Wednesday, May 31, 2006

समय बड़ा बलवान

सुनील ने अपनी टिप्पणी में अफ्रीका दिवस का जिक्र किया तो पुरानी यादें ताजा हो गईं। एक जमाना था जब पैन अफ्रीकी आंदोलन शिखर पर था और दुनिया भर में आज़ादी और बराबरी के लिए लड़ रहे लोग अफ्रीका की ओर देख रहे थे। सत्तर के दशक के उन दिनों फैज अहमद फैज ने नज़्म लिखी थी 'आ जाओ अफ्रीका।'

मैंने फैज को ताजा ताजा पढ़ा था और ऊँची आवाज में पाकिस्तानी मित्र इफ्तिकार को पढ़ कर सुनाता था:

आ जाओ अफ्रीका
मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग

और बाब मार्ली के अफ्रीका यूनाइट पर हम लोग नाचते। पहली मई को अफ्रीका दिवस मनाया जाता था। पता नहीं मैंने कितनी बार जमेकन ग्रुप्स से रेगे टी शर्ट मँगाए और लोगों को बेचे या बाँटे। मेरे पास तो अब कोई टुकड़ा भी नहीँ है, पर हमारे उस जुनून को याद करते हुए मेरे बड़े भाई ने कोलकाता में अभी भी उनमें से एक टी शर्ट सँभाल कर रखा हुआ है। बाब मार्ली का चित्र है और किसी गीत की पंक्तियाँ। मार्ली का एक गीत redemption song जो उसने सिर्फ गिटार पर हल्की लय में गाया था, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं (त्रुटियों से बचने के लिए नेट से ले रहा हूँ):

...

Wont you help to sing
These songs of freedom? -
cause all I ever have:
Redemption songs;
Redemption songs.

Emancipate yourselves from mental slavery;
None but ourselves can free our minds.
Have no fear for atomic energy,
cause none of them can stop the time.
How long shall they kill our prophets,
While we stand aside and look? ooh!
Some say its just a part of it:
Weve got to fulfil de book.

Wont you help to sing
These songs of freedom? -
cause all I ever have:
Redemption songs

...

फिर रोडेशिया आजाद हुआ, जिंबाव्वे बना। 1980 का साल जैसे एक युग की समाप्ति की घोषणा करते हुए आया।
अमरीका में रीगन और ब्रिटेन में थैचर युग आया। पैन अफ्रीकी आंदोलन खत्म हो चुका था। कहने को अभी भी मौजूद है, पर उसका कोई संदर्भ नहीं दिखता। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में से उदारवादी लोगों को निकाल कर संरक्षणशील लोगों को लाया जाने लगा।

पर दुनिया तो वही है जो थी। कुछ समय के लिए जन-आंदोलनों को दरकिनार किया जा सकता है, पर इंसान सपने देखता रहता है और देर सबेर लोग उठते हैं, उठेंगे। बृहत्तर अफ्रीका का सपना जब देखा गया था, तब किसी ने यूरोपी मुल्कों के इकट्ठे होने की बात न सोची थी। अफ्रीकी गुलामों के वंशज जो अमरीका और दूसरे मुल्कों में बसे हुए थे, उन्होंने आज से सौ साल पहले यह यह सपना देखा। वेस्ट इंडीज़ में मार्कस गार्वे का 'बैक टू अफ्रीका' आंदोलन हुआ। कई लोग लौट गए भी। मेरे विचार में बीसवीं सदी में उत्तरी अमरीका में पैदा हुआ सबसे महान विचारक डब्लू ई बी दुबोएस (फ्रंसीसी दुबोआ से) भी अपने आखिरी सालों में अफ्रीका में ही था। दुबोएस को भारत से बड़ी उम्मीदें थीं। उसने उपन्यास भी लिखे थे, जिनमें से कम से कम एक में प्रेरणा के मुख्य चरित्र भारतीय हैं। पर जब दुबोएस यह लिख रहा था, भारत में विभाजक ताकतें काम कर रही थीं और अंततः भारत बँटा, बृहत्तर अफ्रीका क आंदोलन भी बाद में बिखर गया।

