भी मौजूद हैं, उनको वह सुलझाता है।

पर कुल मिलाकर कॉडवेल का मकसद डार्विनवाद को बिल्कुल नकारना नहीं है, बल्कि यह दिखलाना है कि ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांत और उनके संकटों की जड़ें खास सामाजिक सन्दर्भों में होती हैं इसके पहले इस समझ को उसने भौतिकी की बात करते हुए सामने रखा था :

डार्विन के समकालीनों के लिए उसके सिद्धांत का महत्व, उनकी कल्पनाशीलता पर उसका प्रभाव, ‘पिछली पीढ़ी’ के आक्रामक हमलों से तीखे तेवर के साथ उसका बचाव, इन सभी बातों से यह पता चलता है कि उस जमाने के अग्रणी लोगों को यह सिद्धांत खास तौर पर खींचता था।

जब हम कुदरती चुनाव के सिद्धांत को परखते हैं तो हम पाते हैं कि नई प्रजातियों को बनाने वाले इस औजार की उस जमाने की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से अजीब समानता थी, जैसा कि सरमाएदारों ने इसे समझा।25


कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स समेत औरों ने पहले ही तर्क रखा था कि डार्विनवाद अपनी विक्टोरियन* सामाजिक सांस्कृतिक धरोहर को पेश करता है।26 पर जिस शिद्दत से कॉडवेल इस सिद्धांत को इसकी वैचारिक मांद से उधेड़ता है, से मान लेना उचित है :

मैनचेस्टर के उदारवाद और खुले बाज़ार को बनाने वाली डार्विन के जमाने की राजनैतिक अर्थव्यवस्था इस आस्था पर आधारित थी: अगर हर आदमी को खुद समाज में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन और उनके खुले लेन–देन के लिए खुला छोड़ दिया जाए तो वह उसके समेत सभी लोगों की अधिकतर भलाई की बात होगी। उसका निजी लाभ समाज के फायदे में होगा। समूचे विनिमय-मूल्य (लेन-देन में फायदा-नुकसान) में समाज की बढ़त होगी और समाज की ज़रूरतों से न ज्यादा, न कम, बिल्कुल सही-सही उत्पादन होगा और हर इंसान को अपनी मेहनत की सही कीमत मिलेगी…

लगता है कि सप्लाई और डिमांड के "नियमों" के अधीन, दुनिया के बाज़ार में आ रही कुल संपदा के लिए खुली इच्छाओं की जद्दोजहद से समाज की तरक्की सुनिश्चित होगी। "संपदा" की जगह "भोजन की सप्लाई", "बाज़ार" की जगह "परिवेश", "निजी आज़ाद इरादा" की जगह "वजूद के लिए निजी संघर्ष" और " सप्लाई और डिमांड के नियमों" की जगह "भौतिक नियम" पढ़ा जाए, तो डार्विन और उसके समकालीनों द्वारा देखी गई कुदरती दुनिया की पूरी तस्वीर उभर आती है।27


कॉडवेल ने इस वर्ग-उल्लास को देश-काल-विशेष निरंतर बढ़ता लाभ कहकर, इसकी ऐतिहासिक व्याख्या की है :

अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत व्यापार में सामंती रोक-टोक से बच निकलते बुर्ज़ुआ-वर्ग के प्रोग्राम को पेश करता है। आखिर इसी के जरिये सरमाया और ज़मीन पर पुराने अभिजात वर्ग के एकाधिकार के खिलाफ 1750–1850 में नए बुर्ज़ुआ-वर्ग का इंकलाबी उभार हुआ। जब तक पूँजीवादी विकास की गाड़ी को ब्रिटेन खींचता रहा, यह इंकलाबी सिद्धांत (कुदरती चुनाव) “खुले बाज़ार” का सिद्धांत रहा, जिसका नतीजा यह होना था कि सबसे ज्यादा तरक्कीपसंद मुल्क अपने-आप ही सामाजिक मुनाफे का ज्यादातर उठा ले जाएगा।28


मशीनें छोटे काम-धंधों को खत्म कर पूँजी जमा करती हैं, जमा पूँजी फैलती है, फिर मुनाफा की दरें कम हो जाती हैं, ढाँचा संकटों में पड़ जाता है। इसे अर्थशास्त्रीय महारत या विदेशों में औपनिवेशिक शोषण के जरिए अस्थाई रूप से रोके रखा जाता है, और इससे “खुले बाज़ार” के शांतिपूर्ण मैदान के उलट निहित जंग, अन्याय और एकाधिकार उपजते हैं:

यानी कि (मैल्थूसियन) अर्थतंत्र की दुनिया में, कुदरती चुनाव से कुदरती दुनिया में दिखने जैसा विकास कतई नहीं जनमता, बल्कि कुछ अजीब, हिंसक और अभूतपूर्व ही इससे निकलता है। उत्तर-डार्विनियन इतिहास में कुदरती चुनाव कोई कुदरती नियम नहीं है, बल्कि यह समाज में, और वह भी किसी भी पूरे समाज में नहीं, बल्कि पूँजीवादी समाज में एक अजीब बात है; यह इतना अस्थिर है कि महज अमूर्त खयाल की तरह जीता है और सामने आते ही विनाश के रास्ते पर चलते हुए अपने को नकारना शुरु कर देता है।29


यह तर्क दिया जा सकता है कि खुद कुदरत पैने दाँतों और पंजों का खेल है, भले ही प्रजातियों के आपसी मदद से साथ जीने के कितने भी तरीके हों, और हम भी कुदरत का हिस्सा ही हैं। फिर भी कुदरती चुनाव वाला विकास सचमुचबाज़ार जैसा ही इस मायने में आज़ाद नहीं है कि जैसे कॉडवेल ने कहा, “उसका कोई सामाजिक संगठन” नहीं है, पर ठीक ऐसे ही संगठन से ही उसका जन्म होता है। आर्थिक या पारिस्थितिक (इकोलोजिकल) स्पर्धा भी एक दूसरे पर निर्भर इतिहास के नतीजों में जड़े हुए किसी संदर्भ पर निर्भर करती है।

कॉडवेल इसी थीम पर जोर डालता है, जैसा एड्रियन डेस्मांड और जेम्स मूर ने कई दशकों के बाद किया।30 बड़ी आर्थिक मंदी के दौरान लिखते हुए कॉडवेल स्टेशन छोड़कर जा चुकी ट्रेन की सवारी की तरह डार्विन को बैठाता है, जैसे जीवन में हर किसी के साथ होता है:

इस प्रक्रिया के ठीक बीच में डार्विन आता है। स्वार्थ और बेरहमी के साथ घमासान जंग (सामाजिक-आर्थिक) छिड़ चुकी थी। पर पूँजीवाद बढ़ोतरी की ओर था। इंसान की इंसान से हो रही जंग सभ्यता में उत्पादक ताकतों को दबा नहीं रही थी(जैसा आज है), बल्कि उन्हें अब भी बढ़ा रही थी। समकालीन बुर्ज़ुआ इंसान की नज़रों में वजूद के लिए चल रही यह खून से रंगी जद्दोजहद, तरक्की की ताकत थी। लग रहा था कि उस वक्त की सीख यही थी कि वजूद के लिए संघर्ष से तरक्की होती है।

उभरते औद्योगिक बुर्ज़ुआ-वर्ग द्वारा संघर्ष को और ज्यादा तीखा करने की लगातार माँग ने डार्विन की जवां सोच पर असर डाला था। मजदूरी की लागत बढ़ाने वाले अनाज उत्पादन पर रोक के कानून (कॉर्न कानून#) औद्योगिक उत्पादन पर बेड़ियाँ बन गए थे। इन नियमों से कुछ ही लोगों को फायदा होता था इसलिए भाड़ में जाएँ ऐसे कानून! आर्थिक नीतियों में “कुछ उद्योगों के हित में कानून (प्रोटेक्शन)” को हटाए जाने की बात हर खित्ते में हो रही थी। इस इंकलाबी जमात की नज़रों में, जिसमें डार्विन भी शामिल था, जीने के लिए निजी जद्दोजहद को तीखा कर पाना ही तरक्की था। इसलिए कुदरती चुनाव एक वर्ग आधारित सिद्धांत था।31


कॉडवेल ने आगे लिखा कि चर्च ऑफ इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई सिर्फ विकासवाद के लिए नहीं, बल्कि एक खास तरह के विकासवाद के लिए थी, जिससे कि उस जमाने के बुर्ज़ुआ नज़रिये को प्रतिष्ठा मिल सके। जैसे आन्तोनियो नेग्री ने देकार्त के विचारों को और बेर्तोल्त ब्रेख़्त ने गालीलीओ के विचारों को पहचाना, वैसे ही कॉडवेल ने न्यूटन के सिद्धांतों की पहचान यूँ की कि बुर्जुआज़ी और अभिजात वर्ग तथा चर्च के बीच हुई पहली वैचारिक लड़ाइयों में उन सिद्धांतों की भी एक ही जैसी भूमिका थी।32 कॉडवेल के रचनावाद (कंस्ट्रक्टिविज़्म) को विज्ञान-दर्शन और विज्ञान के इतिहास की अध्येता हेलेना शीहान ने और बड़े परिप्रेक्ष्य में इस तरह लिखा है :

बुर्जुआज़ी के विकास के साथ पदार्थ की अवधारणा तक बदल रही थी। गालीलीओ और बेकन की समझ में पदार्थ के गुणधर्म होते थे और उसमें ऐंद्रिक एहसास होते थे। पर बुर्जुआज़ी के स्वामित्व में पदार्थ की पहचान के लिए, इंसान और कुदरत के बीच नाभिनाल को काटने, खुले बाज़ार के अलावा बाक़ी सभी रिश्तों से इंसान को आज़ाद करने, यानी निजी संपत्ति की एकतरफा पहचान के लिए, यह ज़रुरी था कि अवलोकन करने वाले को बिल्कुल हटा दिया जाए …

