Tuesday, November 05, 2024

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित)

'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण!1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हूँ। मैं उससे कभी नहीं मिला। उसकी मौत (2014) के एक-दो साल पहले सोचता रहा कि मिलना है और मुमकिन हो तो एक उपन्यास अनुवाद करना है, पर नहीं हो पाया। अपने ही जैसे अराजक (एनार्किस्ट) फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक पर बात रखते हुए नबारुण क्या अपने ही बारे में कुछ कह रहा था? एक रचनाकार किस हद तक गुस्सा हो सकता है? हिन्दी कविता में रेटरिक के दौर में धूमिल से आलोक धन्वा तक की कविताओं में आक्रोश दिखता है, पर समाज और राजनीति पर वह कविता शालीनता के संस्कारों में बँधी रहकर चाबुक चलाती है। जैसा गुस्सा अमेरिका के काले रचनाकारों ने और मराठी में दलित रचनाकारों ने साहित्य के हर मानदंड को तोड़ते हुए दिखाया है, उसका शिखर बांग्ला के नबारुण में है। फ़र्क बस इतना है कि अपना गुस्सा ज़ाहिर करते हुए हम अक्सर किसी और के प्रति संवेदना खो बैठते हैं, नबारुण में भी यह कमज़ोरी है, पर औरों के बनिस्बत बहुत कम। इमामु अमीरी बराका 'Black Dada Nihilismus' में लिख देते हैं - “Rape the white girls. Rape / their fathers. Cut the mothers' throats.” काली2 स्त्री रचनाकारों को इसके खिलाफ कहना पड़ा। नबारुण का 'पुरंदर भाट' कहता है 'मोटकी सब, पेपसी सुड़क-सुड़क पीती / इत्ता बड़ा पाछा और उत्ती फैली छाती।' गुस्सा किसी के 'मोटकी' होने पर नहीं, भुखमरी के मुल्क में सुड़ककर पेपसी पीने वालों पर है, जो मेरा भी गुस्सा है, हर ग़रीब का गुस्सा है। भले ही कम हो, ऐसी कमज़ोरी दिखती है तो लगता है कि अपनी कमज़ोरी देख रहा हूँ। इसलिए कई शिकायतों में पहली दर्ज़ है - नहीं नबारुण, ऐसे नहीं। उन्नीस की उम्र के बाद से मैं कोलकाता के बाहर ही रहा, कभी-कभार वापस जाना होता था। इसलिए मैंने उसे देर से जाना। साल 2003 में चंडीगढ़ में दोस्त शांतनु बासु से 'कांगाल मालसाट' उपन्यास लिया था, पढ़कर समझ में कम आया, पर लगा कि मेरा अपना गुस्सा कागज़ पर उतारने वाला कोई है। उसके उड़ने वाले किरदार 'फताड़ू' (बांग्ला में फैताड़ू) मेरे ही अक्स जैसे थे। पुरंदर भाट उस ज़बान में तुकबंदी करता है, जिसमें कॉलेज में पढ़ते हुए हम किया करते थे, और आज भी मन की गहराई में कहीं करते रहते हैं। 'भाट' पारंपरिक लोक-गायकों के एक समुदाय का नाम है, जो हुक्मरानों की स्तुति में गाया करते थे। बांग्ला में 'भाट' बकवास को भी कहते हैं। 'पुरंदर' इंद्र को कहते हैं, पर इसका शाब्दिक अर्थ है पुर या संरचनाओं को तोड़ने वाला। बहरहाल, 'कांगाल मालसाट' पढ़ने के बाद से मैंने जितना उसे जाना, प्यार के समंदर में डूबता रहा। 2013 में हैदराबाद में महाश्वेता से मुलाक़ात हुई तो प्रणाम करते हुए खुशी इस बात की भी थी कि नबारुण की माँ से मिल रहा हूँ। हिन्दी में नबारुण को 'यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं है' कविता से जाना जाता है, हालाँकि उसका एक उपन्यास, ‘हर्बर्ट', हिन्दी में अनूदित हुआ है। हिन्दी-इलाक़े क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों में कहीं ज़्यादा बड़े हैं, पर बांग्ला में हिन्दी की तुलना में कहीं ज़्यादा तादाद में उपन्यास लिखे जाते हैं। किताब बन कर आने से पहले, आम पत्रिकाओं में धारावाहिक, और वार्षिक संस्करणों में पूरे, छपने वाले ये उम्दा उपन्यास ज़्यादातर यथार्थपरक और सामाजिक सवालों पर लिखे होते हैं। कभी-कभार किसी रचना में औरों से बिल्कुल अलग किस्म की शैली दिखती है। नबारुण की शैली महज बांग्ला या हिन्दुस्तानी अदब ही नहीं, बल्कि आलमी पैमाने पर अनोखी है। सच कहा जाए तो उसके लिए नोबेल जैसा पुरस्कार भी छोटा पड़ता है। यह बात उसकी कविता के बारे में नहीं कही जा सकती। कविता में वह पारंपरिक शैली में क़ैद था। वैचारिक बातें उसके अपने वक्त की हैं, पर '... मौत की घाटी ...' में अपने से आधी सदी पहले के युवा कवि सुकांत भट्टाचार्य (20 साल की उम्र में जिसकी मौत हुई) की इन पंक्तियों को ही वह आगे बढ़ाता है - ‘ए देशे जन्मे पदाघात-ई शुधू पेलाम बारे बारे' (इस मुल्क में जनमा तो बार-बार सिर्फ लताड़ ही खाई)। हालाँकि '... मौत की घाटी ...', दुनिया के किसी भी मुल्क के बारे में हो सकती है, इसलिए बेशक यह एक लाजवाब नज़्म है। आगे बात रखने से पहले इस कविता को पढ़ लिया जाए। 
 यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं
 (हमें खून और कुर्बानी से आज़ादी मिली है और इसी से इसकी धड़कन लगातार कायम है। हमने समझ-बूझ कर कुरबानियाँ दी हैं : यह महज एक किश्त है जो हमारी आज़ादी की बुनियाद के लिए है। - चे) 

 जो बाप अपने बच्चे की लाश की शिनाख़्त करने से घबराता है 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
जो भाई अब भी बेशर्म बेपरवाह बैठा है 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
जो अध्यापक, बुद्धिजीवी, कवि और क्लर्क सामने आकर इस क़त्ल का बदला नहीं माँगता 
 मुझे उससे नफ़रत है ... 
 आठ लाशें होश की राह घेरे लेटी हुई हैं 
मैं बदहवास हो रहा हूँ 
आठ जोड़ी खुली आँखें नींद में मुझे देखती हैं 
मैं चीखता उठ पड़ता हूँ 
वे नीम अँधेरे मुझे बाग़ में बुलाती हैं हर वक्त 
मैं पागल हो जाऊँगा खुदकुशी कर लूँगा 
जो मर्ज़ी करूँगा 
कविता लिखने का यही वक्त है 
इश्तहारों में दीवार पर या कि स्टेन्सिल पर 
अपने खून, आँसू, हड्डियों से कोलाज की तरह 
अभी कविता लिखी जा सकती है 
बेइंतहा पीर और छिन्न-भिन्न शक्ल 
 (पुलिस) वैन की हेडलाइट की चौंधियाती रोशनी में नज़र अडिग रखे
 तशद्दुद से मुखातिब ... 
