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Showing posts from May, 2013

पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?

जहाँ मैं हूँ यहाँ तो ठीक इस वक्त बारिश हो रही है और शाम ठंडक लिए आती है, पर दीगर इलाकों की सोचते हुए यह बच्चों के लिए लिखी कविता जो कोई पंद्रह बीस साल पहले चकमक में आई थी और मेरे ताज़ा संग्रह 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित है:  पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या ? पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या मैं घर में था। बिजली गई घर से भागा। दफ्तर आया। वहाँ कौन बना सुभागा। छुट्टी के दिन। इधर भी गर्मी , उधर भी गर्मी। और खिड़की के बाहर। पेड़ खड़े यूँ सहजधर्मी।। कोई न भेद जात पात का। बरगद , अशोक , नीम बगैरह। बड़े मजे से सभी देख रहे। गर्मी में मेरा यूँ रोना।। सूख सूख पत्ते पीले हो जाएँगे। पर इसी बात से खुश कि , जल्दी हम गीले हो जाएँगे। मुझे न मिलता चैन। परेशान दिन बेचैन रैन। यह गर्मी कब जाएगी। कब ठंडी हवाएँ आएँगीं।। झल्लाता हूँ देख देख। पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या ? ( चकमक - 1999; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध (वाग्देवी - 2013)' में संकलित )

डायरी में से

डायरी में से पंद्रह दिन पहले के कुछ अंश - 2 मई 2013 - अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के दफ्तर में। अप्रेफा ( या निधि कहें तो अप्रेनि ) एक निजी संस्थान द्वारा स्कूली शिक्षा में गंभीर हस्तक्षेप का प्रयास कर रहा है। संस्थान के विभिन्न कार्यक्षेत्रों में एक विश्वविद्यालय है , जिसमें वरिष्ठ अध्यापक के बतौर कल से जुड़ा हूँ। कल यहाँ मई दिवस की छुट्टी थी। इसलिए आज रस्मी कार्रवाइयाँ। फाउंडेशन का दफ्तर सर्जापुर नामक क्षेत्र में है। विश्वविद्यालय यहाँ से 12 कि . मी . दूर पी ई एस कालेज कैंपस से काम कर रहा है। थोड़ी चिढ़ के साथ ही इधर - उधर जा रहा हूँ। निधि और व्यवसाय निकाय में फर्क है। निधि की बड़ी गाड़ियाँ हैं जो विश्वविद्यालय और निधि के दफ्तर के बीच दिन में दो बार आती जाती हैं। पर छोटी गाड़ियाँ नहीं हैं , जिनसे नए आए लोगों को इधर - उधर ले जाया जा सके। सो मलूकदास खुद ही धूप खा रहे हैं। हालाँकि बंगलूर का मौसम हैदराबाद से बेहतर है , फिर भी तीखी धूप में चलने फिरने से और भीड़ भरी ट्रैफिक की धूल से परेशान हूँ। जहाँ ठहरा हूँ वहाँ बहुत ही छोटा कमरा है। कल पहुँचकर बहुत हताश ...