जब सरमायादारी का पहला चरण अपनी पराकाष्ठा पर था, जैसे-जैसे बुर्जुआज़ी अपने बहिर्मुखी, वर्चस्ववादी, खोजी दौर से हटकर अंतर्मुखी, विश्लेषक काल में सिमटता चला, सरमायादारी का भौतिकवाद अपने उलट मनस्तत्ववाद में बदलता चला। अपने दर्शन में वह लक्ष्य-वस्तु (ऑब्जेक्ट) से हटकर देखने वाले कर्ता या सब्जेक्ट की ओर मुड़ा, क्योंकि उसकी पकड़ से वस्तु पिघलती जा रही थी। इसलिए दार्शनिकों की यह शृंखला बनी बर्कली, ह्यूम और कांट और आखिर में हीगेल। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट का यही द्वंद्व फिर से बना, पर अब अपने विलोमी प्रतिरूप को साकार किया गया, उसके स्रोत की पहचान के बिना ही …

जहाँ एक ओर पद्धति और तरीकों ने सब्जेक्ट को खत्म कर ऑब्जेक्ट को जगह दी थी और आदर्शवाद ने ऑब्जेक्ट को खत्म कर सब्जेक्ट में मिला दिया था, प्रत्यक्षवाद (पोज़िटिविज़्म) ने दोनों को ही खत्म कर दिया।33

सामाजिकराजनैतिक स्थितियों को काबू में रखने के लिए जब जैसा ठीक लगा, उसी मुताबिक कुदरत को इंसानी नाज़िर से अलगथलग करने की कोशिश होती रही।


परस्पर गड्डमड्ड अंतहीन फॉर्म (रूप)

वैसे निहित सामाजिक निर्मितियों के होने से कुदरती चुनाव का सिद्धांत खारिज नहीं होता। सभी ज़रूरी विचार और उनके खंडन कहीं और शुरू होते हैं। डार्विनियन तंत्र में सरमाएदार भूतों को ढूँढ़ने की कॉडवेल की अपनी कोशिश में हमने दुरुस्ती का दुहराव, पदार्थवादी विविधता जैसी कई ऐसी बातों को जाना है, जो शुरुआत से ही ग़लत राह पर थे।

पर ‘हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ के कुछ पन्ने पढ़ लें तो हम पाते हैं कि कॉडवेल महत्वपूर्ण बातें करता है। बड़ी कुशलता के साथ उन गाँठों को कॉडवेल खोलता है, जो प्राणी के परिवेश से अलगाव से उपजी वर्ग–आग्रह की अपेक्षाएँ हैं। वह यहाँ से बात शुरू करता है कि डार्विनियन कुदरती चुनाव का सिद्धांत नाकाम इसलिए नहीं होता कि इससे बहुत कम ही बातें समझाने की कोशिश हुई है, बल्कि इसलिए कि इसका इस्तेमाल बहुत ज्यादा बातें समझाने के लिए किया गया है। इसी विवाद पर स्टीफेन जे गूल्ड ने अपना सारा काम किया है।34 गूल्ड ने जीवों के विकास में चुनाव के अलावा और कई सारे वैकल्पिक विधियों की झड़ी लगा दी है खास मकसद की ओर बढ़ते हुए प्रजाति में विकास की अंदरूनी विधि (नीओओर्थोजेनेसिस), एक समुदाय के कई प्राणियों में जिस्मानी बनावट के एक जैसे रूप, वक्त के साथ शारीरिक परिवर्तन, जैविक दुनिया में प्राणियों को गोलक या ज्यामितिक आकार की तरह समझना (गाल्टन का पॉलीहेड्रन), क्रमवार विकास की सत्ता की धारणा, जैविक विकास में कई बार अचानक कई प्रजातियों का विलुप्त हो जाना और ऐतिहासिक सीमाएँ और भिन्न प्राणियों में होने वाली वृद्धि और बिखराव की प्रक्रियाओं में व्यापक एकरूपता।

पर कॉडवेल यहाँ इस बात को समझाने की ओर नहीं जा रहा है। प्राणी में बदलाव को बढ़ते–बदलते पूर्ण स्वरूप में देखने (डेवलपमेंटल सिस्टम्स थीओरी) का पहले से अनुमान लगाते हुए कॉडवेल चेतावनी देता है, “प्राणी और उसके परिवेश को सटीक विलोम मानते हुए अलग कर पाना मुमकिन नहीं है। यथार्थ से अलग हुए विपरीत छोरों के बीच रिश्तों में ही जीवन है, ये छोर कुदरत के खिलने में हमेशा एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इस रिश्ते को वे परस्पर तय करते हैं।35 इस तरह, कुदरत में जो कुछ होता है, उसे विविधता के ऐसे टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, जो आपस में जुड़कर कुछ बनाते हैं; ऐसी कोशिश से किसी भी विकसित होती जीवन–घटना को हम सनकी घटना मानने की ग़लती कर बैठेंगे :

जहाँ तक पर्यावरण के नियमों द्वारा जीवन की प्रक्रियाओं पर नियंत्रण की बात है, ये नियम पर्यावरण में निहित नहीं हैं; ये जीवन और परिवेश के बीच रिश्तों से बनते हैं। इसलिए इंसान के परिवेश के जो नियम हैं, वे अपने आकार को बदलने में सक्षम एक-कोशिका या सूक्ष्म प्राणी, अमीबा, के परिवेश के नियम नहीं हैं; कुदरत को बाँधने वाला सबके लिए लागू कोई ‘सप्लाई और डिमांड का नियम’ नहीं है। इसलिए हम प्राणी और उसके परिवेश के बीच परस्पर क्रियाओं को नियंत्रित करते बाहरी नियमों के समूह को बुनियादी नहीं मान सकते। कोई भी ऐसे नियम दोनों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से पैदा होते हैं और यह एक लगातार उभरता रिश्ता होता है।36


जैसे मार्क्स ने पारिस कम्यून के बिखरने पर लिखे आलेख ‘एइटीन्थ ब्रूमेयर’37 में समझाया है, उसी सोच का सहारा लेकर कॉडवेल ने लघु आकार से लगातार होते विकास के निश्चितता के सिद्धांत को नकारते हुए द्वंद्वात्मक सोच को स्वीकारा। विकास की राह में जो दुविधाएँ आती हैं, उनके मुताबिक यह सोच खुद को बदल भी सकती है: “जीवन का विकास जीवन की प्रवृत्तियों से तय होता है, ठीक वैसे, जैसे इतिहास और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इंसानी ख़्वाहिशों से तय होते हैं। पर इतिहास इंसानी ख़्वाहिशें पूरी नहीं करता: वह महज उनसे तय होता है, और वापस उनकी नियति तय करता है। इसी तरह, जीवन का विकास प्रवृत्तियों को तय करता है और उनसे तय होता है, पर उन्हें ठोस और सटीक रूप से पूरा नहीं करता है।”38

ये प्रभाव कमतर (सेकंड ऑर्डर) हैं, और कुछ प्राणियों में एहसास की काबिलियत और चेतना तक पैदा करते हैं : “प्राणी में बदलाव अपने आप ही जीवन और परिवेश के बीच जुड़ाव में बढ़त लाता है, जिसे हम परिवेश-जनित रिश्तों की ज़रूरत की चेतना कहते हैं। इस उभार से प्रवृत्तियों में रूपांतर, और उद्देश्यों में बदलाव और स्पष्टता ही तय नहीं होते, बल्कि इससे लक्ष्य में बदलाव के प्रति संगति भी पक्की होती है।”39

कुल मिलाकर आज जिसे परिवेश के मुताबिक खुद को ढालना (नीश निर्माण) माना जाता है, इसी की प्रस्तावना कॉडवेल ने की है और इसे भोजन की सप्लाई तक आगे बढ़ाया है; जिसका संदर्भ हाल में फिर से चर्चा में आए वी० सी० वाइन-एडवर्ड्स में देखा जा सकता है।40

(भोजन-सप्लाई) जीवन और कुदरत के बीच बने खास रिश्तों से निकला हुआ है। माल्थूसियन नियमों के विपरीत … जैसा कि प्रजाति के सदस्यों की संख्या में बढ़त से होता है, प्रति सदस्य फूड सप्लाई में बढ़त होती है, इसी तरह एक प्रजाति के सदस्यों की संख्या में बढ़त दूसरी के लिए हानिकारक नहीं है, अगर वह दूसरी के लिए भोजन है। या प्रजातियों के बीच रिश्ते एक दूसरे का भला करते हैं, जैसे पक्षी बीज फैलाते हैं, मधुमक्खियाँ पराग-कण फैलाती हैं और मूँगों के पॉलिप रीफ बनाते हैं।41


यानी कि कारकों के गड्डमड्ड होने से ही वह विपुल और लगातार उभरती पारिस्थितिकी बनती है, जिस पर जैविक विकास निर्भर करता है। जीव-निर्जीव, जीवन और परिवेश, इंसान और कुदरत इन जैविक व्यवधानों को जन्म देने वाले “तनाव आपस में गड्डमड्ड हैं और इससे कुदरत में बढ़ती जटिलता उभरती है।” इसलिए “समय के साथ होते जैविक विकास के लिए कुदरती चुनाव जैसे नियमों को ढूँढ़ना मायने नहीं रखता, क्योंकि समय कोई डिब्बा या धारा नहीं है, इसे ‘उभार का माध्यम’ नहीं मानना चाहिए; यह पदार्थ के विकास का महज एक पहलू है, जिसका दूसरा पहलू स्पेस या देश है। जो कुछ यथार्थ है, उसी का भौतिक उभार।” कई दशकों बाद दूसरे चिंतक भी इसी नतीजे पर पहुँचे।

