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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, February 05, 2010

लोग ही चुनेंगे रंग

शिल्पायन प्रकाशन से मेरा ताजा कविता संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग' प्रकाशित हुआ है। शनिवार को साढ़े चार बजे दिल्ली पुस्तक मेले में शिल्पायन के स्टाल (हाल १२) में लोकार्पण है। प्रो. मैनेजर पांडे पुस्तक का विमोचन करेंगे। पहली बार मेरे किसी संग्रह का विमोचन हो रहा है। जो भी आस पास हों, ज़रुर आएँ।

कविता संग्रह प्रकाशित करना बड़ा मुश्किल काम है। खास तौर पर मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, जो साहित्य की मुख्य धारा से पेशेगत रुप से कटा हुआ है। यह संग्रह भी कुबेर दत्त जी के प्रयास से ही सामने आ रहा है। मैं संयोजन तक ढंग से नहीं कर पाता हूँ। भारत भूषण तिवारी ने काफी समय लगाकर कविताओं को क्रम में सजाया और फार्मेट ठीक किया।

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पिछले हफ्ते करन थापर के Devil's Advocate प्रोग्राम में बिनायक सेन का साक्षात्कार देखा और दंग रह गया कि उच्च वर्गों का प्रतिनिधि मीडिया कर्मी करन थापर विश्व स्तर पर सम्मानित चिकित्सक और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के साथ कितने फूहड़पन से पेश आता है। न केवल वह बिनायक को बोलने नहीं दे रहा था, जबरन विषय को बदलते हुए माओवादियों पर लाने की कोशिश में वह बिनायक पर ही इल्जाम लगाता रहा कि वह विषय पर नहीं बोल रहे! सच यह है कि संपन्न वर्गों के लोगों की ऐसी उद्दंडता देखने के बाद भी इस देश की बहु संख्यक जनता आक्रोश से फूट नहीं पड़ती, यह चमत्कार है।

6 Comments:

Blogger Aniket said...

आपके तीसरे कविता संग्रह के प्रकाशन पर बधाई! हैदराबाद में कहाँ से इसे खरीदा जा सकता है, बताएँ.

बिनायक सेन के साक्षात्कार को मेरे विचार से आप गलत तरीके से देख रहे हैं. इसे उच्च-निम्न वर्ग के प्रिज़्म से नहीं देखा जाना चाहिए. 'मैं माओवादियों की हिंसा के खिलाफ हूँ', इस आशय का कोई statement प्रश्न के उत्तर में बिनायक सेन साफ़ तौर पर पहले ही दे देते, तो बात आगे बढ़ जाती. दुःख की बात सही, पर इस देश की मीडिया को देखने वाली जनता की सच्चाई कुछ ऐसी ही है कि बिनायक सेन जैसे सच्चे देशप्रेमी को इस तरह की बात बोलने कि ज़रुरत है.

रही बात करन थापर के विषय बदलने की, तो यह बिनय सेन की पब्लिक मीटिंग नहीं, करन थापर का interview था. करन के सवाल जा जवाब बिनायक को देना चाहिए था. संतोषजनक उत्तर मिलने पर बात आगे बढ़ जाती, और मुझे पूरा यकीन है कि आगे के सवालों में बिनायक सेन को अपनी बात कहने का पूरा मौका मिलता.

करन थापर का रवैया सब से ऐसा रहता है, चाहे बिनायक सेन हों, या नरेन्द्र मोदी. बाकी और लोगों के मुकाबले बिनायक सेन से वह थोड़ा नरमी से ही पेश आया था.

11:31 AM, February 05, 2010  
Blogger लाल्टू said...

प्रिय अनिकेत,
क्या मैं तुम से अपेक्षा कर सकता हूँ कि तुम अपने ब्लाग पर टिंबक्टू की कविता पर टिप्पणी लिखो? बिनायक सेन माओवादियों के पक्ष या विपक्ष में कहे, यह अपेक्षा तुम्हारी क्यों है? वह तो देश के आम लोगों में पौष्टिक भोजन खा पाने लायक क्षमता के अभाव पर बात कहना चाहता है, इसी क्षेत्र में उसका अनुभव है - तुम्हारे, मेरे या करन थापर की अपेक्षाओं को पूरा करने की माँग हम उससे कैसे कर सकते हैं?
अनिकेत, संभवतः तुम्हें अंदाजा नहीं है, तुम किसके बारे में बात कर रहे हो, 'यह बिनय सेन की पब्लिक मीटिंग नहीं,..' तुम्हारी भाषा यह बतला रही है कि तुम पूर्वाग्रह ग्रस्त हो। बिनायक सेन पब्लिक मीटिंग मीटिंग नहीं करता, यह अलग बात है कि अपने क्षेत्र में काबिलियत कायम करने की वजह से देश के तमाम सार्वजनिक सभाओं में उसे बुलाया जाता है। 'करन थापर का interview था' - यह तुम्हें किसने कह दिया। करन थापर का नहीं, यह बिनायक सेन का इंटरविउ था, करन थापर एक सामान्य मीडिया कर्मी है, जिसे बिनायक जैसे महान आदमी का साक्षात्कार करने का मौका मिला।
'चाहे बिनायक सेन हों, या नरेन्द्र मोदी... ' मुझे अफसोस है कि एक काबिल चिकित्सक और प्रबुद्ध व्यक्ति और एक बदनाम अपराधी राजनैतिक व्यक्ति में फर्क तुम्हें नहीं दिखता। यही कह सकता हूँ कि शिक्षा और काबिलियत के बारे में हम दोनों की समझ अलग है।
दक्षिणपंथी या वामपंथी - दोनों ही ओर एक आम समस्या है; ज्ञान और मेधा का सम्मान करने की सामान्य धारणा हमारे समाज के संपन्न वर्गों में से गायब होती जा रही है। यह इन वर्गों के सड़न की परिचायक है। इसलिए परिवर्त्तन तो होगा ही, जैसा मैंने कहा चमत्कार यह है कि वह इतना धीरे हो रहा है।

11:56 AM, February 05, 2010  
Blogger Bhaswati said...

I couldn't watch the interview, but I read the transcript, which itself repulsed me. I was just as horrified as you to see Karan Thapar badgering Binayak Sen into saying the same thing over and over again:that he didn't support any violence--by or against the state.

At the end of it, I wondered what the point of the whole exercise was. Was it just to humiliate a man of such stature on television? After all, he was never allowed to speak on what the nation really needed to hear--the issue of displacement and deprivation of the poorest of poor in India.

12:40 AM, February 06, 2010  
Blogger प्रदीप कांत said...

आपके तीसरे कविता संग्रह के प्रकाशन पर बधाई!

10:40 PM, February 07, 2010  
Blogger Ek ziddi dhun said...

Media ki mukhydhara janvirodhi hai aur is nate deshdrohi bhi hai. apka sangrah kerala se lautte hi le liya jayega.

2:07 PM, February 09, 2010  
Blogger L.Goswami said...

This comment has been removed by the author.

8:14 PM, February 17, 2010  

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