अभी कविता उछाली जा सकती है 
.38 और और-भी जो कुछ हत्यारे के पास है 
सब नामंज़ूर कर अभी कविता पढ़ी जा सकती है 
 बर्फीली चट्टान जैसे लॉक-अप के कमरे में 
शवपरीक्षा की गैस वाली रोशनी को झकोरती 
हत्यारे की चलाई अदालत में झूठ 
और अनपढ़ता के मदरसे में शोषण 
और ज़ुल्मों की सत्ता की मशीनरी में 
फौजी और दीवानी अधिकारियों के सीने पर 
कविता में विरोध गूँज उठे 
(बांग्ला) देश के कवि भी लोर्का की तरह तैयार रहें 
हत्याएँ, दम घुटकर मरने और लाशें गायब होने के लिए
स्टेनगन की गोलियों से छने जाने को तैयार रहें 
फिर भी कविता के गाँवों का 
कविता के शहर को घेर लेना बहुत ज़रूरी है 
 यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं
 ख़ूं से नहाया यह कसाईखाना मेरा मुल्क नहीं 
 जल्लाद के जश्न का यह मंच मेरा मुल्क नहीं 
 यह फैला हुआ श्मशान मेरा मुल्क नहीं 
 ख़ूं से नहाया यह कसाईखाना मेरा मुल्क नहीं 
 मैं अपना मुल्क वापस छीन लूँगा 
सीने में थामूँगा 
कुहासे में भीगी लंबी घास के फूलों की शाम 
और विसर्जन मेरे समूचे बदन को घेरे रहेंगे 
जुगनू या कि पहाड़ों की फसल 
अनगिनत दिलों में अनाज, लोककथाएँ, फूल, नारी, नदी 
हर शहीद के नाम एक-एक तारों के 
मनमर्जी नाम रखूँगा 
डगमगाती हवाओं को, 
धूप-छाँव में मछली की आँखों जैसी झील को बुलाऊँगा
 प्रेम ... जन्म से ही जिससे प्रकाशवर्ष की दूरी पर अनछुआ रहा हूँ 
उसे भी इंकलाब के जश्न के दिन बुला लूँगा 
 आँखों पर हजार वाट की रोशनी डालकर रात-दिन की पूछ-पड़ताल 
 मैं नहीं मानता
 नाखून में सुई और बर्फ की सिल्ली पर सुला रखना मैं नहीं मानता 
जब तक नाक से ख़ून न बहे, बँधे पैर लटका रखना मैं नहीं मानता 
होंठों पर बूट, सारे बदन पर जलती तीली से घाव मैं नहीं मानता 
तेज चाबुक से पिटती टूटती ख़ून सनी पीठ पर अचानक अल्कोहल डालना
 मैं नहीं मानता नंगे जिस्म पर बिजली के झटके, 
घिनौना विकृत यौन अत्याचार मैं नहीं मानता 
पीट-पीट कर क़त्ल किया जाना खोपड़ी पर
 रिवॉल्वर टिका कर गोली चलाना मैं नहीं मानता 
कविता कोई रोक नहीं मानती 
कविता सशस्त्र है, आज़ाद है, बेख़ौफ़ है 
देखो मायाकोव्स्की हिकमत नेरुदा आरागों एलुआर्द 
तुम्हारी कविता को हमने हारने नहीं दिया 
उल्टे सारा मुल्क एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है 
गेरीला छन्दों में रचे जा रहे हैं सभी अलंकार 
 गरज उठें मादल3 
 मूँगे के द्वीप जैसा आदिवासी गाँव 
ख़ून से लाल रँगे नीले खेत 
नागराज के ज़हरीले फन की शक्ल में हो घायल
 तितास नदी मौत से भीगी प्यासी ज़हरीली तितली
 गांडीव से छूटे तीर की नोक की टंकार से 
अंधा सूरज तेज़ तीखी अति-हिंसक धार 
भल्ला! तुम्हारे भाले गँडासे रस्सियाँ
 हर पल झलकते बल्लम जलोढ ज़मीं पर 
कब्जा के भाले-बरछे मादलों के ताल पर 
ट्राइबल टोटेम4 की आँखों में ख़ून छलके बंदूक खुखरी कसाई का ... 
उफनता जोश जोश इतना है कि अब डर नहीं 
 और भी हों क्रेन दाँतों वाले बुलडोज़र 
सशस्त्र दस्तों के जुलूस 
चालू डायनेमो टर्बाइन लेद और इंजिन 
धसान के नीचे कोयले से निकलती मीथेन 
अँधेरे में सख्त हीरे जैसी आँखों वाला ग़जब फौलाद का हथौड़ा 
 डॉक जूट-मिल फरनेस के आस्मां में उठे हजारों हाथों को5 नहीं, 
अब डर नहीं डर की फीकी शक्ल बेगानी लगती है 
जब जान लेता हूँ कि मौत प्यार के सिवा कुछ नहीं है 
मुझे क़त्ल करोगे तो बंगाल में सभी माटी के दिए लौ बन कर फैल जाएँगे 
मुझे खत्म नहीं कर पाओगे हर बरस धरती के बीच में से
 हौसले का हरापन लिए लौट आऊँगा मैं खत्म नहीं होऊँगा... 
सुख से रहूँ दुख में रहूँ संतान-जनने और तमाम रस्में निभाते 
जब तक (बांग्ला) देश रहेगा तब तक 
जब तक इंसान रहेगा तब तक 
 जो मौत रात की ठंडक में जलता बुलबुला बन उभर आती है 
वह दिन वह मौत वह जंग लाओ 
सेवेंथ फ्लीट6 को रोक दे 
सात नावों वाला मधुकर सौदागर7 
 सिंहनाद और शंख बजाकर जंग की शुरूआत ऐलान हो 
जब हवा ख़ून की बू के नशे में हो जल उठे 
कविता विस्फोटक बारूद की माटी... 
रंगोली गाँव नाव नगर मंदिर जब तराई से लेकर सुंदरबन की सीमा तक 
सारी रात रोने के बाद जल कर सूखे रह गए हैं 
जब जन्मभूमि की माटी और मक़्तल के कीचड़ में कोई फ़र्क नहीं रहा
 तो फिर कैसी दुविधा कैसा संशय कैसा त्रास 
आठ जने छू रहे हैं ग्रहण के अँधेरे में फुसफुसाते हुए कह रहे हैं 
कहाँ कब पहरा लगा है 
उनकी आवाज़ में अनगिनत तारे आकाशगंगाएँ समंदर 
एक से दूसरे ग्रह में तैर-उड़ने का उत्तराधिकार ... 
कविता की जलती मशाल कविता का मॉलोटोव कॉकटेल8 
कविता की टॉलुइन लपट9 इस आग की चाहत में झपट गिरे।
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 बांग्ला भाषा में 19वीं सदी में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय से उपन्यास लेखन की मज़बूत परंपरा बन गई। विषयों और शैली में विविधता शुरू से ही रही। शरतचंद्र के सामाजिक उपन्यासों का दुनिया भर की भाषाओं में अनुवाद हुआ। बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, माणिक बंद्योपाध्याय, सैयद मोस्तफा सिराज, अख्तरुज़्ज़मान एलियास, से लेकर नबारुण भट्टाचार्य आदि दर्जनों नाम हैं, और ये सभी उम्दा अदीब हैं। ग़रीब और उत्पीड़ित वर्गों पर उपन्यास लिखे गए, जिनमें माणिक बंद्योपाध्याय, अद्वैत मल्लबर्मन से लेकर कमलकुमार मजूमदार, महाश्वेता देवी आदि के काम हैं। उसके बाद नक्सली आंदोलन, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, संसदीय वाम में नैतिक और सैद्धांतिक गिरावट और बुर्ज़ुआ और फिरकापरस्त दलों का बढ़ता वर्चस्व बांग्ला उपन्यासों की पृष्ठभूमि बन गई। इन सब में नबारुण सबसे अलग एक चौंधियाता सितारा है। 'कांगाल मालसाट' पहली बार पढ़ा तो समझ में कम आया। सौ साल पहले जब जेम्स जॉएस ने यूलीसेस लिखा था, तब उसे पढ़ने वालों को ऐसा ही लगा होगा। 'कांगाल' यानी कंगाल या भिखमंगा और 'मालसाट' का अर्थ है मल्ल या पहलवान का जाँघों पर थपेड़ा मार दाँव डालते हुए चीखना। जेम्स जॉएस और उनके समकालीन बड़े लेखक नई शैली रच रहे थे, पर उनका लिखा एक आख्यान था, जिसे नए अंदाज़ में पेश किया गया था। नबारुण किसी भी मान्य आख्यान की मुख़ालफ़त करता है और यही उसके प्रयोग और संवादों की खासियत है। उपन्यास जादुई यथार्थ की आड़ में प्रतिरोध की नई कथाएँ रचता है। फताड़ू, चोक्तार जैसे अजीबोग़रीब किरदार हैं। अश्लील लफ्ज़ों का भरपूर प्रयोग है, जैसे कोई चीख-चीख कर सामाजिक विसंगतियों पर हमला कर रहा है। आंद्रे ब्रेतों का कथन है - सर्रीयल (अतियथार्थ) हरकत की सबसे आसान मिसाल यह है कि ... कोई भीड़ में अंधाधुंध गोलियाँ चला रहा हो।' नबारुण एस्थेटिक्स के बँधे-बँधाए मूल्यों को छिन्न-भिन्न करना चाहता था। कुछ था कि पूरी बात पल्ले न पड़ने पर भी मैं ढूँढ कर नबारुण को पढ़ने लगा था। मुमकिन है कि कोलकाता की ज़मीं की निचली तहों के मेरे अपने तजुरबों को मैं नबारुण को पढ़कर फिर से जीने लगा था। वाक़ई उसने शहर के दरकिनार तबकों पर ही लिखा है। 