द्वंद्वात्मक विचारवाले जीव-विज्ञानी रिचर्ड लेवोन्तीन ने 2002 में लिखते हुए तर्क पेश किया :

भीतर और बाहर के बीच अलगाव की डार्विन की धारणा आधुनिक जैविकी के विकास में एक बुनियादी ज़रूरी कदम थी। इसके बिना हम आज भी पुरातनवादी पूर्ण-स्वरूप की सोच के जाल में भटकते रहते… पर इतिहास के एक चरण में तरक्की के लिए ज़रूरी शर्तें किसी दूसरे चरण में और आगे की तरक्की के लिए बाधा बन जाती हैं… प्राणी न केवल यह तय करते हैं कि क्या उचित है और बाहरी दुनिया के ज़रूरी पहलुओं के बीच भौतिक रिश्ते बनाते हैं, बल्कि वे लगातार परिवेश को बदलने की काबिलियत रखते हैं… (और) जैसेजैसे बाहरी स्थितियाँ उनके परिवेश का हिस्सा बनती रहती हैं, वे उनके औसत गुणों में घटबढ़ करते रहते हैं।42


यहाँ तक की स्लावोय ज़ीज़ेक ने भी कहा है :

मसला यह नहीं कि प्राणी कैसे खुद को परिवेश के अनुकूल ढालता है, बल्कि यह कि कैसी स्पष्ट सत्ता है, जो खुद को परिवेश के अनुकूल ढाले। और यहीं, इस महत्वपूर्ण बिंदु पर अजीब ढंग से, आज के जीवविज्ञानियों की ज़ुबान हीगेल की ज़ुबान जैसी लगने लगती है। जैसे खुद को बनाए रखने और प्रजनन आदि से बढ़ाते रहने वाले सिस्टम की धारणा (ऑटोपोईसीस) के बारे में जब फ्रांसिस्को वारेला लिखता है, तो वह जीवन के बारे में हीगेलियन खुदमुख्तार और लक्ष्यपरिभाषित सत्ता की धारणा को शब्दशः दुहराता है: … “एक तंत्र (नेटवर्क) ऐसी सत्ताएँ बनाता है, जो एक सीमारेखा बनाते हैं, जिससे सीमा बनाने वाले उस तंत्र की सीमाएँ तय होती हैं … इस तरह खुद को वह कीमिया या भौतिकी के घोल से आज़ाद कर लेता है (बिना बाहरी मदद या पर्याप्त संसाधनों के)।”43



डार्विन और लामार्क में कोई भेद नहीं है

जैविकी में भ्रमात्मक द्वंद्वों के जो विवाद रचे गए हैं, यह व्याख्या इन विवादों से छुटकारा दिलाती हैं। एक ओर संयोग से विविधता (चान्स वैरिएशन) और दूसरी तरफ चुनाव (सेलेक्शन) का डिज़ाइन फिल्टर, जिसमें सबसे अच्छे परिवेश में दुरुस्ती (फिट) का लाभ है, इन दो विचारों में परस्पर विरोध “बेतरतीब बदलाव (म्यूटेशन), शृंखला में असंतुलन और जीनोम में फिर से अणुओं को सजाने, या बड़े स्तर पर कहा जाए तो सभी अनुकूलन क्रियाओं में एक साथ चल रहे हालात से जूझने पर हुए बदलाव और तज़ुर्बे से लाए बदलावों को, दरकिनार करता है।”

इसके अलावा अनुकूलन न तो महज आनुवंशिक रूप से मिलता ऐसा तंत्र है, जिसमें सही-ग़लत सब कुछ संतुलित हो (ऑप्टीमिज़ेशन) और न ही, लामार्कियन नज़रिए में, महज तज़ुर्बे से यह जन्म लेता है। इस दूसरी बात वाली कॉडवेल की आपत्ति को शीहान ने ‘लाइसेंकोवाद का भीतर से पर साफ तौर पर खंडन’ कहा है। वह इसे सी पी जी बी (कम्युनिस्ट पार्टी) द्वारा “हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट” को दबाने का पर्याप्त कारण मानती है।44 ऐसा इसलिए है कि इस फ़र्क की पहचान करते हुए कॉडवेल बुर्ज़ुआ और स्टालिनवादी दोनों से एक जैसी दूरी पर अलग हो जाता है। दोनों मत डार्विनियन और लामार्कियन समस्या को खुले मैदान में या कई में देखने की बजाय एक ऑब्जेक्ट में देखते हैं और यह मान लेते हैं कि प्राणी हमेशा अपने परिवेश के खिलाफ जूझता रहता है। सच यह है कि प्राणी और परिवेश एक दूसरे की सनक से मुठभेड़ करते हुए ही उभर सकते हैं और जैविक भाषा में, लकीर से हटकर प्रक्रिया के नियम बनाते हैं :

तयशुदा परिवेश या जिंदगी के तज़ुर्बे में ही जंतु के नियत गुण दिखलाई दे सकते हैं। जैसे, भोजन में कुछ रसायनों की मौजूदगी से ही रंग उभरते हैं, मैग्नीशियम की खुराक हो तभी मुर्गियों में मातृ-भाव सघन होता है (अधिक अंडे देती है) आदि। हर खास गुणवत्ता के लिए परिवेश का सही होना ज़रूरी है। एक तरह की खुराक दो नस्लों के मुर्गों पर पीले रंग का छिड़काव दिखलाएगी; कोई दूसरी खुराक खाने पर एक पर पीला तो दूसरे पर हरा रंग दिखेगा… पितरों से मिली और खुराक-पानी से मिली विशेषताओं में फ़र्क कर पाना सचमुच असंभव है ; क्योंकि हर खासियत उत्तराधिकार में मिले हालात पर शुरुआती खुराक-पानी की मदद से हुई प्रतिक्रिया ही है… (प्राणी के) गुणधर्म अंदरूनी और बाहरी प्रभावों के बीच संतुलन और उनमें संयोजन से ही बनते हैं। बाहरी दबावों में बदलाव से लक्षणों में बदलाव होते हैं, पर यह तभी होता है जब बाहरी प्रभाव के प्रति उस खास तरह का शुरुआती झुकाव प्राणी में हो।45

ऐसी विशेषताओं पर डार्विनियन और लामार्कियन विचारों में झगड़े की जड़ एक खास ऐतिहासिक तत्वमीमांसा (मेटाफिज़िक्स) में है, जहाँ ये दोनों विचार ज्ञानप्राप्ति में अवरोधों से आते हैं, जिसपर नसीम निकोलस तालेब46 ने लिखा है। कॉडवेल ने आगे इस तरह लिखा है :

आज़ादी का मतलब क्या है और आज़ाद सोच (फ्री विल) और निश्चितता (डिटरमिनिज़्म ) के बीच क्या रिश्ता है इन दोनों बातों पर बुर्ज़ुआ-वर्ग में अज्ञान न होता तो यह अस्पष्टता नहीं सामने आती। क्या आज़ाद खयाल ज़रूरत के प्रति चेतना का अभाव है, जैसा कि बुर्ज़ुआ सोचते हैं? ऐसा है तो संयोग से होती विविधता को उत्तराधिकार में मिली विविधता से अलग किया जा सकता, क्योंकि एक स्वतः-स्फूर्त और आज़ाद है और दूसरी तयशुदा है। पर सच यह है कि संयोग से मिली विविधता ऐसी बात है, जिसकी वजहों के बारे में हमें कुछ नहीं पता, और ऐसी ही स्वतः-स्फूर्त विविधता भी है…

इसलिए पितरों से मिली विशेषताओं के प्रसार वाले लामार्कियन सिद्धांत और भ्रूण से ही पूर्ण शरीर के लगातार बनने के वाइज़मैन के जर्म प्लाज़्म सिद्धांत में कोई फ़र्क नहीं है। जब दोनों को प्राणी और परिवेश के मुताबिक सही-सही परिभाषित किया जाए, तो वे एक दूसरे के विरोध में नहीं, बल्कि एक ही पूर्ण का हिस्सा दिखेंगे …47


इस तरह से देखा जाए तो तरक्कीपसंद सुधार भी सही दूरी तक जाते नहीं दिखते। मसलन कोनराड वैडिंगटन के जेनेटिक ऐसिमिलेशन सिद्धांत के मुताबिक प्राणी के व्यवहार में परिवेश के प्रति होती प्रतिक्रिया कुछ पीढ़ियों के बाद जीनोम में एक दिशा में प्रवाहित (कैनलाइज़्ड) या शामिल हो जाती है।48 इसके बाद परिवेश फिर बदल जाए तो भी जीन में टँकी नई विशेषताएँ (जीनोटाइप) अभिव्यक्त होती हैं। चाहे इससे जितनी भी रूढ़ियाँ टूटती हों, कॉडवेल की सोच के ढाँचे में वैडिंगटन का “विकास और बदलाव में संबंध (ईवोडेवो)” कोई विशेष जगह नहीं ले पाता।


जैविकी में विवाद ज़रूरी क्यों हैं

इसके बाद कॉडवेल अपने रचनावाद पर वापस आता है। इस तरह वह मॉरिस गोडेलियर की बाद में लिखी थीसिस49 को अपने वक्तों में ढूँढ लेता है। वह बतलाता है कि कैसे बुर्जुआज़ी बाज़ार से जुड़ी अपनी ज़रूरतों को कुदरत की धारणा पर थोपता है (और वापस उल्टी दिशा में जाता है): “वह जीवन को मृत परिवेश के बरक्स खड़ा देखता है। परिवेश या बाज़ार के न बदलने वाले स्थिर स्वरुप से कुछ समस्याएँ सामने आती हैं, जिनका समाधान जीवन को या उत्पादक को करना है … यह धारणा अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति बुर्ज़ुआ के समझ का प्रतिफलन ही है : आज़ादी का मतलब निर्जीव वस्तुओं को संपत्ति मानने का बेरोक अधिकार ही है; और उन वस्तुओं के निहित नियमों को समझ कर मुनाफे के लिए वह उनका इस्तेमाल करता है।”50