आज हजारों लोग दक्षिण एशियायी संघ का सपना देखते हैं। ऐसे वक्त जब अफ्रीकी ही नहीं, एशिया और दुनिया के दीगर मुल्कों से लोग जब तकरीबन गुलाम बन कर पश्चिमी मुल्कों में जाने के लिए तैयार हैं, तब भी लोग सपने देखते हैं। और वाजिब सपने सच होते ही हैं। हम तैयार हों न हों, समय बड़ा बलवान।

उन दिनों, अस्सी के शुराआती सालों में, सबसे अच्छे गीत अफ्रीकी मूल के लोग लिख रहे थे। इनमें से एक वाशिंगटन डी सी का जैज़ गायक और संगीतकार था, गिल स्काट हेरोन। उसके एक गीत की पंक्तियाँ हैं:

The Revolution Will Not Be Televised (सुनें)

You will not be able to stay home, brother.
You will not be able to plug in, turn on and cop out.
You will not be able to lose yourself on skag and skip,
Skip out for beer during commercials,
Because the revolution will not be televised.

The revolution will not be televised.
The revolution will not be brought to you by Xerox
In 4 parts without commercial interruptions.
The revolution will not show you pictures of Nixon
blowing a bugle and leading a charge by John
Mitchell, General Abrams and Spiro Agnew to eat
hog maws confiscated from a Harlem sanctuary.
The revolution will not be televised.

The revolution will not be brought to you by the
Schaefer Award Theatre and will not star Natalie
Woods and Steve McQueen or Bullwinkle and Julia.
The revolution will not give your mouth sex appeal.
The revolution will not get rid of the nubs.
The revolution will not make you look five pounds
thinner, because the revolution will not be televised, Brother.

There will be no pictures of you and Willie May
pushing that shopping cart down the block on the dead run,
or trying to slide that color television into a stolen ambulance.
NBC will not be able predict the winner at 8:32
or report from 29 districts.
The revolution will not be televised.

There will be no pictures of pigs shooting down
brothers in the instant replay.
There will be no pictures of pigs shooting down
brothers in the instant replay.
There will be no pictures of Whitney Young being
run out of Harlem on a rail with a brand new process.
There will be no slow motion or still life of Roy
Wilkens strolling through Watts in a Red, Black and
Green liberation jumpsuit that he had been saving
For just the proper occasion.

Green Acres, The Beverly Hillbillies, and Hooterville
Junction will no longer be so damned relevant, and
women will not care if Dick finally gets down with
Jane on Search for Tomorrow because Black people
will be in the street looking for a brighter day.
The revolution will not be televised.

There will be no highlights on the eleven o'clock
news and no pictures of hairy armed women
liberationists and Jackie Onassis blowing her nose.
The theme song will not be written by Jim Webb,
Francis Scott Key, nor sung by Glen Campbell, Tom
Jones, Johnny Cash, Englebert Humperdink, or the Rare Earth.
The revolution will not be televised.

The revolution will not be right back after a message
about a white tornado, white lightning, or white people.
You will not have to worry about a dove in your
bedroom, a tiger in your tank, or the giant in your toilet bowl.
The revolution will not go better with Coke.
The revolution will not fight the germs that may cause bad breath.
The revolution will put you in the driver's seat.

The revolution will not be televised, will not be televised,
will not be televised, will not be televised.
The revolution will be no re-run brothers;
The revolution will be live.