'कांगाल मालसाट' से पहले अपनी कहानियों में नबारुण ने फताड़ुओं को जन्म दे दिया था। फताड़ू - पहली बार पढ़ा तो सत्तर के दशक के आखिरी सालों में कानपुर में पढ़ाई के दौरान सुना 'फतरू' लफ़्ज़ याद आया। फतरू का मतलब फक्कड़ या मस्त-मौला जैसा कुछ है। काशीनाथ सिंह पढ़ रहा होता तो यही ज़ेहन में रहता। पर नबारुण के फताड़ू इंसान होते हुए "फँत फँत साँय साँय" मंत्र का जाप करते हुए उड़ सकते हैं। वक्त की नब्ज़ पहचान कर व्यवस्था के खिलाफ जिहाद लड़ रहे चोक्तारों के साथ जंग में शामिल होते हैं। रात में (कभी दिन में) उड़ कर हमला करते हैं - कवि सम्मेलन, बहू के हत्यारे व्यवसायी के बेटे की पुनर्विवाह पार्टी, गंगा की मझधार में गुलछर्रे उड़ा रहे बाबू की प्रमोद-नौका, आदि पर - बदबू वाले घोंघे, विष्ठा, कचरा और खोपड़ी के बम आदि फेंककर पार्टी तहस-नहस कर देते हैं। वे चोर-डकैत नहीं हैं। उनके टार्गेट मुख्यधारा की मीडिया, कोलकाता पुलिस और लेखक समुदाय हैं। चोरी करें भी तो रॉबिन-हुड जैसे भले हैं। अपने पैसे से देसी और दूसरों की गर्दन मरोड़ कर विलायती पीते हैं। जैसे असी की गली में हर बात के साथ वज़नी गाली चलती है, वैेसे ही फताड़ू की ज़बान सड़क-छाप बांग्ला है, जो गैर-फताड़ू कानों को परेशान करती है। इन में से कवि पुरंदर भाट मसालेदार नॉनसेंस कविता के माहिर हैं। फताड़ू नबारुण का अंतर्मन है। संस्कृति या अदब के नाम पर जो बाज़ार पिछले दशकों में उभरा है, उसकी मुख़ालफ़त और उसके प्रति अपना गुस्सा जताने का माध्यम है। बंगाल में संसदीय वाम राजनीति के पतन के खिलाफ फताड़ू एक चीख हैं, साथ ही उनकी सार्वभौमिकता है; विश्व-पटल पर जो कुछ हो रहा है, उसके खिलाफ नबारुण का प्रलाप है। सर्व-कालिक स्वरूप भी है, और इसीलिए वाम के बाद बंगाल में सत्तासीन ताकत भी उनसे परेशान रहा है। प्रतिबद्धता और इंसान से प्यार करने की क़ाबिलियत नबारुण को पिता बिजन भट्टाचार्य और माँ महाश्वेता देवी से जन्मजात मिली थी। नाटक और साहित्य के माहौल में पलते-बढ़ते, ऋत्विक घटक जैसे चिंतकों का साथ पाकर, नबारुण ने एक कवि के रूप में साहित्य में अपना पहला कदम रखा। 'यह मौत की घाटी मेरा मुल्क़ नहीं' का हिंदी में अनुवाद हुआ (इस शीर्षक से मैंने 2016 में; मंगलेश डबराल ने तीस साल पहले 'यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं' शीर्षक से)। 1993 की शुरुआत में उपन्यास 'हर्बर्ट' के प्रकाशन के बाद कथा साहित्य में उसके बारे में चर्चा शुरू हुई। कवि शंख घोष ने कहा, "पिछले पांच वर्षों में यह सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास है।" इस उपन्यास के लिए नरसिंह दास पुरस्कार (1994), बंकिम पुरस्कार (1996) और साहित्य अकादमी पुरस्कार (1997) मिला। इस मायने में नबारुण मुख्यधारा से अलग नहीं था। मुमकिन है कि पुरस्कार से ज़्यादा उसे पैसों की ज़रूरत रही हो। उपन्यास का सबसे उल्लेखनीय पहलू ठेठ शहरी और सड़क की ज़बान के साथ 1990 के दशक की रूहानी बेचैनी है। शुरुआत विजय चंद्र मजुमदार की एक कविता की दो पंक्तियों से होती है,'चरणों पर नहीं बंधन, जान में नहीं स्पंदन/थिर चेतन निर्वाण में जगा रहता हूँ।' हर अध्याय में ऐसी कविताओं के छोटे-छोटे अंश आते हैं, और काफी अजीब है, समग्र रूप से उपन्यास कविता सा ही है। नबारुण ने लिखा है, "जब हर्बर्ट लिखा, तो दुनिया में वामपंथ की हालत शोचनीय थी।" 2007 में नन्दीग्राम में हुए हत्याकांड के बाद उसने प० बंगाल सरकार का बंकिम पुरस्कार लौटा दिया। उसके कुल आठ उपन्यास हैं, जो बांग्ला में प्रतिष्ठित लेखक के लिए कम हैं (ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने 55 उपन्यास लिखे थे)। आठ कहानी संग्रह और चार कविता संग्रह हैं। मुनमुन सरकार ने'हर्बर्ट' का हिंदी में अनुवाद किया। नबारुण का लिखा हर कुछ राजनैतिक मक़सद लिए हुए है। उसने पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन और पूर्वी बंगाल में बांग्लादेश का मुक्ति-संग्राम देखा। दोनों हाल में शासक और शोषक का चरित्र एक जैसा था। इसीलिए बेरहमी से कविता में कह उठा, 'मुझे उस पिता से नफ़रत है जो अपने बच्चे की लाश की शिनाख़्त करने से डरता है।' उपन्यास की भूमिका में सभी पाठकों से यह आग्रह किया कि वे खुद तय करें कि कथा (उपन्यास नहीं) का लेखन की विफलताओं और सफलताओं के अलावा कोई राजनीतिक मक़सद है। "अगर मैं अच्छा फुटबॉल खेल पाता तो इस लाइन में नहीं आता।" 'हर्बर्ट' उपन्यास पर फिल्म बनी और नंदन थिएटर में रिलीज हुई तो काफी विवाद हुआ। आंदोलनों पर उसकी कारीगरी और गालियों का भरपूर इस्तेमाल कहाँ किसी को पचता! बाद के उपन्यास'भोगी' और 'ऑटो' में एक शाप या लाचारी है, जिसमें मौत की इस घाटी में पात्र महज दो भूमिकाएँ निभा सकता है - मूक हत्यारा या हार चुका इंसान। 'भोगी' विलासिता और अस्तित्व के बीच संघर्ष है, जिसका विषय 'सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और समाज की उससे बाहर निकलने की कोशिश' है। 'संत जैसा व्यक्ति, नाम भोगी' को ऑटो ड्राइवर की गालियां सुनने में मजा आता है, लेकिन 'पहले से ही बूझ लेता है।' नबारुण के कई उपन्यासों में नॉनसेंस कविता का प्रयोग प्रासंगिक है। मसलन 'संभोग करते टायरानोसोरस / कंडोम से भोगें प्रात:-रस।' या 'दाईं ओर अल्लाह की तलवार / बाईं ओर मोहम्मद की ढाल।' कहीं एलियट की कविता 'द वेस्ट लैंड' की पंक्तियाँ हैं। एक और उपन्यास 'युद्ध-परिस्थिति' का मुख्य किरदार रणजय नक्सली आंदोलन से जुड़ा, जंग के सपने देखता और पागलखाने में भी रहता है। सबसे रोचक बात यह है कि रणजय के घर से भागने की खबर मिलते ही अपने वक्त ख़ूँख़ार पुलिस अफसर रह चुका एक शख्स बेचैन हो जाता है, क्योंकि उसे पता है कि कभी न कभी उसके हाथों उत्पीड़ित लोग उसकी जान लेने आएँगे। अपने लेखन में हर जगह उपभोक्तावाद और समाजवाद के बीच संघर्ष में नबारुण साफ पोज़ीशन लेता है। 'खेलना नगर' (खिलौना नगर) हक़ीक़त में एक फैक्ट्री है, जिस पर न्यूट्रॉन बम गिरा था, जिसे कुछ लोग 'कैपिटलिस्ट बंब' कहते हैं। लिखत है, 'भले ही ये कचरा अमीर देश में बना हो, लेकिन इन्हें जमा नहीं होने दिया जाता, इन्हें गरीब देशों में तस्करी से ले जाया जाता है।' दरअसल वैश्वीकरण महज एक जश्न है, जिसके नशे में सारा मध्य-वर्ग डूबा हुआ है और इसके खिलाफ लड़ने-मरने वालों की ओर से एक बीमार, जिस्मानी तौर पर कमज़ोर अफ़्साना-निगार, कलम घिसता रहा - 'मैं वास्तव में डेवलपमेंट के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता।' तो क्या उसका लिखा हालफिल में हुए सामाजिक तरक्की के खिलाफ है? क्या इसी वजह से उसने लिखा,' तुम निहायत बनस्पति नहीं होते, तो क्या मैं तुम्हें फताड़ू बनाता?' समाज के हर स्तर पर हो रहे पतन को वह दर्ज़ करता रहा, पर यह दस्तावेज़ आधुनिकता की आख्यान-शैली में नहीं, बल्कि उत्तर-आधुनिक मोंताज शैली में है। कायर, काल्पनिक, नीरस पाठ से हटकर उसने उत्तर-आधुनिक, पर ठोस विचार की, ज़बान गढ़ी। गाली-गलौच के प्रयोग के साथ नॉनसेंस कविताओं का प्रयोग हर कहीं है। प्रतिष्ठित बौद्धिक वर्ग पर तीखी चोट है। उसे अदब से नाम कमाने वालों लोगों से नफ़रत थी, जो ऊँची इमारतों में फ्लैट खरीदकर ऐश की ज़िंदगी जीते हैं, और इन इमारतों को खड़े करने में मेहनतकश किसान ज़मीन बेचने को मजबूर किए जाते हैं। कविताओं की '(झाँट के) बाल श्रृंखला' लिखकर फताड़ू कवि पुरंदर भाट साप्ताहिक 'वैम्पायर' की हजार प्रतियां प्रकाशित करता