चाहेअनचाहे सर्वांगीण यथार्थ बुर्ज़ुआ को तिकड़मबाजी करने के लिए मजबूर कर देता है, हालाँकि वह नाटक करता है कि बुनियादी तौर पर वह ऐसा नहीं कर सकता:

चूँकि सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट गड्डमड्ड हैं, संपत्ति की तिकड़मबाजी का मतलब ही इंसान के साथ धोखाधड़ी है, जिसमें बुर्ज़ुआ खुद शामिल है… वह जंतुओं के जनने को नियंत्रित कर उनके शरीर (मांस) और अंगों का इस्तेमाल करने की कोशिश करने को मजबूर होता है। जब सर्वहारा वर्ग इंकलाब की पहली लहर में हिल उठता है, तब वह इंसान की सोचउसकी इच्छाओं और चाहतों पर नियंत्रण करने को मजबूर हो जाता है… यह बुर्ज़ुआ की ज़रुरत बन जाती है कि वह तालीम का इंतज़ाम करे और अपनी बातें फैलाए। उसने सिर्फ जायदाद पर अधिकार की बात की थी, पर जाहिरा तौर पर अब वह जंतुओं और इंसान पर वर्चस्व जमाने तक पहुँच जाता है और इस तरह वह उनके स्वभाव की ज़रूरतों को समझने की कोशिश करने लगता है। इस तरह जैविकी और मनोविज्ञान में उसकी घुसपैठ होती है।51


इन वजहों से विज्ञान की ये दोनों शाखाएँ इतनी विवादास्पद हैं, क्योंकि इन दोनों से यह जाहिर होता है कि कैसे खुद बुर्ज़ुआ ऐसी स्थिति से उभर आते हैं, जहाँ वे जानते हैं कि उन्हें तिकड़म करनी होगी :

यहाँ मैदान सबसे ज्यादा ‘खतरनाक’ है। किसी भी पल बुर्ज़ुआ को पता चल सकता है कि उसकी इच्छा पहले से तय है। बर्कली, ह्यूम, शेलिंग, फिख़ते, कांट और हीगेल जैसे कई सारे चिंतकों ने इसी एक काम पर खुद को न्यौछावर कर दिया है, जिसे “दर्शन” कह दिया जाता है, कि पदार्थ से मनस् को हटाकर किसी तरह बुर्ज़ुआ आज़ाद इरादे को बचा लिया जाए और हीगेल इसे हद से बाहर तक ले जाता है। मार्क्स इसे उलट कर मन को वापस पदार्थ में ले आता है और इस तरह साम्यवाद का दर्शन पैदा होता है।52


हाल में हीगेलियन चिंतन के फिर से वापस लौटने के पक्षधरों को इस खंडन से परेशानी होगी, पर इसे कुछ हद तक सही ठहराया जा सकता है। इसके लिए एक ओर तो हम विषय-अनुशासन की धारणा को ही ले सकते हैं और दूसरी ओर भौतिक-विज्ञान से ईर्ष्या यानी अध्ययन के तमाम विषयों में अध्येताओं द्वारा भौतिक विज्ञान की तरह अपने काम में जटिल बातों को टुकड़ों में बाँट कर देखने के गणित और निश्चितता के तरीकों के इस्तेमाल को ले सकते हैं; हालांकि फिज़िक्स में इस तरह के सरलीकृत मॉडल काफी हद तक खारिज हो चुके हैं।53



टूट चुका बुर्ज़ुआ विज्ञान

ऐतिहासिक नज़रिए से चीज़ों को देखने पर बुर्ज़ुआज़ी की आपत्ति उनके इस विचार के प्रति नाराज़गी से संगति रखती है कि जायदाद के 'हक' विशेष जमाने की सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं। "कॉडवेल के लिए यह बात बुर्ज़ुआ संस्कृति की जड़ में निहित झूठ है," जैसा कि शीहान ने लिखा है,

चूँकि आज़ादी सहज-ज्ञान के सूझ-बूझ से नहीं, बल्कि सामाजिक रिश्तों से निकलती है, सामाजिक रिश्तों को दरकिनार कर इंसान, इंसान नहीं रह जाता। इस बात को न समझ पाने की वजह से आधुनिक समय में आम तौर पर बेचैनी और ज़हनी बौखलाहट दिखलाई पड़ती है। बुर्ज़ुआ ने खुद को उस नायक की तरह देखा जो अकेले आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा है, वह कुदरती इंसान जो आज़ाद पैदा हुआ, पर किसी अजीब वजह से हर तरफ बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। जब उसने अपने अंदर से सामाजिक हर कुछ को त्याग दिया, तो वह पिचक गया और खाली, बेकार और बेबस हो गया। श्रम से सामाजिक बंधनों को अलग करते ही, एक छोर पर तो इंसानियत की बेकार पड़ी नाज़ुकी बँध गई, तो दूसरे छोर पर वस्तुओं को पाने के लिए माली हकों की जालिम सच्चाई भर रह गई। इसकी वजह से भारी तनाव पैदा हुआ, पर खुले मुक्त बाज़ार के नाम पर तनाव का स्रोत छिपा रह गया; इससे निकलने की कोशिश जितनी बढ़ी, उतना ही तनाव बढ़ता चला। बुर्ज़ुआ हमेशा आज़ादी की बातें करता रहा, क्योंकि वह हमेशा उसके हाथों से छूटती रही।54


बुर्ज़ुआ मान्यताओं के मुताबिक कुदरत निरंतर नियमों के जाल में बँधी हुई है जिसमें हर जगह लागू होने वाले जायदाद के हक लिखे हुए हैं। हर तरह की गतिकी इन नियमों की महज अभिव्यक्ति है। “इसके नतीजतन,” कॉडवेल ने लिखा, “इन क्षेत्रों में बुर्ज़ुआ विज्ञान का पहला काम यह हो जाता है कि वह ऐसे समूहों की मदद से बदलाव को समझाए, जिन्हें यह मानकर तैयार किया गया है कि दुनिया बदलेगी नहीं।”55

इस तरह से देखा जाए तो व्यक्ति में बदलाव मान्य है, यहाँ तक कि इसे अच्छी बात कहा जा सकता है। भ्रूण से पूरे परिपक्व शरीर तक की बढ़त को समाज के बारे में बुर्ज़ुआ धारणा को समझाने के लिए ढाला जा सकता है, ताकि “इंसान को बदलाव और तरक्की का स्रोत माना जा सके, उसकी ‘आज़ाद’ ख़्वाहिश जायदाद के उस परिवेश पर हावी हो, जो कानून का सम्मान करता है।” प्रजाति के स्तर पर होते बदलाव को जैसा डार्विन की किताब ‘द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़’ में है व्यक्तियों के बीच संघर्ष से उभरता हुआ दिखलाने की धक्कामार कोशिश की गई। विज्ञान की वैचारिक समझ की इसी जद्दोजहद से चुनाव के अलग-अलग चरणों पर आधुनिक बहसों की शुरुआत हुई। जैविकी के बदलाव के सिद्धांत के खास नियमों पर गौर करना कितना भी ज़रूरी क्यों न हो, उनकी भूमिका इन बहसों में कम ही थी।56

पर सूक्ष्म और स्थूल के बीच के आकार और उभार की राह पर निर्भर सिस्टम, के किसी भी विज्ञान के लिए ऐतिहासिकता और परस्पर कारण-कारक संबंध बड़े महत्वपूर्ण हैं; “बदलती परिघटना के पहले से तय एकीकरण से ही … बदलाव … होता है। अगर कोई नया गुण पहले से एक दूसरे को तय करते पिछले गुणों से नहीं उभरता है, तो यह सही-सही कह पाना मुश्किल है कि इससे पिछले गुणों में कोई बदलाव हो सकता है।” या फिर हम इस हल्के नतीजे पर पहुँचेंगे कि “सभी गुणों में कुछ एक जैसा है और जो उनसे पहले का है, (यानी) सामान्य बात यह है कि ‘दुनिया भौतिक स्वरुप में बनी है।’”57

फिर कॉडवेल तेजी से आगे बढ़ता है, और खुद को ज़बरन भ्रमजाल में फँसाने वाली बातों को उजागर करता है। जब बुर्ज़ुआ साइंसदाँ को जीव-जगत में परिवर्तन का सामना करना पड़ता है तो वह इसका सामान्य ‘कारण’ ढूंढता है बदलाव के नियम, बदलाव का एक जैसा ही स्वरुप कॉडवेल के मुताबिक ये पूँजीवादी वैचारिक आग्रह हैं : “बदलाव में ही बदलाव की वजह ढूँढने में बुर्ज़ुआ वैज्ञानिक यूँ उलझ जाता है कि वह बदलाव के ढाँचे की पड़ताल नहीं करता। चीज़ें जो हैं, उनके होने की वजह ढूँढना विज्ञान का जितना बड़ा काम है, बदलाव की व्याख्या ढूँढना उससे बढ़कर नहीं है।”58

आजकल कई जीवविज्ञानी देश-काल में ऐसी बदलती परिस्थितियों पर जोर देते हैं, जो खास नतीजों को बाँधे रखती हैं, पर अपनी तात्विक समझ (मेटाफिज़िक्स) को लेकर वे परेशान रहते हैं। कॉडवेल ने इस उलझन को बड़ी सहानुभूति से बखाना है: “चूँकि ऐसे सभी बदलावों को बुर्ज़ुआ दर्जों के चक्करों के अंदर समझा जाता है, वे विज्ञान की सर्वांगीण समझ नहीं पैदा करते, बल्कि उन्हें विशेष विज्ञान-विधाओं में जोड़ देते हैं, जिनमें से हरेक बुर्ज़ुआ-तत्व-मीमांसा (मेटाफिज़िक्स) और कुछ खास खोजों के समूह के बीच का एक समझौता पेश आता है।”59

