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Showing posts from March, 2025

लोकधर्म को नमाज़ अदा करने को तड़पता फिल्मकार

- 'समयांतर' के फरवरी अंक में प्रकाशित - ‘नमाज़ आमार होइलो ना आदाय ओ आल्लाह' ऋत्विक घटक के बारे में ज़्यादातर बातें फिल्मों के संदर्भ में होती है - बहुत अच्छे फिल्म निर्देशक थे, बहुत ही कम पैसों में उम्दा फिल्में उन्होंने बनाईं; फिल्म बनाने का उनका अनोखा नज़रिया था, जो पिछली सदी के फिल्मकारों में सबसे अनोखा था, आदि। दरअसल ऋत्विक घटक एक फिल्मकार ही नहीं, बीसवीं सदी के सबसे अनोखे हिंदुस्तानियों में एक है। बांग्ला के मशहूर लोक-संगीत आलोचक कालिका प्रसाद भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में यह बताया कि बंगाल के विभाजन की जो पीड़ा बुद्धिजीवियों में है, उसमें सबसे ज्यादा ईमानदारी दो लोगों में दिखती है - एक थे लोक-संगीत को सर्वहारा वर्गों की ओर मोड़ने और आधुनिक जामा पहनाने वाले हेमांगो बिश्वास, और दूसरे ऋत्विक घटक थे। कहा जाता है कि कहीं फिल्म की शूटिंग करने जाते हुए हवाई जहाज से नीचे बहती पद्मा नदी को देखकर ऋत्विक घटक चीख-चीख कर रोने लग गए थे। हेमांगो बिश्वास के एक गीत का मुखड़ा है - आमार मन कांदे रे - पोद्दार पारे लाइगा ओ गृही मन कांदे रे - मेरा जी रो रहा है, पद्मा नदी के ल...

'सपन एक देखली'

- ('अकार-69' में प्रकाशित) सालों पहले कभी एक शास्त्रीय-संगीत गायक दोस्त से सोहर लोक-शैली की धुन में लिखा गोरख पांडे का गीत 'सुतल रहती सपन एक देखली' सुना था। कई बार इसे मैंने पढ़ा है, और 'सपन' शब्द की ताकत पर अभिभूत हुआ हूँ। एक शब्द में जीवविज्ञान, समाज-शास्त्र, इतिहास, राजनीति और साहित्य – सब कुछ है। विरला ही कोई कवि होगा जिसने सपना का इस्तेमाल न किया हो। लैंगस्टन ह्यूज़ की कालजयी कविता Harlem की पहली पंक्ति What happens to a dream deferred – दरकिनार किए गए ख़्वाब का हश्र क्या होता है - इतने अर्थ लिए हुए है कि इस पर हज़ारों लेख लिखे गए हैं। कुमार विकल की 'स्वप्न-घर', पाश की 'सबसे खतरनाक' जैसी अनगिनत कविताएँ हैं, जहाँ सपना केंद्र में है। फिल्मी दुनिया में तो ख़्वाब के बिना बहुत कम ही कुछ बचता है। मसलन 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त' जैसे 'दार्शनिक' सवाल कई पीढ़ियाँ गुनगुनाती रही हैं। साल 1619 में रेने देकार्त ने एक सपने में आधुनिक विज्ञान और दर्शन की बुनियाद सोची, जिसे बाद में उन्होंने 'ए डिस्कोर्स ऑन द मेथड' (1637) का र...