है, लेकिन केवल तीन प्रतियां बेचीं, और बहुत सारे विज्ञापन इकट्ठे किए, जिनका विषय एक ओर सुकुमार राय की याद दिलाता है, दूसरी ओर समकालीन समाज के फार्स (स्वांग) को सामने रखता है। नबारुण की चिढ़ और उसका गुस्सा समाज के बड़े तबके का प्रतिनिधि आक्रोश है और यह सिर्फ हिन्दुस्तान तक सीमित नहीं है। चीन के मशहूर विद्रोही कवि बेइ दाओ (ज़ाओ ज़ेनकाई) का कहना है कि पहले उम्दा और वल्गर या घटिया अदब में फ़र्क साफ होता था, पर अब वल्गर अदब संजीदा अदब को ब्लैक होल की तरह निगलता जा रहा है और बदकिस्मती से कई लेखक अपना मेयार नीचे गिराने को मजबूर हो रहे हैं, ताकि आज के समाज के वल्गर स्तर के साथ संगत रख पाएँ। इसी गिरावट और इससे उपजती बेबसी की बौखलाहट नबारुण में है। नबारुण की कल्पनाशीलता की इंतहा 'लुब्धक' उपन्यास में दिखती है। पात्र कुछ आवारा कुत्ते हैं, जिनके नाम'बढ़े कान', 'सफेदा', 'सुरखिया' हैं। उनमें से कुछ पर एसिड फेंका जाता है, कुछ दुर्घटनाओं में मर जाते हैं, कुछ के बच्चों पर ज़ुल्म किया जाता है। कुत्ते और बिल्लियाँ दोनों एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। कविताएँ आती हैं - 'अलौकिक भीख की कटोरी जैसा चाँद / दाँतों से काट खा दौड़ता रात का कुत्ता।' कविता के साथ-साथ,'चे-ग्वेवारा की डायरी' और इंसान के साथ कुत्तों की रिश्तेदारी पर सुरेश्वर के 'नैष्कर्म्य सिद्धि' का एक श्लोक भी है। शटल-बॉक्स परीक्षण और लाइका (पहले रूसी रॉकेट के साथ अंतरिक्ष में गया कुत्ता) आते हैं। उपन्यास का अंत शहर से निकलते कुत्तों के जुलूस से है, जिसकी अगुवाई लुब्धक कर रहा है और सिर्फ कुत्तों को पता है कि शहर में धरती की ओर आ रहे धूमकेतु के टकराव से भयावह कुछ होने जा रहा है। नबारुण का कहना था, 'जैसे मुझे हक़ मिले हैं, वैसे ही मच्छर को भी मुझे काटने का हक़ है।' यह पूछने पर कि वह ऐसी रचनाएँ क्यों लिखता है, बहाना था, 'ज़रा खुशमिज़ाजी हूं। हजार दुखों और कठिनाइयों के बीच भी लोगों को खुशी ढूँढते देखा है, पर इतने सारे लोग जो जश्न मना रहे हैं, मैं शायद उनकी तरह खुशी नहीं मना पाता ... .'। वाक़ई। नबारुण ने हाशिए पर खड़े शहरी लोगों की हताशा और चिंता के साथ उनके अंदर मौजूद इंकलाबी वजूद को पेश किया। वह ताज़िंदगी लेखन के माध्यम से खुद में और समाज में इंकलाब लाना चाहता था। सोए हुए पाठकों को जगाना लेखकों की जिम्मेदारी है। उसने तहज़ीब का आईना टूटते देखा तो सर्रीयल साहित्य से उसे सुधारने की कोशिश में जुटा, और राज्य- सत्ता को ठेगा दिखाता रहा। वह शंकर गुहानियोगी नहीं बन सका तो नबारुण बना। गली-सड़क से आती आवाज़ों को संजोया। समाज को देखने-दिखाने के लिए एक लेंस बन गया। शहर के हर चौक पर खड़ा पागल बन गया जो हर किसी को चुनिंदा गालियाँ देता हुआ याद दिलाता है कि अपने गिरेबान के नीचे झाँकते रहना ज़रूरी है। वह कम्युनिस्ट था, पर उसने संसदीय वाम की संरचना, सत्ता का ग़लत इस्तेमाल और सुविधापरस्त नीतियों की तीखी आलोचना की। निर्देशक सुमन मुखोपाध्याय ने 'हर्बर्ट' के बाद 'कांगाल मालसाट' पर भी फिल्म बनाई, पर पहले इसे दिखाने पर रोक लगा दी गई। एतराज वही पुरानी बातों पर था कि इतिहास को पूर्वाग्रह के साथ देखा गया है और अश्लील लफ़्ज़ों का ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है। सेंसर किया गया तो नबारुण ने कहा, "यह मुमकिन नहीं है कि आज मैं रवींद्रनाथ की भाषा में लिखूं। मैं आज के लोगों की ज़बान में लिखता हूं। यदि फिल्म उद्योग की सरकार के प्रति तिरछी नज़र है, तो उनके लिए कानूनी परेशानी पैदा करने के बजाय सहिष्णु होना बेहतर है।" बाद में रोक हटी, पर फिल्म ज़्यादा चली नहीं। शुरूआती कविताओं में 'बांग्ला के कवि भी लोर्का की तरह तैयार रहें' लिखने वाले नबारुण को संसदीय वाम का छल, और दो-तीन पीढ़ियों का इंकलाबी सपनों के साथ खो जाना, बुरी तरह झकझोर गया। पुरंदर भाट ने कहा, ‘किसी ने न बूझा मुझे / न बाँधा मुझे डोर से / न किसी ने गले में पहनाई माला / सब ने लताड़ा / काँटे वाले फंदे में फँसाकर / कहा, मर तू स्साला। / तो मैं कहता हूँ धिक्कार है! / बस हँसूँ खी-खी / छिप कर करूँ ट्राई / कभी सभी सालों को ले / इकट्ठा कर अरबी की झाड़ियों में / एकसाथ करूँ ज़िबहा-ई', जबकि कभी 'हर्बर्ट' में लिखा था- "विस्फोट कब, कैसे और कौन करेगा, राज्य तंत्र को अभी तक यह पता नहीं है।" उसके कथा साहित्य में औरत कम दिखती है। उससे यह शिकायत भी रहेगी। गाली-गलौच की संस्कृति पर यह सवाल तो उठता ही है कि इसमें पुरुष-प्रधान सोच हावी है, हालाँकि नबारुण के लेखन जितना भी मर्दाना पुट हो, उसमें स्त्रियों के प्रति अपमानजनक गालियाँ बहुत कम हैं। पर हमारी दुनिया में जहाँ जेंडर के मुताबिक जीवन-शैली बँटी हुई है, वहाँ व्यंग्य अक्सर मर्द-संगत में तय होता है; नब्बे का नबारुण प्रतिरोध की जगह फ़ाज़िलपन और तीखी सड़कछाप ज़बान का उस्ताद बन गया। मसलन इंटरनेट पर पुरंदर भाट की यह कविता मौजूद है, "दो-दो नितंब धड़-धड़ काँपते / चींटी काट गई किस फाँक से / लाल वाली, डँसने वाली, और भी हैं हाय / ले हरि का नाम गाँड़ लॉक किया जाए।' कैसे करूँ यह शिकवा कि नबारुण ऐसे नहीं, जब खुद उस पीढ़ी का हूँ जो हिम्मत ढूँढती रही कि चीख सके, सब कुछ तोड़-फोड़ कर नई इमारतें गढ़ सके और इसी बीच पूँजी और नफ़रत की सियासत के गठजोड़ से फासीवादी ताकतें हम पर हावी होती रहीं। हमारे दोस्तों को क़ैद किया गया और हम इंतज़ार में तड़पते रहे कि जाने कब हमारे दरवाज़े पर दस्तक होगी। कवि नबारुण का पुरंदर भाट के रूप में बदलना परेशान करता है, और साथ ही हम रोते हैं कि हमारे अंदर यह बदलाव क्यों रुका रह गया? कई जगह उसकी भाषा जुगुप्सा पैदा करती है, जब वह जिस्म की बदहाली, मसलन उल्टियाँ, पेशाब, ख़ून आदि का बढ़-चढ़ कर बखान, और गुप्तांगों के साथ हरकतों को साक्षात सामने ला पेश करता है। ऐसी बातें किसी के बारे में भी कही जा सकती हैं, पर नबारुण का अदबी संसार, बांग्ला और आलमी अदब पर उसकी पकड़ उसे सबसे अलग करता है। जुगुप्सा और थकन को उसकी कला ऐसे ईंधन में बदल देती है जो व्यवस्था के खिलाफ लपटें बुझने नहीं देती। अमीरी बराका की कविता वैचारिक कट्टरता की वजह से कमज़ोर होती रही, पर नबारुण की पहचान एक ऐसे ज़मीनी और प्रतिबद्ध रचनाकार की बनी रही जो इंसान से मोहब्बत को कला की पहली शर्त तय रखता है। वैचारिक जड़ता, कट्टरता और तानाशाही की मुख़ालफ़त उसकी पहचान है। उसकी आँखों के सामने संसदीय वाम की राजनीति सुविधापरस्त होती चली थी और नतीजतन तड़पता वह खुद को समाज के सबसे नीचे के लोगों में ढूँढता चला था। चूँकि आम आदमी नास्तिक नहीं होता, और नबारुण आम इंसान के साथ खड़ा है, इसलिए वह नास्तिक नहीं है। यहाँ तक कि मौत के कुछ दिनों पहले किसी से कह कर किसी साधु से ताबीज़ मँगवाई और नियम मानते हुए इक्कीस दिनों तक पहनी। पहली नज़र में यह विरोधाभास लग सकता है, आखिर एक इंकलाबी लेखक और कवि पाखंडों को जगह कैसे दे सकता है, पर यह देखने पर कि इंसान के साथ मोहब्बत करता वह शख्स आम लोगों में घुलमिल कर एकात्म हो गया है, हम उसे समझ सकते हैं। ऋत्विक पर व्याख्यान देते हुए पहली बार एक फिल्म न समझ पाने की वजह से की गई बहस याद करते हुए वह रो पड़ा था। मैं भी उसी तरह रो पड़ता हूँ जैसे वह ऋत्विक घटक को याद करते हुए रोया था, क्योंकि एक बार उससे मिलने की सोच कर भी किसी वजह से मैं मिल नहीं पाया था। नबारुण का कहना था कि कलाकार या क़ाबिल शख्स को उसका काम करने से रोकना उसकी हत्या है। ऋत्विक घटक, जाफ़र पनाही, बिनायक सेन, सुधा भारद्वाज, इन सबको जब काम करने से रोका गया, तो दरअसल उनकी हत्या हुई। इन सब ने, जिनके साथ वह अपने माओवादी दोस्तों को भी रखता है, इन्होंने एक नई इमारत बनाने की कोशिश की थी, जिसकी नींव गैर-बराबरी थी, जिसमें बंगाल को 'उपोसी' (उपवास करती) से अलग 'रूपसी' बांग्ला बनाने की चाह थी। कलम की ताकत का इस्तेमाल कर इसी चाह में जुटे नबारुण की भी बांगाली मध्य-वर्ग समाज ने हत्या ही की थी।