कॉडवेल कहता है कि जीवविज्ञान के विविध पहलुओं से उभरते नतीजों का समन्वय इस समस्या का हल नहीं है, ऐसी ग़लत समझ संक्रामक रोगों के लिए एक सीमित स्वास्थ्य-बोध जैसे भौंड़े अनुमानों में देखी जाती है : “समस्या की जड़ यही है कि जीव-विज्ञान को भौतिक विज्ञान और समाज-शास्त्र से अलग एक बंद दुनिया की तरह देखा जा रहा है।”60 ऐसा करना चाहिए या नहीं और अगर करना है, तो किस हद तक ये खुले सवाल हैं। जैसे राजनैतिक-आर्थिक आलोचना में तिरछी दृष्टि (पैरालैक्स) पर कोजिन कारातानी और ज़ीज़ेक की चर्चा से पता चलता है, ऐसे फायदे के लिए कीमत चुकानी पड़ती है अध्ययन का लक्ष्य और लक्ष्य पर ध्यान डालने के लिए अध्ययन के हर क्षेत्र में ज़रूरी ज्ञान-मीमांसा से निकली समझ के बीच जो राफ्ता होना चाहिए, वह छूट जाता है।61

जीव-विकास-वादी भी ग़लत समझ के साथ मनोविज्ञान, समाज-शास्त्र, सौंदर्य-शास्त्र, अर्थशास्त्र, यहाँ तक कि स्वास्थ्य-विज्ञान तक को डार्विनियन विश्व-दृष्टि में एक साथ सँजो कर एक आम नज़रिया थोपने की कोशिश करते हैं। पर उनकी यह कोशिश सिद्धांत और व्यवहार दोनों तरह से ग़लत साबित हो चुकी है; विडंबना यह है कि इससे कॉडवेल का नज़रिया सही सिद्ध होता है। जिस तरह से आज विकासवादी मनोविज्ञान की प्रस्तावना होती है और जैसे इस पर काम किया जाता है, इसमें प्रागैतिहासिक युग के बाद से समूचे इंसानी तज़ुर्बे और बदलाव को दरकिनार कर दिया गया है। जैसा कि रोडविक वालेस और मैंने कहीं और लिखा है:

जीवविकास और जीव में जिस्मानी बदलाव के सवाल जहाँ एक दूसरे से जुड़ते हैं, वहीं से कई आम मनोविकारों में से कुछ की शुरुआत होती है; हममें से सबसे बेहतर सेहत वाले भी बड़ी कठिनाई से अपने में होने वाले बदलावों में, एक जाति के प्राणियों में विकास के नवाचार, मूल स्वभाव से अलग नए गुणों को अपनाना, सांस्कृतिक संस्कार जैसे चेतना के ऐतिहासिक स्रोतों को संयोजित कर पाते हैं। इस पैराडाइम का रोगी के इलाज पर सीधा असर पड़ता है और इससे धरती पर बड़े पैमाने पर बर्फ जमने के दौर के पाए जाने वाले जीवाश्मों में फँसी मनोवैज्ञानिक गड़बड़ियों के बारे में सही न पाए जाने वाले सिद्धांतों का ऐसा विकल्प भी निकलता है, जिसका परीक्षण किया जा सके … पिछले 10000 सालों में धरती पर फैलते रहे इंसानों ने जिन घटनाओं और स्थितियों को झेला है और कई तो अभी भी झेलते जा रहे हैं, इस सबके प्रभाव को ध्यान में रखकर ही इलाज़ किया जाना चाहिए; यह परिप्रेक्ष्य फानोन (1967/2007) और मेमी (1965) से अलग नहीं है।62


अगर नेपोलियन शान्योन और उनके पक्ष में बोलने वाले जीव–विकासवादी मनोविज्ञानियों से हमें कोई संकेत मिलता है, तो वह यही है कि उनका मकसद समूचे इतिहास को खत्म कर देना है, सचमुच सभी ऐतिहासिक संभावनाओं को खत्म कर देना है, बस एकमात्र सच्चे इतिहास को बचाना है, जो कि, वल्लाह क्या बात है, औपनिवेशिक और अब नव-औपनिवेशिक पैराडाइम में जा उभरता है।63 भ्रम में न रहें, उनके विचार विशुद्ध राजनैतिक प्रोजेक्ट हैं।



मेंडेल का शुद्धीकरण

यानी कॉडवेल को डार्विनवाद में “बुर्ज़ुआ दर्जों के चक्कर” के विरोधभासों में और-और फँसता-गहराता अधःपतन दिखता है। पर एंगेल्स के विचारों की तरह ही कॉडवेल भी उदारता दिखलाते हुए डार्विन के अपने डार्विनवाद पर कहता है,

बड़ी तादाद में खोजे जा रहे जैविकी-तथ्यों से यह अभी भी अछूता है। इसमें प्राणी को रूखे तरीके से परिवेश के बरखिलाफ नहीं खड़ा किया गया है, बल्कि जीवन के तंत्र को बाक़ी सच्चाइयों के साथ गड्डमड्ड होते हुए बहते देखा गया है … डार्विन ने बदलाव के जिस लाजवाब नुमाइश को, जीवन में इतिहास और द्वंद्व को, जिस तरह उजागर किया है, वह उसके अपने और उसके तुरंत बाद में आए हक्सली जैसे अनुयायिओं के लेखन में खौलती इंकलाबी ताकत भर देता है। जैविकी अब भी एकीकृत रह गई है, पर डार्विनवाद में पहले से ही वे विरोधाभास थे, जिससे उसका ढहना शुरू हो गया।64


विकासवादी जीवविज्ञानी अर्न्स्ट मायर के अनुसार डार्विन की प्रतिभा प्राणियों की जनसंख्या को समझने में दिखती है। उसकी खोज से हम जानते हैं कि सच्चाई प्राणी-संख्या की विविधता में दिखती है, न कि औसत संख्या या ठेठ जिस्मानी शक्ल और रूप जैसे रचनावादी निर्मितियों में।65 फोस्टर ने लिखा है कि कॉडवेल का खयाल है कि डार्विन के काम का महत्व इसके साथ ही "सह-विकास के परिपेक्ष्य की ओर इशारा करने में है। डार्विनवाद ने पहली बार लोगों को इतिहास के नज़रिये से देखना सिखलाया।”66

कॉडवेल ने ग्रेगर मेंडेल को इसी डार्विन के बरक्स तत्व-मीमांसात्मक (मेटाफ़िज़िकल) विलोम की तरह रखा। उसे मेंडेल की धार्मिक रूढ़ियों में जर्मन पूँजीवाद के खिलाफ बेचैन प्रतिक्रांतिमुखी प्रतिक्रिया दिखती है। “इसलिए", मेंडेल ने "विविधताओं पर अध्ययन को ऐसे मिजाज़ से देखा, जो बदलाव के खिलाफ था, और युक्ति और जानकारियों की शाश्वत सचाइयों पर निर्भर था, पर वह एक वैज्ञानिक भी था …। और जिस तरह अपनी इंकलाबी पूँजीवादी विचारधारा की वजह से, डार्विन की बुर्ज़ुआ मेधा ने बदलाव और इसके कारणों को ढूँढा, उसी तरह मेंडेल की मजहबी मेधा ने यह देखा कि बदलाव में क्या होना ज़रूरी है न बदलने वाला, वह जो बदलता है।”67

मेंडेल को शारीरिक लक्षणों में निहित जीनेटिक कारकों में यह दिखता है। यानी विविधता अपने आप नहीं उभरती, बल्कि पहले से तय होती है। हालाँकि हूगो द फ्रीस ने अपने विषय के अंदरुनी द्वंद्वों को सुलझाने के लिए जीन में संयोग से "बेतरतीब बदलाव" होने की प्रस्तावना रखी थी, पर इससे मेंडेल का शुद्धीकरण करते हुए आज़ाद सोच में डार्विनवाद को जड़ दिया गया; यह एक ऐसे भूत की तरह है जिस पर कॉडवेल ने कटाक्ष करते हुए कहा है, "जैविकी में रहस्यवाद का आविर्भाव ... किसी भी हाल में बुर्ज़ुआ की स्वत:स्फूर्तता को बचाना है।" यानी कि अपने पहले पाठ में कॉडवेल से जो नव-डार्विनवाद छूट गया लगता है, उससे सचमुच उसके द्वारा उजागर की गई निहित संरचनात्मक समस्या खत्म नहीं होती है।

कॉडवेल के विचारों को हाल के नए खयालों में ढालने वाली अपनी डेवलपमेंटल सिस्टम्स थीओरी वाली किताब लिखते हुए सूज़न ओमाया और साथी संपादकों ने दावा किया है कि ऐसी कोशिशें

कुदरत/परिवेश [या जीन/पर्यावरण या जैविकी/तहजीब] बहसों को सुलझाती नहीं हैं; इन कोशिशों से ये बहसें बढ़ती रहती हैं। इसकी आम मिसाल यह है कि किस तरह चुनौती मिलने पर वक्त के साथ बदलाव पर पारंपरिक विचार नई शक्लें अख्तियार कर लेते हैं और समकालीन अकादमिक और सामाजिक बहसों को और उलझा देते हैं। अगर अब हम यह नहीं पूछ सकते कि कोई बात सहज सूझ-बूझ से उभरी है या नहीं, तो हम पूछेंगे कि इसमें कोई मुख्य जीनेटिक उपादान है या नहीं। अगर यह बात भी न मानी जाए तो हम पूछेंगे कि इस बात के पीछे कोई जीन-जनित प्रवृत्ति है या नहीं।68


