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Showing posts from February, 2013

छिटपुट खयाल और दो कविताएँ

('समयांतर ' के मार्च 2013 अंक में 'मार्क्सवाद का औचित्य' शीर्षक से प्रकाशित ः- अंति म से पहले पैराग्राफ में ए क कविता है, जो 'समयांतर ' में प्रकाशित आलेख में नहीं है। ) बाईस साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी और सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में विघटन की प्रक्रिया की शुरूआत हुई तो पूँजीवाद के पक्षधरों को लगा कि अंतिम फैसला हो चुका। साम्य की लड़ाई खत्म हो गई और पूँजीवाद का झंडा हमेशा के लिए बुलंद हो गया। 1992 में योशीहीरो फ्रांसिस फुकुयामा की प्रसिद्ध पुस्तक ' द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन ' आई , जिसमें औपचारिक रूप से घोषणा की गई कि मानवता के सामाजिक सांस्कृतिक विकास का अंत हो गया और मुक्त बाजार प्रणाली पर आधारित तथाकथित पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक संरचनाएँ ही अब सारी दुनिया में फैल जाएँगी। फुकुयामा स्वयं जापानी मूल के हैं ( उनके दादा जापान से आए थे ), संभवतः इसीलिए यह समझने में उन्हें देर न लगी कि सांस्कृतिक विकास का मामला जटिल है और इसे आर्थिक संरचनाओं से बिल्कुल अलग नहीं किया जा सकता। 1995 में ही अपनी एक और किताब में इस पर उन्होंने विस्तार से लिखा।...