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1 बांग्ला वर्णमाला में देवनागरी की तरह वर्गीकरण है, पर '' का उच्चारण '' है। हिन्दी का 'नवारुण' बांग्ला में 'नॉबारुण' हो जाता है और '' का उच्चारण तक़रीबन '' जैसा है। 'भट्टाचार्य' को बांग्ला में 'भट्टाचार्जो' पढ़ा जाता है, हमने अंग्रेज़ी की तर्ज़ पर इसे 'भट्टाचार्य' रखा है।
अफ्रीकी मूल के लोगों के लिए 'अश्वेत' शब्द का इस्तेमाल नस्लवादी सोच है। 'गोरा' की तरह 'काला' कहने से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा विकल्प यह है कि 'अफ्रीकी-अमेरिकन' कहा जाए।
पखावज जैसा ढोल
आदिवासियों के कुलचिह्न
डॉक – कोलकाता बंदरगाह के जहाजघर, आज़ादी के बाद जूट (सन) मिलें इस ओर रह गई थीं, और सन की पैदावार ज़्यादातर पूर्वी बंगाल में होती थी - धीरे-धीरे मिलें बंद होने लगीं और कामगारों को लंबी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं
सेवेंथ फ्लीट अमेरिकन नौसेना का बेड़ा जो बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान बंगाल की खाड़ी में आ गया था
मनसा मंगल कथा में चाँद सौदागर
पेट्रोल भरी बोतल और चिंगारी
टॉलुइन एक जलने वाला ऑर्गानिक तरल है

Thursday, August 29, 2024

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ। 

“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता”
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मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपने वरिष्ठ कवियों से यह सिलसिला शुरू करेंगे और उसके बाद आज की पीढ़ी के कवियों की कविताएं लेकर आएंगे।
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‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला स्त्री विमर्श में अपने विशेष स्थान होने का संज्ञान लेती है। यह एक आकृष्ट करता ऐसा विषय है जो स्त्री-पुरुष दोनों के जुडते परिदृश्य पर नज़र रखता है और उनके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को व्यक्त करता है। पुरुष के मन्तव्य, वैचारिकता एवं दृष्टिकोण वैशिष्ट्य स्त्री विमर्श के उस रिक्त को भरते हैं जिसका खामोश इंतजार हमेशा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कवियों की ‘स्त्री विषयक कविताएं’ समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं विशेषता दर्शाती है। ये कविताएं, पुरुषों के स्त्री संबंधी मानसिकता की रूपरेखा का साक्षात्कार ही नहीं, उनके सोच का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। कठघरे में खड़ा ‘पुरुष’ स्त्री विमर्श का ध्येय नहीं बल्कि पुरुष कवियों के स्त्री विषयक भीतरी सौन्दर्य का मूल्यांकन भी अहम है।
पुरुष कवियों की ‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला की शुरुआत वरिष्ठ कवियों से की गई हैं। शृंखला में कवियों का क्रम वरिष्ठता का सम्मान है। वसंत पंचमी के दिन युगप्रवर्तक कवि निराला की कालजयी रचनाओं में उनकी स्त्री विषयक कविताओं को प्रस्तुत करने के बाद समकालीन कवियों में सर्वप्रथम प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लजी की कविताओं से शृंखला का शुभारंभ किया गया। उनके बाद प्रसिद्ध कवियों में नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, ऋतुराज, लीलाधर जगूड़ी, इब्बार रब्बी, अशोक बाजपेयी, राजेश जोशी, गिरधर राठी, आलोक धन्वा, नरेंद्र जैन विनोद भारद्वाज, विजय कुमार, विष्णु नागर, हृदयेश मयंक, उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, मदन कश्यप, असद ज़ैदी, स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद दास, अजामिल, सुभाष राय, कुमार अंबुज, अष्टभूजा शुक्ल, कृष्ण कल्पितजी की कविताएँ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई। आभारी हैं के आप पाठकों ने पसंद किया। आपने बहुमूल्य विचारों, प्रतिक्रिया, टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित किया आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है। इस शृंखला में वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित के बाद अगले प्रसिद्ध कवि लाल्टू हैं। पुरुष कवियों के भाव-बोध की गहराई में उतरते संवेदना को विस्तार देते उनके अनुभव द्वारा उद्घाटित उनकी स्त्री विषयक दृष्टि हम उनकी रचनाओं में पाते हैं जो उनके विचारों और आत्मबोध के वैचारिक परिदृश्य का विस्तार भी है।
इस शृंखला में चयनित की गई वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की कविताएं क्रमानुसार इस प्रकार हैं, 1. मुंशीगंज की वे 2. कुछ जो दूर होता नहीं था 3. एक और औरत 4. तुम जानते हो मेरा नाम 5 समूची दुनिया होती है वह 6 जब तुम नहीं रहतीं 7. ठंडी हवा और वह 8. सालों बाद मिलने पर 9. अर्थ खोना ज़मीन का 10. डरती हूँ 11. ऐसे ही 12. स्केच (?) 13. छोटे शहर की लड़कियाँ 14 बड़े शहर की लड़कियाँ। वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की इन कविताओं को “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” शृंखला में समाहित किया गया हैं जो आप पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
कविताओं पर टिप्पणी :
कवि शरीर व्यापार में पूरी जिम्मेदारी के साथ लिप्त स्त्री के पास जाते दर्द, डर, क्रोध, दंभ को धराशाई करने आँसू से तरबतर फौजियों की बात करते है जिन्हें उन स्त्रियों ने साधा, जीया, भोगा और जीवन के जंग की तरह लड़कर अपनी रोटियाँ पाती रही। कवि के अनुसार स्त्रियाँ जलन का एहसास पीने की हद तक मिल जाने की आस सँजोए पुरुषों में जमीन खोजने की कोशिश करती साँस लेती रही, खुश होना चाहती हुईं। माँ और औरत को पास लाते हुए भी माँ को अलग पाते है कवि स्त्री पर अपनी बात रखते है। औरत को जर्रा जर्रा जानने की इच्छा रखते कवि उँगलियों पर इंतजार देखते है। रोशनी से भरे अंधकार में कवि स्त्री को समूची दुनिया कहते है। उसके न होने में उसके होते हुए की कल्पना को जीते हैं।
कवि के अनुसार स्त्री की दुनिया उसके अपने मर्द के इर्द-गिर्द बसी है। जीवन का बोझ ढोती स्त्री बेटी की खुशियों में खुशी पाती है। पुरुष में अपना जमीन देखती स्त्री उस जमीन का कीचड़ में बदल जाना भी देखती है। कवि समाज में पात्रता निभाती स्त्री के आँख में डर देखते हैं। स्त्री की चुप्पी को उसकी शक्ति समझाते लोगों को कवि स्त्री की अपनी निगाह से देखना दिखाते है। बिलखना, स्त्री की साथ जुड़ता शब्द बावजूद इसके कवि इंसान देखना चाहते है जबकि शरीर अपने नैसर्गिक हस्तक्षेप में स्त्री को अलग पहचान देता है।