पर कुदरत बार-बार साथ न देने का रुख अख्तियार करती है। जीवविज्ञानी जो आँकड़े सामने लाते हैं, उससे घबराकर बुर्ज़ुआज़ी थोड़ी-थोड़ी देर में तत्व-मीमांसा में छिपने को दौड़ते हैं। थॉमस हंट मॉर्गन द्वारा फलों पर मँडराती मक्खीड्रोसोफिला पर किए गए प्रयोगों से प्राणी और परिवेश के भेद को काटा जा सकता है। कॉडवेल के लिए अब शक्ल में बदलाव जीन्स के इधर-उधर होने के अलावा दूसरे कारणों से होना स्पष्ट है:

  • फीनोटाइप वक्त के साथ बदलने में एक से ज्यादा जगहों पर आधारित होते हैं और किसी लकीर पर तय नियम पर नहीं चलते हैं।

  • जीन्स अमूर्त धारणा है। असल में जो कुछ होता है, वह संदर्भों पर निर्भर करता है, इसमें दूसरी जगहों और परिवेश के थोड़े वक्त वाले असर भी शामिल हैं।

  • अपने प्रसार में जीन्स गिने जा सकते हैं (डिजिटल), पर अपने असर में वे बिखरे हुए हैं और उनमें निरंतरता है (ऐनालोग)। इसलिए हमारी दुनिया में उनका असर उनके दूसरे जीन्स और इसके अलावा “परिवेश” में आनुवंशिकता के दीगर स्रोतों में गड्डमड्ड होने में ही दिखता है।

जीन्स का विज्ञान, जो प्राणी में मौजूद है, ऐसी ऐतिहासिक परिघटना बन जाती है, जिसे फीनोटाइप की पृष्ठभूमि और परिवेश के बरक्स खेलती उन अनिश्चितताओं में ढूँढना होगा, जो वक्त के मुताबिक अर्धसूत्री कोशिका-विभाजन (मेओसिस), फिर से जुड़ने, फिर से दर्जों में बँटने, डी एन ए से आर एन ए में आनुवांशिक जानकारी की लिपि की प्रति बनने (ट्रांस्क्रिप्शन), भिन्न प्रभावों से जीन के बनने (प्लीओट्रोपी), परिवेश के असर से कुछ ही पीढ़ियों में जीन्स में सतही बदलाव (एपिजेनेटिक्स) और जीवन की शुरुआत और वक्त के साथ बदलाव का साइंस (ओंटोजेनी), इन सब के एकसाथ आ मिलने से बनती हैं। नतीजतन, “प्राणी गुणधर्मों के ऐसे चीनी बक्सों जैसा बन जाता है, जो एक दूसरे में सिमट जाते हैं और अब बदलाव को बदलाव की तरह समझाने की ज़रूरत नहीं रह जाती है ... और अब जैविकी गुणधर्मों की भौतिक शृंखला को खोजने और तय करने के अपने असल मकसद की ओर बढ़ सकती है, जिसके हर कदम पर प्राणी और परिवेश ताना-बाना की तरह जुड़े हैं। 69

प्रयोगशाला हो या मैदान हो, द्वंद्वात्मकता को जो पश्चिम में बकौल कार्ल पॉपर, पीछे सुकरात, स्पिनोज़ा, रुसो और बाइबिल तक जाती है — व्यावहारिक रूप में जटिल राशियों के आयामों में समझा जा सकता है, जहाँ एक जगह बदलती राशियाँ दरअसल समांतर हो सकती हैं और कहीं और अचानक एक दूसरे के खिलाफ जा सकती हैं। पहले स्तर के बाद दूसरे स्तर के लक्षण भी दिखते हैं। यहाँ तक कि जिस स्पेस में हम इन रिश्तों को परखते हैं — जीन, प्राणी और परिवेश के बीच — उसमें भी बीच-बीच में बड़ा बदलाव हो सकता है।
देखने का जो ढाँचा हम तय करते हैं, उस मुताबिक एक ही गुण-राशि की दो खासियत हो सकती हैं। जैसे कोई ऑब्जेक्ट (या प्राणी या ईको सिस्टम) जब भौतिक या विकास की गति में होता है, तो वह किसी खास जगह में दिखता है और चूँकि वह गति में है, वहाँ ठहरता नहीं है। एंगेल्स के अनुसार, यह जो विरोधाभास साफ जाहिर है — होने और होते रहने की यह समग्र प्रक्रिया — इसी को हम जीवन कहते हैं।70 लगातार ग्रहण (और उससे खूबसूरती से निकलने) में ही हमारा होना है। कॉडवेल पर हम वापस लौटें — ऐसे रिश्तों का हिसाब रखने की बिल्कुल ईमानदार कोशिशों में भी एक रोड़ा परेशान करता है, क्योंकि

ऐसा है कि समकालीन जेनेटिक्स आज भी बुर्ज़ुआ तत्व-मीमांसा के धुँए में डूबा हुआ है (तब भी जब मूल बुर्ज़ुआ प्रोग्राम को मजबूरन यह छोड़ना पड़ा है)। एक मान्यता हमेशा पीछे से हावी रहती है, कि जीन में कोई बदलाव नहीं हो सकता है, कि परिवेश और प्राणी में फ़र्क है, और आनुवंशिकता और विविधता जीवन की सचाई की ऐसी खास चौंकाने वाली दुर्घटनाएँ हैं, जिनकी व्याख्या ज़रूरी है।71

इसकी ज्ञान–मीमांसात्मक (एपिस्टोमोलोजिकल) कीमत परेशान करती है: "व्यवहार में सभी मान्यताओं में लगातार विरोधाभास दिखते हैं; और इसलिए अपनी खोजों की व्याख्या करते हुए हर जेनेटिक्स-साइंसदाँ को शुरुआत मेें उस अवास्तविक मेटाफिज़िक्स से जूझने में कोशिशें जाया करनी पड़ती हैं, जो उसे उत्तराधिकार में मिली है।"

कॉडवेल को भ्रूण-संबंधी विज्ञान में भी ग़लत समझ दिखती है, जिसमें कुछ पीढ़ियों में जीन्स में सतही बदलाव (एपिजेनेटिक) और भ्रूण में प्राणी का सूक्ष्म स्वरूप मानते (प्री-फॉर्मेशनिस्ट) मतों के बीच के बुनियादी झगड़े शामिल हैं। बिल्कुल अलग-अलग वक्तों में ये मत सामने आए हैं और उनमें टकराव हुआ है, इससे यह जाहिर होता है कि ऐसा विरोधाभास मौजूद है, जिस पर बात हुई नहीं है। कॉडवेल इसे एक ही बुर्ज़ुआ चेहरे के दोमुँही शक्ल की तरह पेश करता है। एक तो जो यांत्रिक मॉडल पहले से तयशुदा प्री-फॉर्मेशनिस्ट बातों को "खारिज" करते हैं, वे खुद ही मान्यताओं को दरकिनार कर मकसद से होती तय व्याख्या में उलझ जाते हैं कि : “जब एक पूरा नाभि (न्यूक्लियस) पूरा आदमी नहीं बना सकता, तो कोई भी खास जीन या जीन्स का समूह, उपलब्ध सामग्री में से एक हाथ या हाथ का आकार या आँख कैसे बना सकता है?”

इसके पीछे जो तर्क हैं, वे एक दूसरे को बढ़ाते हैं, पर इससे इनका नुकसान ही होता है। मसलन, चोट लगकर नीली पड़ गई आँख एक प्री-फॉर्मेशनिस्ट के लिए प्राणी पर परिवेश के हावी होने से मिला गुण हो सकता है, जैसे कि जाहिरा तौर पर "स्वाभाविक” परिवेश से कोई नॉर्मल आँख नहीं मिल सकती हो। दूसरी ओर, एपिजेनेटिक्स के बरक्स, मानो चोट लगने की निहित प्रवृत्तियों का भी आँखों के नीली पड़ जाने के साथ कोई संबंध ही नहीं हो सकता है, भले ही विकासवाद के नियमों के मुताबिक चोट दिखनी ज़रूरी हो।

कारण-कारक नियम अब स्रोतों को अलग करने में से हट जाते हैं और जैसे एंगेल्स ने कहा है, होने और होते रहने की समग्र प्रक्रिया की व्याख्याएँ ढूँढने लगते हैं। "किसी भी पल के लिए प्राणी एक ही जैसा नहीं रहता है,” कॉडवेल ने लिखा; वह हमेशा बदलता रहता है, या तो वह वजूद में आता है, या मिटता रहता है अपने आप में नहीं, बल्कि होते रहने की प्रक्रिया के बाक़ी हिस्से के साथ अपने भरपूर रिश्ते में।" इसके उलट दुनिया के नियमों को समझने के लिए टुकड़े–टुकड़े कर देखने में — टुकड़ों में कत्ल करता हुआ — रिडक्शनिस्ट साइंसदाँ अपने तरीकों के चक्कर में फँसा रहता है:

यह जो होते रहने की बात हर जगह दिखती है, इससे हम [ग़लती से] चरम देश-काल की धारणा निकाल बैठते हैं और इसे परिवेश से अलग प्राणी में स्थापित कर देते हैं। इस तरह प्राणी में हो रहे बदलाव उसके अपने अजीब मामले हो जाते हैं, जिनका परिवेश से कोई रिश्ता नहीं रहता और इसलिए वे पहले से तय नहीं रह जाते हैं। फिर इस बदलाव की व्याख्या की ज़रूरत होती है। जाहिर है कि पहले से सभी धागों को तोड़कर हमने अपने लिए हल न किया जा सकने वाला एक सवाल ढूँढ लिया है। यह समझ पूरी तरह हमारी पद्धति से निकला है, बुर्ज़ुआ साइंस की पद्धति से।72

