जहाँ मैं हूँ यहाँ तो ठीक इस वक्त बारिश हो रही है और शाम ठंडक लिए आती है, पर दीगर इलाकों की सोचते हुए यह बच्चों के लिए लिखी कविता जो कोई पंद्रह बीस साल पहले चकमक में आई थी और मेरे ताज़ा संग्रह 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित है: पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या ? पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या मैं घर में था। बिजली गई घर से भागा। दफ्तर आया। वहाँ कौन बना सुभागा। छुट्टी के दिन। इधर भी गर्मी , उधर भी गर्मी। और खिड़की के बाहर। पेड़ खड़े यूँ सहजधर्मी।। कोई न भेद जात पात का। बरगद , अशोक , नीम बगैरह। बड़े मजे से सभी देख रहे। गर्मी में मेरा यूँ रोना।। सूख सूख पत्ते पीले हो जाएँगे। पर इसी बात से खुश कि , जल्दी हम गीले हो जाएँगे। मुझे न मिलता चैन। परेशान दिन बेचैन रैन। यह गर्मी कब जाएगी। कब ठंडी हवाएँ आएँगीं।। झल्लाता हूँ देख देख। पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या ? ( चकमक - 1999; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध (वाग्देवी - 2013)' में संकलित )