कवि के अनुसार छोटे शहर की हँसती, भागती, बरसती लड़कियाँ बहुत बोलते हुए भी मन की बातें नहीं बोल पाती। जबकि मन से परिवार के मर्दों सी शहर की गोरी लड़कियाँ कवि के अनुसार औरत होने का अधकचरा एहसास लिए होती है रोना जिनका स्वाभाविक एहसास हल्का कर उन्हें उचाइयों तक ले जाता है। मजबूत बनाता है। दुनिया देखती है एक औरत का पहाड़ बनना। कवि मन की प्रकृति में स्त्री से सशब्द वार्तालाप रचते है।
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की स्त्री को विशेषता प्रदान करती उनकी चौदह कविताएं, जो तय करेंगी उनकी कविताओं में होना ‘स्त्री’ विशेष का।
- रीता दास राम
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लाल्टू की कविताएं –
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1. मुंशीगंज की वे
(1-i)
दूसरी ओर दो सौ कदम आगे से मकानों की खिड़कियों पर शाम के वक्त सज-धज कर खड़ी होती थीं। सादे कपड़ों में लोग आते और फौजी यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड को पार कर जाते। कभी बाँह पर एम पी की पट्टी और सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहने रॉयल एनफील्ड की मोटरबाइक बगल में लिए मिल्ट्री पुलिस वाले दिखते। फौजियों के निजाम में तत्सम शब्दावली आने में अभी कुछ दशक और गुजरने थे।
यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड वाली सरहद जवानी को जवानी से मिलने से रोक नहीं पाती थी। मुल्क के कोने-कोने से आए मर्द वहाँ मानो किसी मंदिर में जाते थे जैसे जंग छिड़ने पर सनकी कमांडर के हुक्म बजाने टैंक के सामने चले जाते हैं। उनके हाथ छोटे-मोटे तोहफे होते थे, जो वो अपनी बीबियों को देना चाहते थे, पर वहीं अपने वीर्य के साथ छोड़ जाते थे। स्त्रियाँ बाद में नहा लेतीं तो वीर्य बह जाता, पर तोहफे रह जाते। कुछ तोहफे उनके बच्चे ले लेते।
मर्द शराब पीते थे और हमेशा हँसते नहीं थे। कभी किसी स्तन पर माथा रखे रोते थे। सियासत नहीं समझते थे, पर जानते थे कि पुरअम्न दिनों में भी जंग छिड़ सकती है। कभी भी किसी सरहद को पार करते हुए मारे जा सकते थे। उस खयाल से दो घूँट और पी लेते या रोने लगते थे। कभी कोई दंभ दिखलाता, औरत के जिस्म पर उछलता हुआ दुश्मन पर फतह के उल्लास से चिल्लाता, पर सच यह था कि वह रो रहा होता।
वे यह सब देखतीं। उनमें से ज्यादातर माहिर थीं कि कब किसके माथे को कहाँ छोड़ा जाए कि वह उनकी जाँघों के बीच उछलता रहे। वे जैसी भी दिखतीं, असल में उदासीन आँखों से छत के ऊपर तारों भरे आस्मान के ऊपर देख रही होतीं। फिल्मों-कहानियों में नई नवेली के रोने जैसी बात वहाँ कम ही होती। मुंशीगंज की वे।
(1-ii)
आना-जाना समांतर ब्रह्मांड में घटित होता था। अपनी धरती पर उन्हें कोई फिक्र न थी कि किस जंग में कौन जीत रहा है, कौन प्रधानमंत्री कब मरा या किस को नोबेल जैसा सम्मान मिला। कुछ बातें न जानना जन्म से उनकी नियति थी। बाक़ी की खबर खुद नहीं रखते थे। उन्हें शिविरों में जानवर की हैसियत से रखा जाता था। जरा सी ग़फलत होने पर उनको ऐसे काम करने पड़ते जो जानवर से भी करवाए न जाते थे, मसलन रेंग कर पत्थर ढोना। उन्हें लगता कि यही सच है, उनको जानवर जैसा होना था। मुंशीगंज की वे उनके जिस्मों की गर्माहट सँभाल रखतीं। उनके सामने वे पिघल-सी जातीं, पर नज़र पलटते ही वे उनके दिए पैसों को ध्यान से गिनतीं। दो पल में जब वे सौ रुपए गिनकर खुश होतीं, टाटा-बिड़ला करोड़ों का लेन-देन कर चुके होते थे। अंबानी को आने में कुछ साल और बाक़ी थे। भारत-पाकिस्तान हाल में तीसरी जंग लड़ चुके थे। एक बंदा नया फील्ड मार्शल बन गया था। उनके कमरों के बाहर बीमार बच्चे खेल-झगड़ रहे होते थे कि वक्त बीत जाए और माँएं खाना खिलाएँ। धंधे के वक्त बच्चों का शोर मचाना उनको पसंद न था। मुंशीगंज की वे।
(1-iii)
शिविरों में सुबह-शाम जो कुछ भी करते वह अफसरों के आदेश मुताबिक होता। सुबह की परेड, शाम के खेल, हर बात में उनको आ, जा, घूम, नाच, उछल, कूद, हुक्म दिए जाते। कभी-कभी उनसे नकली हमले करवाए जाते कि अगली जंग के लिए तैयार रहें। ऐसा करते हुए उनमें से जो मुंशीगंज आ चुके थे छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। जो अभी वहाँ आए नहीं थे, पर वहाँ की औरतों के बारे में औरों से सुन चुके थे, छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। वक्त के साथ उनके ज़हन में अपराध-बोध कम होता रहता। एम पी वालों से पकड़े जाने का डर रहता और गाँवों में रह रही बीबियों के साथ बेवफाई की परवाह कम होती जाती। उनके सपनों में तमाम परेडों, मोर्चाबंदियों, आगे बढ़ पीछे मुड़ के साथ रंग-बिरंगी साड़ियाँ सलवार कमीज़ पहनी अपने जिस्म लहराती तरह-तरह की वे आतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-iv)
देर रात तक धंधा कर चुकने के बाद स्त्रियाँ अपने बच्चों की खबर लेतीं। उन्हें सोता देख कर या जगे हुओं को सुलाकर वे खुद सोने की तैयारी करतीं। उनमें से जो पुरानी थीं, उन्हें अपने जिस्म से घिन नहीं आती थी। वे इस पर सोचती भी नहीं थीं। अगली सुबह रोज़मर्रा के काम की चिंता अवचेतन में लिए वे सो जातीं। उनका हर दिन एक जंग है ऐसा कवि सोचते हैं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं था। फुर्सत में पीर भरे गीत गातीं और उल्लास के गीत गातीं। वे रोतीं और हँसतीं। बच्चों को पीटतीं और उनसे प्यार करतीं। अभी एड्स की बीमारी आई नहीं थी, कुछ फोड़ा फुंशी और एकाध सिफिलिस से परेशान रहतीं। एकाध असावधान मर्द ये बीमारियाँ साथ ले जाते। साल में एक-दो ऐसे केस होते रहते और फिर कोर्ट मार्शल जैसी कारवाई होती। पुलिस आकर उन स्त्रियों को छेड़ती। कुछ खिला-पिलाकर मामला दफा होता। डॉक्टरों के दौरे होते। जिस्मों की सफाई का इंतज़ाम होता। इन झमेलों के बीच वे पूजा-पाठ, नमाज वगैरह करतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-v)
उनमें से कोई प्यार के सपने देखती थी। कोई मर्द भी कभी हिल जाता। यह मसला कुछ महीनों से ज्यादा नहीं चलता था। उसके लगातार कई दिन न आने से औरत समझ जाती थी कि फिर एकबार उसके साथ धोखा हुआ है। वह अकेले में रोती, अपनी करीबी सखियों से कहती कि मैं मर जाऊँगी। आखिर में सब वैसा ही रहता, जैसा था। इतिहास में ऐसी स्त्रियों को उबारने के लिए मसीहों ने जन्म लिया है। पर इनके साथ भले लोगों की टोलियाँ जुटने में अभी कुछ दशक और लगने थे। कुछ सालों बाद भटके हुए से कुछ युवा एन जी ओ कर्मियों को यहाँ आना था। एड्स पर जानकारी और बच्चों की पढ़ाई के बीच उनमें नए सपनों को जगाना था। उन दिनों ऐसी बातों से बेखबर वे एक उम्र के बाद कहीं गायब हो जातीं। वृंदावन, काशी या ऐसी किसी जगह।
एकाध बुढ़ापे और बीमारी में मरने के लिए वहीं पड़ी रहतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-vi)