जब हम अभ्यास से मिली सहज समझ की जगह जैविकी में सामान्य नियम ढूँढते हैं, तो भ्रामक नियमित दुहराव दिखने लगते हैं, जो सरल ढंग से दिखती नियमितताओं में कुछ उजागर करने से ज्यादा छिपाते हैं: “भौतिक निर्धारक बिल्कुल एक जैसे प्राणियों की एक के बाद एक आने वाली कुछ पीढ़ियों के लिए पेंडुलम (दोलक) की ताल की तरह दुहराव दिखला सकते हैं। पर यह दुहराव अमूर्तन है। दोलक की हर ताल में फ़र्क होता है, और दोलक पहले तेज चलता है, फिर धीरे चलता है; वजह यही है कि उसे उसके परिवेश से अलग नहीं किया जा सकता।"73



रिश्ते ही सचाई हैं

जैसा कि लेवोन्तीन का सुझाव है, यह ज़रूरी नहीं है कि समस्या इस बात में हो कि जीवविज्ञानियों ने प्राणियों के लिए मशीन की उपमा का इस्तेमाल किया है, जिससे वाउकान्सों के कार्टीशियन बतख या फोर्डिस्ट कंपनी की असेंबली लाइन से, पंख जैसी हल्की, सफाई करने की वैक्यूम क्लीनर मशीनें बन कर निकलती हों। कॉडवेल ने उड़ान पर पाँच किताबें छापी थीं और एक पेटेंट भी लिया था। उड़ान के विज्ञान पर उसकी गहरी समझ से हम यह देखते हैं कि वैज्ञानिकों ने इस उपमा का कबाड़ा कर दिया है, क्योंकि मशीनें ऐसी होती नहीं हैं, जैसा अमूमन उनके बारे में हम सोचते हैं: “कोई भी मशीन किसी इंसान की योजनाओं या मकसद को सही-सही कभी भी पूरा नहीं करती है। हर मशीन चाहत और ज़रूरत के बीच एक समझौता है। यही नहीं, समझौता करने के बाद जिस मकसद को मशीन पूरा कर पाती है, उससे उसे बनाने वाले के दिमाग पर असर पड़ता है, और उसके भविष्य के लक्ष्य और नई मशीनें इस बात से तय होते हैं कि उसने मशीन के साथ काम करने के बारे में क्या कुछ सीखा है। इसलिए मशीन महज उसके ज़हन की गुलाम नहीं है, वह उसे सिखाती है, हालाँकि वही उसे चलाता है।"74

मशीनें डिज़ाइनों के मुताबिक लगातार बनती-बिगड़ती रहती हैं और हरेक का अपना एक इतिहास होता है: “कोई मशीन ऐसी नहीं होती कि उसमें कोई बदलाव न होता हो वह थक जाती है, पुरानी पड़ जाती है और खराब हो जाती है। ये 'दोष' या बदलाव उसे बनाने वाले के मकसद या 'प्लान' का हिस्सा नहीं हैं, ... फिर भी ये 'जादुई' घटनाएँ नहीं हैं। इन सभी खामियों की वजहें होती हैं, और जब ऐक्सल टूटता है या प्लग में तेल आ जाता है, हम इनकी वजह ढूँढते हैं, ... हम प्लान के बाहर कहीं इन समस्याओं के निर्धारक ढूँढते हैं। "मशीनों की तरह प्राणी भी "बुर्ज़ुआ वर्ग की इकट्ठा हो चुकी चाहतें" नहीं हैं। हाकिम जमात की विचारधारा में ऐसे भ्रम हमेशा पाए जाते हैं। उनका खयाल यही होता है कि सचाई का स्वरूप जैसा भी हो, अपनी इच्छा को ज़बरन दूसरों पर थोपकर ही आज़ादी मिलती है। इस खास भ्रम की वजह वर्ग-आधारित समाज की वह खास फितरत है, जिसमें वस्तु पर मालिकाना-हकों की मदद से प्रभुत्व बनता है और इसमें मशीन का बनना भी जुड़ा हुआ है।"75

अगरचे कोई बुर्ज़ुआ साइंसदाँ इन उपमाओं की वर्ग-जनित सीमाओं को समझ पाता (पाती) तो वह "समझ जाता (जाती) कि वह महज अमूर्त वैज्ञानिक ही नहीं है, बल्कि ठोस बुर्ज़ुआ वैज्ञानिक है।"76

इस तरह की वैज्ञानिक चेतना से, अकादमिक बाज़ार को चलाने वाली आसानी से मिले अनुदानों से हो रही छोटी-मोटी खोजों से अलग हटकर, नई बड़ी खोजें करने का उत्साह बढ़ता है। यहाँ तक कि जटिल सवालों को टुकड़ों में बाँटकर देखने का सरलीकरण भी तब ऐसे लक्ष्यों की ओर जाने की राह बन सकता है। कई तरीकों से देख पाने से एक बड़े मकसद तक जा पहुँचने में मदद मिलती है, जो कि सूक्ष्म टुकड़ों में देखना – ऐटमिज़म, और पूरे स्वरूप में ही देखना – होलिज़्म, दोनों ही तरीकों से बचकर ईमानदार वैज्ञानिक खोज करने का आधार है : “कोई भी चीज़ अपने टुकड़ों के जोड़ से कुछ ज्यादा ही होती है, क्योंकि एक चीज़ की तरह हमारा उसे देखना इस – नए गुण - पर निर्भर करता है कि बाक़ी सचाई के साथ उसके नए रिश्ते कैसे हैं। गुणों के ऐसे "पड़ाव" अपने नएपन और जटिलताओं में विविधता लिए होते हैं। बाक़ी कायनात का सामना करते हुए उनके 'साथ' और 'अलग' खड़े होने के रिश्ते में फ़र्क में कुछ पड़ाव औरों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।"77

आबोहवा में बदलाव, नए किस्म की बीमारियों का प्रकट होना और खाद्य उत्पादन — इन समस्याओं के हल ढूँढने में क्या कोई और समझ इससे ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? यह ज़रूरी नहीं है कि द्वंद्वात्मक सोच केवल एक पार्टी का मंच या राजनैतिक प्रोग्राम हो — काश कि ऐसा होता — बल्कि यह इंसानियत के सामने खड़ी गंभीर समस्याओं से जूझने का आलोचनात्मक तरीका है। और इसके लिए हमें नमूने के आँकड़े इकट्ठे करना और सांख्यिकी के आधार पर नतीजों पर पहुँचना छोड़ देना ज़रूरी नहीं है।"

इसलिए कॉडवेल ने सब कुछ दाँव पर लगा दिया। जैसी भी ग़लतियाँ रही हों, जीवविज्ञानी और मार्क्सवादी दोनों एक ही तरह कॉडवेल के परिवर्तनकामी परिप्रेक्ष्य को नहीं समझ पाएँगे, जिसमें (अपने वक्त में मिलते स्रोतों से लिए) वैज्ञानिक आँकड़े और ज्ञान का स्वरूप तक शामिल किए गए हैं। जैसा थॉम्पसन ने आखिर में लिखा है:

एक अमूर्त नियम की तरह यह कहना एक बात है कि सभी पदार्थ, समाज और संस्कृति आपस में जुड़े हैं और वे एक दूसरे की नियति तय करते हैं; और यह कोई और बात है कि हम इसे परखें या इस पर बहस करें कि ये सब किस तरह की घटनाओं को आगे लाते हैं या क्या कुछ तय कर जाते हैं; और कुछ और बात है कि उस समझ को अपने सैद्धांतिक ज़हन की निजी दुनिया तक ले जाएँ और यह कह सकें कि हो सकता है कि सिद्धांत खुद "ज़हन के बाहरी हिस्सों की चमड़ी पर असर डालती "गर्माइश" से बन सकते हैं।" ऐसा कहा जा सकता है कि यह "पराई ज़मीनों" पर "उछलते घुसपैठ" की मिसाल है, (हालाँकि) अजीब बात है कि कॉडवेल खुद यांत्रिक भौतिकतावाद और निश्चयात्मकता के खिलाफ मुस्तैदी से, और बार–बार बहस करता है।78

भविष्य की राह दिखलाने वाला यह रचनावादी प्रत्यक्षतावाद (फ्यूचरिस्टिक कन्स्ट्रिक्टिविस्ट इंपिरिसिज़्म) डरावना तो है, खास तौर पर अपने छोटे–से आलेख में जहाँ कॉडवेल तीखे तेवर के साथ इक्कीसवीं सदी की जैविकी की समस्याओं की पहचान करता है।

मारक कल्पना

तो ख़ारामा की जंग के उस पहले दिन बेकेट और कॉडवेल, इन दो दोस्तों ने पीछे हटते ब्रिटिश सिपाहियों को आड़ दी (मशीन–गन से कवर किया)"क्लेम बेकेट और क्रिस्टोफर सेंट जॉन स्प्रिग ने अपने साथियों को थोड़ी और देर की मुहलत मुहैया करवाई,” बेन ह्यूज़ ने लिखा है,

पीछे हटने के हुक्म को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने अपनी चौचाट मशीन–गन को जमाया ... सारी दोपहर वे उसका पुरअसर ढंग से इस्तेमाल करते रहे। जल्दी ही दुश्मन के पहले सिपाही सामने आ गए। फ्रैंक ग्रेहम ने यह सोचते हुए कि उन पर क्या गुजरने वाली है, रुककर देखा कि बेकेट और स्प्रिग ने गोलियाँ चलाईं। कई मूर (मोरक्को से आए भाड़े के सिपाही) गिर पड़े, पर मशीन–गन जाम हो गई। ग्रेहम की आँखों के सामने वे बेधड़क मशीन की मरम्मत में जुट गए। पर दुश्मन ने हमला बोला। ग्रेनेड उछालते हुए वे करीब आ गए और फिर उन्हें संगीनों और छुरों से मार डाला।79