मैंने भी अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखी थीं, जिनमें समकालीन राजनैतिक विचारों का प्रभाव था। ये कविताएँ प्रिंस्टन् यूनीवर्सिटी के इंटरनैशनल सेंटर की पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं। अब सोचता हूँ तो सबसे ज्यादा याद आते हैं दोस्त जो जाने कहाँ बिछुड़ गए। अफ्रीका में जिंबाव्वे की आजादी और लातिन अमरीका में निकारागुआ का इंकलाब, 1979 की सबसे बड़ी घटनाएँ थीं (शायद दोनों ही मुल्कों में अगले साल यानी 1980 में ही जनता की सरकारें बनीं। बाद में निकारागुआ में रीगन ने सरकार पलट दी और जिंबाव्वे में मुगाबे तानाशाह बन बैठा)। उन दिनों हमारे साथ पढ़ रहे अफ्रीकी दोस्तों में जिंबाव्वे की आजादी की लड़ाई में सक्रिय एक गोरी लड़की थी, मैं उससे बहुत प्रभावित था। आज जब मुगाबे की सरकार द्वारा पर गोरों पर हो रहे अत्याचार के बारे में सुनता हूँ तो उसकी बात सोचता हूँ। क्या उसे भी मालूम था कि गोरे साम्राज्यवादियों के अत्याचारों का हर्जाना उसे भी देना होगा। क्या उसने भी नम्रता से बदली हुई परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है, जैसे भारत में समझदार और सूझवान अगड़ी जातियों के लोग पिछड़ी जातियों की माँगों को मान रहे हैं। वैसे हममें से ज्यादातर तो रोते चिल्लाते ही नज़र आते हैं, हालाँकि जैसा कि मुहावरा है, समय बड़ा बलवान।

Monday, May 29, 2006

आस्था वालों की दुनिया

इस बार इंग्लैंड आया तो पहले चार दिन लंदन में दोस्तों के साथ गुजारे। कालेज के दिनों के मित्र शुभाशीष के घर दो दिन ठहरा। पिछली मुलाकात 1983 में कुछेक मिनटों के लिए हुई थी। उसके पहले 1977 तक हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे। सालों बाद मिलने का एक अलग रोमांच होता है। 1983 में शुभाशीष मुझसे मिलने बर्मिंघम से लंदन आया था। उसके कहने पर मैं उसके लिए भारत से आम लेकर आया था। एक दिन के लिए लंदन ठहरना था। जिस दिन पहुँचा, एयरपोर्ट पर वह मिला नहीं। दूसरे दिन सामान चेक इन कर मैं थोड़ी देर के लिए बाहर आया (उन दिनों आज जैसी सख्ती नहीं थी), तो बंदा मिला। तब तक रसराज कूच कर चुके थे। इस बात का अफ्सोस आज तक रहा। इस बार बर्ड फ्लू की रोकथाम की वजह से आम लाना संभव न था। जब चला था तब तक बढ़िया फल बाज़ार में आया भी न था। चोरी छिपे दोस्तों के लिए मिठाई के डिब्बे निकाल लाया।

बहरहाल, लंदन में विज्ञान संग्रहालय देखा, साथ पुराने छात्र मित्र अरविंद का बेटा अनुभव था तो आई मैक्स फिल्म भी देखी। दूसरे दिन विक्टोरिया और ऐल्बर्ट कला संग्रहालय गया। इसके एक दिन पहले एक और पुराने छात्र मित्र अमित और उसकी पत्नी के साथ स्वामीनारायण मंदिर गया (तस्वीर)। हालांकि मैं विशुद्ध नास्तिक हूँ, पर दूसरों की आस्था का सम्मान करता हूँ। मेरी समझ से यह उसी संप्रदाय का मंदिर है, जिनका अक्षरधाम मंदिर दो साल पहले आतंकवादी हमलों की वजह से चर्चित हुआ था। पता था कि धनी गुजराती व्यापारियों के इस संप्रदाय का व्यापक सामाजिक प्रभाव है। मंदिर पहुँच कर इस अनुमान की पुष्टि हुई। संगमरमर का भरपूर इस्तेमाल कर करोड़ों ख़र्च कर बना यह मंदिर स्थापत्यकला या वास्तु का अद्भुत नमूना है, पर कुछ बातों से मन बहुत उदास हुआ मैं देर तक ढूँढता रहा कि कहीं इस संप्रदाय के दार्शनिक स्रोत के बारे में पता चलेगा अनुमान से वैष्णव माना। शायद किसी से पूछता तो पता चलता। अमित सपरिवार यहाँ नियमित आता है। पर उसे भी न पता था। एक पूरी दीवार टोनी ब्लेयर, मनमोहन सिंह जैसे बड़े लोगों की तस्वीरों से भरी हुई थी। पर कहीं भी कोई दार्शनिक या साहित्यिक सूत्र न दिखा, जिससे अंदाजा लग सके कि सगुण की किस शाखा की परंपरा यहाँ निभाई जा रही है।