ज़िंदगी एक जंग के मानिंद उन्हें निगल जाती थी। किसी भी जंग की तरह कहना मुश्किल है कि कौन किस ओर था। कौन जी रहा था और कौन मरता था, कहना मुश्किल था। ज़िंदगी धरती के सूरज के चक्कर काटने जैसी आवर्ती घटना थी। वे चली जातीं और वे आतीं। तबादले होते और नए मर्द आ जाते। मुल्क में तख्तापलट होता, सरकार गिरती और नई सरकार सत्तासीन होती। कहीं कोई मसीहा सिसकता हुआ गायब हो जाता और नया मसीहा ज़िंदा हो उठता। अदीब उन औरतों के बारे अफसाने लिखते जाते। कई इसी से पहचाने गए कि उन्होंने उन औरतों के सपनों में जगह बनाई। मुंशीगंज की वे।
(2019)
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2. कुछ जो दूर होता नहीं था
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(2.1)
जहाँ भी रहते हो
सबसे लंबा कद दिखना चाहते हो
रोशनी के सामने खड़े हो मुड़कर अपना साया देखते हो
घबराहट में मुस्कराते हो कि
तुम्हारा साया दीवारों तक फैला है
जानती हूँ
सबकी नज़रें बचाकर समेट लेती हूँ
तुम्हारा साया अपने अंदर।
(2.2)
रात को सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं
आपको जल्दी घर चले जाना चाहिए
वह कहता है जब मैं पिछली सीट में बैठी
पर्स से आईना निकाल गालों और बालों को
सँवारती हूँ; सोचती हूँ कि फ़ोन पर कैसे फूहड़
आदमी से पाला पड़ा था जो बीमा का विज्ञापन सुनकर
कह रहा था कि मेरी आवाज़ मीठी है, बात
करती जाऊँ। ऑटो चलाते हुए वह बोलता रहता है
कि गंदे लोग हैं सड़कों पर घूम रहे
और पूछता है कि मेरी शादी हुई कि नहीं
एकबार झटका सा लगता है, हँस उठती हूँ
ठीक जब कहीं तूफान सा उठता लगता है या कि
ऑटो ही झटके के साथ घूमता है
नहीं, कहकर सोचती हूँ उसे जिससे शादी करने की सोची
थी, गलबँहियों से बहुत दूर तक जाकर
फिर जैसे किसी और कायनात की कहानी बन गई।
लफ्ज़ खो जाते हैं और कहती हूँ कि आराम से चलाओ
भैया और वह बड़बड़ाता है, ट्राफिक को गाली देता है।
रोशनी और अँधेरे के दरमियान सड़क दिखती है
मत्त बलखाती हुई गाड़ियों के बीच बच-बच कर
पीछे भागती हुई। रात को तो सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं,
कुछ तो जवाब होता ही है, गुस्सा नहीं आता मुझे
आराम से ही कहती हूँ कोई कहानी
कि अँधेरा सूरज की रोशनी में भी है।
(2.3)
तुमने कहा कि
मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
मैंने समझा कि तुम पेड़ हो
तुम्हारी डालों, तुम्हारे तने से बतियाती रही
तुम्हें गलबँहियों में लेना चाहा
और तुम बहुत चौड़े लगे
समझा कि तुम आस्माँ हो
तुम्हारे बादलों से बतियाती रही
सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा
कहकर ही मैंने छलाँग लगाई थी
सपाट धरती पर गिरी तो कुछ भी ठीक नहीं था
तुम धरती नहीं थे
मैं कहाँ थी मुझे पता नहीं था
तुम बहुत पहले खो गए थे
मेरे चेहरे पर अनगिनत पत्थरों से लगे चोट थे
चाहती थी कि मेरा हर पोर दर्द से चीख उठे
घावों को छुआ तो कोई एहसास न था
साथ दर्द का एहसास लिए पत्थर
कहीं अंदर धँस चुके थे; तुम तब भी कह रहे थे
कि मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
खयालों की दौड़ में
रुक कर उकड़ूँ बैठी मैं उल्टी कर रही थी
हवा मुझे सहला रही थी; गालों को छूते हुए साँसें
उठ रही थीं, गिर रही थीं
मेरे अंदर कोई कह रहा था
साँस लेती रहो, फिलहाल साँस लेती रहो।
(2.4)
जीभ पर से फिसलता
तरल गरल सीने को चीरता बहा
ग्लास खाली हुआ और मैंने और डालने को
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया तो तुमने
एकबारगी मुझे देखा
क्या तुम मुझे रोकना चाहते थे
या कह रहे थे कि ले लो और थोड़ी सी
मुझे समझ नहीं आया
सवाल में उलझी हुई काँपते हाथों
फिर से जाम होंठों तक लाते ही
एहसास हुआ, जलन बढ़ रही थी
बर्फ के दो टुकड़े और डाले
उठकर खिड़कियों तक गई
सारी खिड़कियाँ खुली थीं
और जलन कहीं खिड़कियों से बाहर चल निकली थी
तुम वहीं थे
किसी से बतियाते
या कि टी वी पर कुछ देख रहे थे
मैं चाह रही थी कि और पिऊँ
तब तक जलन का एहसास जिऊँ
जब तक तुम मेरे सीने के छेदों में से
गुजरते हुए कायनात के दूसरे छोर पर पहुँच न जाओ।
(2.5)
तुमने कहा कि मैं बहुत होशियार हूँ
मेरी समझ, क़ाबिलियत पर तुम फिदा थे
मेरी आँखों के सामने खुशी के बादल बरस पड़े
गालों पर खारा स्वाद-सा था तो अचरज हुआ
बरस रहे थे अश्क कि
तुमने मेरा लिखा देखा एक बार
और हँस कर डेस्क के एक कोने पर रख दिया
बाद में भूले-से अंदाज़ में तुमने समझाया कि
मैं ज़रा लाउड लिखती हूँ
कि जो निज है उसे विस्तार देने में मुझे अभी काम करना है
कि उदासीन होना ज़रूरी होता है अच्छा लिखने के लिए
कि दूरी रखनी पड़ती है
बादल मेरे गालों को छू रहे थे
कितनी दूरी ठीक होगी मैंने सोचा
और उन्हें उँगलियों में थामते हुए दूर किया
हाथ भर। खारापन मिटता ही नहीं था
या कि कुछ था जो दूर होता ही नहीं था।
(2.6)
दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
क्योंकि प्यार मेरा आखिरी मक़सद है
क्योंकि कस्तूरबा के बिना गाँधी की क्या औकात
क्योंकि ग़ालिब की ख़लिश मैं समझती हूँ
क्योंकि सावित्री फुले और फातिमा शेख ने प्यार बाँटा था
दरख्त पर चढ़ कर देखूँगी कि एक दिन नफ़रत ढूँढे नहीं मिलेगी, कोई नहीं पूछेगा कि कौन किसका हमबिस्तर है, हर कोई खूब सारा खा पाएगा, हर कोई खुशी के गीत गाएगा
मैं दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
अपनी ऊँचाई में वह और ग्रहों को चूमता है
वहाँ लोगों को लव जिहादी कह कर मारा नहीं जाता है
वहाँ इरोम को अनशन(1) नहीं करना पड़ता
ऊँचाई से दिखता है कि भविष्य हमारा है
पेड़ पर चढ़कर लोगों के साथ हो जाती हूँ जो भविष्य बना रहे हैं; मेरे पास चढ़ने के औजार हैं, लफ्ज़ हैं, नज्म हैं, शायरी है, तरन्नुम में या कि खुली शैली की। माँ-बाप बच्चों को रोकते हैं कि मत चढ़ो, कहीं जो पास है वह खो न जाए। चढ़ना वक्त माँगता है और मचान भी बनाना है, बीच-बीच में लौट कर नीचे उतरना है और फिर-फिर चढ़ना है। डर होता है कि जाने ऊपर क्या होगा, चढ़ते हुए थक गए तो, ऊपर खाने-पीने का क्या इंतज़ाम होगा, वहाँ चढ़कर हम कितना बदल जाएँगे।
सजदा करती हूँ कि कुदरत का साथ रहे, दुआ माँगती हूँ।
सपनों को सीने से लगा रखती हूँ, उन्हें अपने स्तन से दूध पिलाती हूँ। सपनों में मुँह छिपाकर खुद को धरती पर फैली सड़ाँध से बचाती हूँ। मैं और मेरे जैसे सभी, सपनों से बातें करते हुए दरख्त की ओर बढ़ रहे हैं। साथ बढ़ते हुए हम गीत गाते हैं। यह गीत तुम्हें सुनाऊँगी। तुम सुनोगे, क्योंकि प्यार के बिना तुम जी नहीं सकते। गीत की धुन तुम्हें दरख्त के ऊपर ले आएगी और वहाँ तुम - हम में से एक हो जाओगे।
(2018)
(1 इरोम शर्मिला ने आफ्स्पा के खिलाफ अनशन किया था)
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3. एक और औरत
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एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठी औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
एक इश्तहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देखती मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मेरा नम्बर मिला रही है
माँ छह घण्टों बस की यात्रा कर आई है
मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात में औरत का आना मना है।
(1992)
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4. तुम जानते हो मेरा नाम
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(4.1)
तुम जानते हो मेरा नाम?
