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Showing posts from December, 2013

अँधेरे के बावजूद

सबको नया साल मुबारक। अँधेरे के बावजूद यह जो गाढ़ा सा अटके रहने का हिसाब है लंबे अरसे से तकरीबन उस बड़े धमाके के वक्त से चल रहा है जब हम तुम घनीभूत ऊर्जा थे यह हिसाब यह दुखों सुखों की बही में हल्के और भारी पलड़े को जानने की जद्दोजहद यह चलता चलेगा लंबे अरसे तक तकरीबन तब तक जब सभी सूरज अँधेरों में डूब जाएँगे और हम तुम बिखरे होंगे कहीं किसी अँधेरे गड्ढे में इस हिसाब में यह मत भूलना कि निरंतर बढ़ते जाते दुखों के पहाड़ के समांतर कम सही कुछ सुख भी हैं और इस तरह यह जानना कि हमारे सुख का ठहराव उन सभी अँधेरे गड्ढों के बावजूद है जो हमारे इर्द गिर्द हैं कि कोई किसी की भी जान ले सकता है बेवजह या कि कोई वजह होती होगी किसी में जाग्रत दहाड़ते दानव होने की कोई कहीं सुंदरतम क्षणों की कल्पनाओं मे डालता तेजाब चारों ओर चारों ओर ऐसी मँडराती खबरें इन्हीं के बीच बनाते जगह हम तुम पल छूने के , पल पूछने के कि तुम क्यों हँसते हो और यह जानने के कि थोड़ा सही कम नहीं है सुख परस्पर अंदर की गलियों में खिलखिला आना मूक बोलियों में कायनात के हर सपने को गाना। ...

जेंडर प्रसंग में एक बातचीत

एक रोचक बातचीत को समेट कर ढ़ंग से कुछ लिखना चाहता था , पर कर नहीं पाया। इसलिए जो बातें हुईं , उसी को थोड़े से संपादन के साथ फिलहाल पोस्ट कर रहा हूँ , ताकि किसी को कोई काम की बात लगे तो बढ़िया। एक युवा कवि आलोचक साथी ने FB पर लिखा है - ' मैत्रेयी पुष्पा मेरी अत्यंत आदरणीय और प्रिय लेखिका हैं लेकिन उनके कल के बयान से , कि पुरुष हर हाल में सहमत होता है , मैं एकदम असहमत हूँ . उनका बयान पढ़कर ऐसा लगता है कि हर पुरुष हर समय हर किसी के साथ यौन क्रिया में संलग्न होने के लिए तैयार बैठा रहता है . ठीक है , पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक और भोग्या में तब्दील करने की पूरी कोशिश की है . लेकिन इस क़दर सामान्यीकृत बयान को निजी अनुभवों भर से खारिज किया जा सकता है . क्या आपने ऐसे पुरुष नहीं देखे जिन्होंने प्रेम प्रस्ताव ठुकराए हों ? जिन्होंने सहज उपलब्ध अवसर का " उपयोग " करने से इनकार कर दिया हो ? जिनकी एकांत संगत में भी महिला सहज रही हो ? जो यौन पशु न हों ? स्त्रीवाद को लेकर मुझे हमेशा लगता है कि हिंदी साहित्य में इसका झंडा बुलंद ...

अलविदा मांडेला - हम भूलेंगे नहीं 'अमांडला अंवेतू'

आज जनसत्ता में पहले पन्ने पर   प्रकाशित स्मृति आलेख: ' अमांडला अंवेतू !' - सत्ता किसकी , जनता की ! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने ' इंकलाब ज़िंदाबाद ' जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय आवाज थी। जब नेलसन मांडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे , बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए , हर जगह यह नारा गूँजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हाजारिका के साथ ही नहीं , सड़कों पर आ कर लोगों ने ' मांडेला , मांडेला ' की गूँज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया , 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया के सबसे खतरनाक जेलों में से माने जाने वाले रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी , जो सीने के आर पार हो गई थी। नेल्सन रोलीलाला मांडेला बीसवीं सदी का अकेला...