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Showing posts from August, 2013

एक कविता कुछ सवाल

एक पुरानी कविता पढ़कर युवा कवि देवयानी ने कुछ सवाल उठाए। यहाँ कविता और सवाल दोनों पेस्ट कर रहा हूँ। छोटे बालों वाली लड़की छोटे बालों वाली लड़की मुझे अच्छी लगती है ऐसा खुद से कहा उसे देखकर उसकी आँखें बीत गए सालों में और धँस गईं थीं पिछले कई बसंत इंतज़ार करते किसी का सालों बाद सोचा उसके लिए एक लंबी कविता लिखेगा जिसमें उसके छोटे बालों में भर देगा सुंदरता के सागर और वह उसके छोटे बालों पर खड़ा था जो समूची पृथ्वी पर एक सपने की तरह फैले हुए थे कलम कागज रख ढूँढता रहा वह याद आती बहुत याद आती मेरे बालों में तुम समा जाओ कह जाती तुम आओ अपने छोटे बालों को लेकर आओ मुझे तुम पर एक लंबी कविता लिखनी है छोटे बालों वाली लड़की मुझे अच्छी लगती है याद बन कविताओं में महकता रहा बसंत। (1990)   देवयानी :- इधर मैं स्त्री विषयक या प्रेम विषयक कविताओं को भी इस तरह पढ़ती हूं कि उसे लिखने वाला कौन है   यदि पुरुष कविता में यह विषय आता है तो किस तरह आता है और स्त्री कविता में वही विषय आता तो किस तरह आता तो यह जो पंक्तियां हैं  उसकी आँखें बीत गए ...

मैं कच्ची नहीं पीता

' पाखी ' पत्रिका के अगस्त अंक में मेरी चार कविताएँ आई हैं , उनमें से एक का शीर्षक है ' आतंक ' । कविता में एक पंक्ति है - ' बरामदे में पीते हुए कॉफी / कल्पना करता हूँ ' । किसी कारण से यह ' बरामदे में पीते हुए क च्ची / कल्पना करता हूँ ' छप गया है। पूरी कविता नीचे पेस्ट की है। ' कच्ची ' मैंने कभी पी नहीं , इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह कि मैं कच्ची पीकर खुद को डी - क्लास करने वालों में से नहीं हूँ। मेरे पिता , जिन्हें हम बापू कहते थे , कभी - कभी कच्ची पीते थे। उसके बाद घर में तबाही का माहौल रहता। इसलिए कच्ची तो क्या उम्दा महँगी दारू पीने में भी मुझे काफी समय लगा। और नशे में हमेशा सज्जनता बनाए रखने का दावा भी मैं नहीं कर सकता। दूसरों पर शराब का जो असर देखता हूँ वह भी प्रेरणादायक तो नहीं है। तो आम तौर पर नशाखोरी से मुझे समस्या है। पर जो छप गया वो छप गया। संपादक जी को मैंने यही लिखा कि उस साथी को धन्यवाद कि जिसने मुझे यह दरज़ा दे दिया , पर जो लिखा नहीं वह यह कि शक होता है कि साथी खुद ' कच्ची ' के असर में टाइपिंग या प्रूफ र...

मार लो कितनो को मारोगे

क्या यह धरती रहने लायक है ? एक ऐसे शहर में रहते हुए जहाँ कहीं भी सड़क पार करते हुए डर लगता है कि अब गए कि अब गए , एक ऐसे समय में रहते हुए जहाँ हर ओर हिंसा है और उसके खिलाफ कह पाने में हज़ार बंदिशें हैं , सही कदम अपनाए नहीं जाते , यह सोचने की बात है कि क्या यह धरती रहने लायक है ? हर रोज सोचता हूँ कि कुछ लिखूँ , पर दिमाग सुन्न सा हुआ पड़ा है , अब ऐसा समय आ रहा है कि हर क्षण कहीं कुछ ग़लत हो रहा है , किस किस को लेकर लिखोगे लाल्टू ! दिमाग में कुछ चलता रहता है कि अब इस पर लिखना है , उसके पहले ही कहीं कुछ और भयानक हो गया होता है। कहीं बच्चे ज़हर खाकर मर रहे हैं , कहीं कँवल भारती को गिरफ्तार किया जा रहा है , कहीं मिश्र में लोगों का कत्लेआम हो रहा है , कहीं नरेंद्र डाभोलकर की हत्या हो रही है , कहीं किसी युवा लड़की का सामूहिक बलात्कार हो रहा है , और इसी बीच एक युवा पीढ़ी इन सब बातों से बेखबर एक फासीवादी लहर को समर्पित हो रही है। क्या यह धरती रहने लायक है ? समूची धरती का भार हम में से कोई नहीं ले सकता। पर हमारे पैर जितनी धरती पर खड़े हैं , हमारे आस - पास जो धरती है , उस पर कुछ कहन...