कॉडवेल के न रहने से जैविकी को और बेकेट की मौत से खेल की दुनिया को बेहद नुकसान पहुँचा। बेहिसाब हुनर वाले इन दो नौजवानों की मौतें, एक की उनतीस (कॉडवेल) और दूसरे की तीस (बेकेट) की उम्र में (और उसी दिन बाईस की उम्र में कवि चार्ल्स डॉनेली की मौत), त्रासदी और बर्बादी के अलावा और क्या कहला सकती हैं। उस पठार पर रह गई अधूरी किताबों के फड़फड़ाते पन्ने कई बेचैन चौंधियाते ज़हनों की पहचान थे।

स्पेन के हक में लड़ने वाले — कोई बात है कि जो बच गए उन्हें 'फासीवाद विरोधी नासमझ' मान कर दूसरी आलमी जंग में जाने से रोका गया — वे हमें बड़ी और खौफनाक सीख देते हैं: "जब भले लोगों पर दानवों का हमला हो, हुनरमंदों में से सबसे काबिल ज़हन भी बलि चढ़ते है, भारी नुकसान होता है। हम सशस्त्र फासीवादियों से बहस नहीं करते। हम उनकी ओर उँगलियाँ नहीं उठाएँगे। या समीकरण लिखकर उन्हें कहीं और नहीं धकेलते। हम लड़ेंगे।"

Notes

  1. Ben Hughes,They Shall Not Pass! The British Battalion at Jarama—The Spanish Civil War (Oxford: Osprey, 2011).

  2. Jason Gurney,Crusade in Spain (London: Faber and Faber, 1974), 112–13.

  3. Franc Myles, “Jarama: Remembering a Battlefield,”IPMAG Newsletter 7 (2009): 11–15, http://ipmag.ie.

  4. Gurney,Crusade in Spain, 113–14.

  5. Tom Wintringham,English Captain (London: Faber and Faber, 1939).

  6. John Simkin, “Clem Beckett,” Spanish Civil War Encyclopaedia, 2012, http://spartacus–educational.com.

  7. Graham Stevenson, “Clem Beckett,” Compendium of Communist Biography, http://grahamstevenson.me.uk.

  8. Stevenson, “Clem Beckett.”

  9. Simkin, “Clem Beckett.”

  10. Jean Duparc and David Margolies, “Introduction,” in Christopher Caudwell,Scenes and Actions: Unpublished Manuscripts, ed. Duparc and Margolies (London: Routledge and Kegan Paul, 1986), 3.

  11. Christopher Caudwell,Studies and Further Studies in a Dying Culture (New York: Monthly Review Press, 1971), 72.

  12. Duparc and Margolies, “Introduction,” 1–28; E. P. Thompson, “Caudwell,”Socialist Register 1977 (New York: Monthly Review Press, 1976), 228–76.

  13. Duparc and Margolies, “Introduction,” 12.

  14. Duparc and Margolies, “Introduction,” 15.

  15. John Bellamy Foster,Marx’s Ecology (New York: Monthly Review Press, 2000), 11.

  16. Thompson, “Caudwell,” 234.

  17. Christopher Caudwell, “Heredity and Development,” in Duparc and Margolies, eds.,Scenes and Actions.

  18. Raymond Williams,Culture and Society: 1780–1950 (New York: Columbia University Press, 1958), 272; Terry Eagleton, “Raymond Williams—An Appraisal,”New Left Review 95 (1976): 3–23; J. D. Bernal, “The ‘Caudwell Discussion,'”Modern Quarterly 6, no. 4 (1951): 346–50; Thompson, “Caudwell”; Helena Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science (Amherst, NY: Prometheus, 1993), 350–83.

  19. Duparc and Margolies, “Introduction,” 27–28.

  20. Richard Levins and Richard Lewontin,The Dialectical Biologist (Cambridge, MA: Harvard University Press, 1985).

  21. Caudwell, “Heredity and Development,” 163.

  22. W. B. Provine,The Origins of Theoretical Population Genetics (Chicago: University of Chicago Press, 2001).

  23. W. J. Ewens,Mathematical Population Genetics, second ed. (New York: Springer, 2004), 3.

  24. Lee Smolin,The Life of the Cosmos (Oxford: Oxford University Press, 1999).

  25. Caudwell, “Heredity and Development,” 164–65.

  26. Frederick Engels,Anti–Dühring (New York: International Publishers, 1970); Rob Wallace, “Darwin’s Simulacrum,” Farming Pathogens blog, August 10, 2009, http://farmingpathogens.wordpress.com.

  27. Caudwell, “Heredity and Development,” 165, 170.

  28. Caudwell, “Heredity and Development,” 165.

  29. Caudwell, “Heredity and Development,” 166.

  30. Adrian Desmond and James Moore,Darwin: The Life of a Tormented Evolutionist (New York: Norton, 1994).

  31. Caudwell, “Heredity and Development,” 166.

  32. Antonio Negri,Political Descartes (London: Verso, 2007); Bertolt Brecht,Life of Galileo (London: Penguin, 2008).

  33. Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 357–60.

  34. Stephen Jay Gould,The Structure of Evolutionary Theory (Cambridge, MA: Belknap/Harvard University Press, 2002).

  35. Caudwell, “Heredity and Development,” 171.

  36. Caudwell, “Heredity and Development,” 171.

  37. Karl Marx,The Eighteenth Brumaire of Louis Bonaparte (New York: International Publishers, 1994), 15.

  38. Caudwell, “Heredity and Development,” 171.

  39. Caudwell, “Heredity and Development,” 172.

  40. Mark E. Borello,Evolutionary Restraints (Chicago: University of Chicago Press, 2010).

  41. Caudwell, “Heredity and Development,” 172.

  42. Richard Lewontin,The Triple Helix (Cambridge, MA: Harvard University Press, 2002), 47.

  43. Slavoj Žižek,The Parallax View (Cambridge, MA: MIT Press), 157.

  44. Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 366; Foster,Marx’s Ecology, 249.

  45. Caudwell, “Heredity and Development,” 180.

  46. Nassim Nicholas Taleb,The Black Swan (New Yok: Random House, 2007).

  47. Caudwell, “Heredity and Development,” 182.

  48. C. H. Waddington, “Genetic Assimilation,”Advances in Genetics 10 (1961): 257–90.

  49. Maurice Godelier,The Mental and the Material (London: Verso, 1986).

  50. Caudwell, “Heredity and Development,” 174–75.

  51. Caudwell, “Heredity and Development,” 177–78.

  52. Caudwell, “Heredity and Development,” 178.

  53. Slavoj Žižek,Less Than Nothing (London: Verso, 2012).

  54. Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 355–56.

  55. Caudwell, “Heredity and Development,” 184.

  56. Rob Wallace, “Eat Prey Love,” Farming Pathogens blog, May 7, 2012, http://farmingpathogens.wordpress.com.

  57. Caudwell, “Heredity and Development,” 185–86.

  58. Caudwell, “Heredity and Development,” 186.

  59. Caudwell, “Heredity and Development,” 187.

  60. Caudwell, “Heredity and Development,” 187; Robert G. Wallace et al., “The Dawn of Structural One Health: A New Science Tracking Disease Emergence along Circuits of Capital,”Social Science and Medicine 129 (2015): 68–77.

  61. Žižek,The Parallax View; Kojin Karatani,Transcritique(Cambridge, MA: MIT Press, 2005).

  62. Robert G. Wallace and Rodrick Wallace, “Evolutionary Radiation and the Spectrum of Consciousness,”Consciousness and Cognition 18 (2009):160–67.

  63. Elizabeth Povinelli, “Tribal Warfare,”New York Times, February 15, 2013.

  64. Caudwell, “Heredity and Development,” 187–88.

  65. Ernst Mayr,The Growth of Biological Thought: Diversity, Evolution, and Inheritance (Cambridge, MA: Belknap/Harvard University Press, 1982), 45–47.

  66. Foster,Marx’s Ecology, 248.

  67. Caudwell, “Heredity and Development,” 188.

  68. Susan Oyama, Russell D. Gray, and Paul E. Griffiths, eds.,Cycles of Contingency(Cambridge, MA: MIT Press, 2001), 1.

  69. Caudwell, “Heredity and Development,” 191.

  70. Engels,Anti–Dühring, 91, 132.

  71. Caudwell, “Heredity and Development,” 191.

  72. Caudwell, “Heredity and Development,” 196.

  73. Caudwell, “Heredity and Development,” 196.

  74. Caudwell, “Heredity and Development,” 197.

  75. Caudwell, “Heredity and Development,” 198.

  76. Caudwell, “Heredity and Development,” 199.

  77. Caudwell, “Heredity and Development,” 201.

  78. Thompson, “Caudwell,” 239–40.

  79. Hughes,They Shall Not Pass!, 106.

*आई आर ए – आइरिश रिपब्लिकन आर्मी

#द किंडर ट्रेसपास : अप्रैल 1932 में 400 से ज्यादा लोग किंडर स्काउट नामक दलदली पठार में गैरकानूनी ढंग से घुस गए।

रूसी वैज्ञानिक त्रोफिम लाइसेंको समकालीन जीनेटिक्स के खिलाफ था और उसने इसके खिलाफ मुहिम छेड़ी थी (- अनु०)

§द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़ विकासवाद पर चार्ल्स डार्विन की प्रसिद्ध किताब

*ब्रिटेन में रुढ़िवादी मूल्यों का जमाना (उन्नीसवीं सदी – रानी विक्टोरिया का शासनकाल)

#कॉर्न लॉ-ज़ (अनाजरोक कानून): 1815 से 1846 के बीच यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) में अनाज के आयात पर लगाई गई रोक (–अनु०)

जाक्स द वाउकान्सों ने 1739 में ऐसा नकली बतख बनाया था, जो नुमाइशी तौर पर अनाज के दाने खाता और बीट करता था।फोर्डिज़्म : बड़े पैमाने में एक जैसा सामान बनाने वाली औद्योगिक व्यवस्था पर आधारित आधुनिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था

23

Comments

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...