मीराँ है या पारो, या कि दोनों हैं,
या कोई तीसरा जो ध्वनि या पाठ सब कुछ
चक्रवात में खो बैठा है
जीना चाहती हूँ या मरना
मेरा समय आगे बढ़ता या पीछे
सभी रस्म सभी रिवाज मुझमें से गुजर रहे
मेरे होंठ कथा दर कथा हीर गा रहे
मैं रांझा होई मैं रांझा होई मैं रांझा होई
मेरा क्या कुछ मेरा अब
मेरी नहीं मेरी साँस,
मेरे आँसू, मेरा हर स्राव,
मेरी उँगलियाँ मेरी नहीं,
मेरी त्वचा में दहक रही कोमलता
यह मेरे अंदर कोई दौड़ता
या कि एक ही जगह खड़े खड़े चकराता
यह मैं हूँ?
(4.2)
यह आज खुली मेरी आँखें
या कि ये खुली ही खुली हैं
देखती कुदरत के सभी दस्तूर
समूचा ज्ञान-विज्ञान मेरे रंध्रों की तड़प
ग्रहों नक्षत्रों को उनकी धुरियों पर
चला रही
हर कोई दौड़ता उड़ता
जो कुछ भी गतिमान
सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल भी
समाए हुए है उसी की गंध
उसके सुर उसकी कविता।
ये मेरी आँखें कभी नहीं सोएँगी
मेरी पलकें उन्हें नहीं ढँकेंगी
मुझे देखना है उसे मूर्त्त हर पल
जैसे देखती हूँ उसे अपने अंदर गहरे कहीं।
(4.3)
मेरे पागलपन में शामिल ऐ दोस्त ,
तू जो मेरा भूगोल और मेरा इतिहास है
मेरे जिस्म मेरी रुह मेरी साँस को तेरी ज़रूरत है
कैसे कहूँ
चश्म-ए-तर मेरे पोरों को कब से तेरी उँगलियों का इंतज़ार है।
(2010)
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5 समूची दुनिया होती है वह
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जब लेन्स सचमुच ढँका जाता है
खत्म हो जाती है दुनिया
अचानक आ गिरता अन्धकार
अब तक रौशन समाँ में
उतारती है चमकीले कपड़े -
उसके एकमात्र क़रीबी दोस्त
सँभाल कर रखती है इन दोस्तों को
कि अगली किसी रौशन महफिल में
फिर हाजिर हो सके
इधर से उधर जाती और वापस आती
कायनात भर की नज़रें साथ उसके घूम जातीं
ऐसे मौकों पर वह, वह नहीं
एक समूची दुनिया होती है
तमाम अँधेरे
सीने में समेटे
सावधान कदमों से सँभाले हुए भार
तयशुदा वक्त में करती पार
रोशनी से भरा अन्धकार।
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6 जब तुम नहीं रहतीं
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ठहर जाता है
विश्व एक बिन्दु पर
जब तुम नहीं रहतीं
रह रहकर
नशे में उठ पड़ता हूँ
जैसे तुम्हारी बाहैं
हवा में बहती
आ रही हों मेरी ओर
तुम्हारी जीभ, तुम्हारे वक्ष
नितम्ब तुम्हारे मुड़ मुड़
आते हैं हथेलियों पर
देखता रहता हूँ
अपनी उंगलियों को
जैसे तुमने परखा था उन्हें
(1992)
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7. ठंडी हवा और वह
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ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
(2002)
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8. सालों बाद मिलने पर
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सालों बाद मिलने पर
वह दिखती है धरती का बोझ ढोती
स्मृति से बहन-भाई माता पिता लुप्त हो गए हैं
कभी बेटी आकर साथ लेटती है
और हल्की सी याद आती है
उसे माँ की बहनों की
स्त्रियाँ थीं वे भीं
जिनकी धरती इस धरती से न ज्यादा न कम ठोस थी
बोझ ढोती रहीं वे भी इसी तरह आजीवन
बेटी सीख रही है सही गलत उपाय बोझ से उबरने के
उसने सीख लिए हैं राज शरीर के
जैसे उसकी माँ आसानी से भूल गई है
झुर्रियाँ समय से पहले ही दिखतीं त्वचा पर
जैसे बेटी के बदन में नहीं कहीं भी रोंए
उसे देखकर एकबारगी लगता है
कि स्त्री होती है विरक्त स्वभाव से
देखोगे अँधेरे में जब कदाचित खुली आँखें
खुश दिखेगी यह सोचती कि
समंदर चाहतों का उमड़ता बेटी के नखरों में।
(2001)
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9. अर्थ खोना ज़मीन का
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मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।
(1995)
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10. डरती हूँ
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जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।
(1995)
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11. ऐसे ही
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ऐसे ही आओगे शाम-दर-शाम
सुनोगे प्रयोगवादी कवियों की उत्तम कविताएँ
सुनोगे बार-बार कि तुम कम्युनिस्ट विचारधारा के हो
और तुम्हें अच्छी नहीं लगती ये कविताएँ
न-न कहते थक जाओगे
एक दिन चुप रह के सोचोगे
तुम्हारे सिवा भी कोई और चुप है
जानती हूँ सोचोगे शाम-दर-शाम
मेरा चुप बैठे रहना
लौटोगे घर ठोकोगे माथा
दीवार पर सोच-सोच मेरा चुप बैठे रहना
चिढ़ते रहोगे मुझपर
कहोगे बार दो बार
कि मुझ को भी कहना चाहिए कुछ
कि कहने को कुछ मेरे पास भी होगा
एक दिन ऐसा आएगा
झगड़ोगे चिल्लाकर
तब भी बैठी रहूँगी
चुपचाप और तुम चले जाओगे
तुम्हारा झगड़ा होगा
बूढ़े कवि को शराब पिलाने पर
या बस यूँ ही किसी शादी या
बेमतलब सरकारी बर्बादी पर
सिर्फ जानूँगी मैं कि झगड़ना
तुम्हें मुझसे है फ़ोन करोगे शराब पीकर
हँसकर कहूँगी हमें जाना है कहीं
फिर भी कहते रहोगे कुछ
जो नहीं बदलेगा मेरा चुप रहना
तुम नहीं आओगे लौटकर नहीं करोगे फ़ोन
भूलती भूलती याद करुँगी तुम्हें
एक दिन लगेगा तुम कभी तो लौटोगे
हे भगवान !
चुप रहती-रहती बूढ़ी हो जाऊँगी एक दिन
फिर भी तुम नहीं आओगे लौटकर ।
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12. स्केच (?)
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एक इंसान रो रहा है
औरत
लेटर बॉक्स पर
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
बिलख रही
टेढ़ी काया की निचली ओर
दिखता स्तनों का उभार
औरत
औरत
दिखता स्तनों का उभार
टेढ़ी काया की निचली ओर
बिलख रही
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
लेटर बॉक्स पर
औरत
एक इंसान रो रहा है।
(1992)
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13. छोटे शहर की लड़कियाँ
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कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी
कहानियाँ सुनाती हैं
फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ
भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँकते
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं
मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक
रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े-खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता
एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी
फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी
एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।
(1988)
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14 बड़े शहर की लड़कियाँ
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शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है
जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में - मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा -
कहते हैं
ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं
फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता
छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है
तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं
उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं
रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है
फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।
(1988)