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Showing posts from August, 2011

साधारण असाधारण

' हिंदू ' में खबर है कि संजय काक ने किसी साक्षात्कार में कहा कि काश्मीर के मसले पर प्रगतिशील भारतीय भी डगमगा जाते हैं। एक काश्मीरी पंडित जिसका पिता देश के सुरक्षा बल में काम करता था , उसने ऐसा क्यों कहा ? जिन्हें संजय काक की बातें ठीक नहीं लगतीं , वे कहेंगे - गद्दार है इसलिए ! ' हिंदू ' में मृत्यु दंड के खिलाफ संपादकीय भी छपा है - अच्छे भले पढ़े लिखे लोग ऐसा क्यों कहते हैं ? अरे , सब चीन के एजेंट हैं , कमनिष्ट हैं। इतने सारे लोग सूचनाओं की भरमार होते हुए भी जटिल बातों का सहज समाधान ढूँढते हुए , जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं , तो आसानी से गद्दार और कमनिष्ट कहते हुए मुँह फेर लेते हैं। इंसान में कठिन सत्य से बचने की यह प्रवृत्ति गहरी है। दर्शन की सामान्य शब्दावली में इसे denial ( अस्वीकार ) की अवस्था कहते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए बहुत सारे लोग तत्पर हैं। सरकारें जन - विरोधी होते हुए भी टिकी रहती हैं , दुनिया भर में सेनाएँ और शस्त्रों के व्यापारी करोड़ों कमाते हैं और तरह तरह के अनगिनत हत्यारे आम लोगों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर रोटी खाते हैं। आश्चर्य इस बात पर ह...

कास्मिक एनर्जी

आज ' हिंदू ' अखबार में पढ़ा कि येदीउरप्पा ने गद्दी छोड़ने के पहले ' हज्जाम ' शब्द को कन्नड़ भाषा से निष्कासित करने का आदेश दिया है। सतही तौर पर यह इसलिए किया गया कि हज्जाम शब्द के साथ हजामत करने वालों की अवमानना का भाव जुड़ा हुआ है - कन्नड़ भाषा में। हो सकता है कि ' हज्जाम ' की जगह प्रस्तावित ' सविता ' शब्द ठीक ही रहे। पर कन्नड़ भाषा का ज्ञान न होने की वजह से मुझे यह बात हास्यास्पद लगी कि जात पात का भेदभाव रखने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति से उपजे एक शब्द के लाने से अब तक हो रहा भेदभाव खत्म हो जाएगा। जून के महीने में मैं शृंगेरी गया था। वहाँ देखा घने जंगल के बीच ' सूतनबी ' जलप्रपात का नाम बजरंगियों ने बदलकर कुछ और रख दिया है , चूँकि ' नबी ' शब्द इस्लाम के साथ जुड़ा है। बहुत पहले शायद परमेश आचार्य के किसी आलेख में पढा था कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में कोलकाता विश्वविद्यालय की सीनेट ने प्रस्ताव पारित कर बांग्ला भाषा में प्रचलित कई अरबी फारसी के शब्दों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यह प्रवृत्ति बंकिमचंद्र के लेखन से शुरू हुई थी ...

सभी अंग्रेज़

आगे आती थी हाले दिल पे हँसी अब किसी बात पर नहीं आती यह अच्छा मौका है कि जब वे सब लोग जो चार महीने पहले आधी रात के बाद पटाखे फोड़ कर मेरे जैसों की नींद हराम कर रहे थे और अब हाय हाय कर अपनी नींद पूरी नहीं कर रहे , ऐसे वक्त इस बदनसीब मुल्क की कुछ खूबियों को गिना जाए। मेरे जैसे मूल्यहीन व्यक्ति को इन दिनों जबरन मानव मूल्यों नामक अमूर्त्त विषय पर सोचने और औरों से चर्चा करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसी प्रसंग में चर्चा छिड़ी कि स्वाधीनता दिवस क्यों मनाया जाए। वैसे तो ज्यादातर लोगों के लिए यह ध्रुवसत्य है कि यह दिन एक बड़ी जीत की स्मृति में ही मनाया जाता है ; पर मजा किरकिरा करते हुए बंदे ने जनता को सलाह दी कि जीत नहीं हार मानकर भी यह दिन उत्सव मनाने लायक है। बार बार हार कर भी फिर से अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए उठ पड़ने का जो अनोखा उन्माद मानव मस्तिष्क में है , यह दिन उस उन्माद का उत्सव मनाने के लिए है। और चूँकि यही बात पाकिस्तान के चौदह अगस्त पर और टिंबकटू के भी ऐसे ही किसी नियत दिन पर भी लागू होती है , इसलिए उन दिनों को भी इसी खयाल से बराबर जोश के साथ मनाया जाना चाहिए। इस मुल्क...