शुभाशीष साउथहाल में जहाँ रहता है, वहाँ पास ही नया गुरुद्वारा बना है। थोड़ी ही दूर पुराना गुरुद्वारा है, इसलिए मेरी समझ में नहीं आया कि नया गुरुद्वारा क्यों। नए गुरुद्वारे पर श्री हरमंदर साहब (अम्रतसर) की तरह ऊपर गुंबद पर सोने की परत है। शुभाशीष की इच्छा थी कि इकट्ठे गुरुद्वारा चलेंगे, मुझे भी शबद कीर्तन सुनना बहुत अच्छा लगता है, पर थोड़े समय में जा नहीं पाया और चूँकि यह हिंदुस्तान नहीँ, तो कानून मानते हुए लाउडस्पीकरों से सारी दुनिया को कीर्तन सुनाया नहीं जाता।

धर्म के नाम पर पैसों का ऐसा बेहिसाब खर्च देखकर अजीब लगता है। मैं जानता हूं कि अगर धर्म सभाओं से पूछा जाए तो वे उनके द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और अस्पतालों का जिक्र करेंगे, पर सच यह भी है कि धर्मस्थानों पर इस तरह पैसा बहाने के पीछे धार्मिक भावनाएँ कम ही होती हैं। बचपन में पढ़े काका कालेलकर के निहायत ही ऊबाऊ एक लेख से दो पंक्तियाँ याद आ रही हैँ:

तू ढूँढता मुझे था जब बाग और महल में
मैं ढूँढता तुझे था तब दीन के चमन में।

बहरहाल आस्था वालों की दुनिया उनको मुबारक। मैं तो धर्म और धार्मिक परंपराओं में दीन को ही ढूँढता रहूँ, यही मेरी ख़्वाहिश रहेगी। वहीं मेरे पसंद के राग, वहीं मेरे मन पसंद गान। इसलिए दोस्तों, दक्षिण एशिया की सरकारें सैनिक खाते में पैसा डालना बंद करें और दक्षिण एशिया की जनता धर्म के नाम पर पैसे बहाना बंद करें – यही मेरा नारा है। पैसे ज्यादा हैं तो किसी गाँव के स्कूल में बच्चों के लिए एक कमरा और बनवा दो यार। बच्चों को किताबें खरीद दो।

Saturday, May 27, 2006

राममोहन और ब्रिस्टल

एक अरसे बाद ब्लाग लिखने बैठा हूँ। पिछ्ले डेढ महीने से इंग्लैंड में हूँ। ब्रिस्टल शहर में डेरा है। लिखने का मन बहुत करता रहा, पर खुद को बाँधे हुए था कि काम पर पूरा ध्यान रहे।

जिस दिन सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने राजा की मूर्ति देखी, बहुत सोचता रहा. यह तो पता था कि राममोहन इंग्लैंड में ही गुज़र गए थे, पर किस जगह, यह नहीं मालूम था। 1774 में जनमे राममोहन 1833 में यहाँ आकर वापस नहीं लौट पाए। उनकी कब्र यहाँ टेंपल मीड रेलवे स्टेशन के पास आर्नोस व्हेल कब्रिस्तान में है

राममोहन का जमाना भी क्या जमाना था! बंगाल और अंततः भारत के नवजागरण के सूत्रधार उन वर्षों में जो काम राममोहन ने किया, सोच कर भी रोमांच होता है। हमने सती के बारे में बचपन में कहानियाँ सुनी थीं। जूल्स वर्न के विख्यात उपन्यास ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एइटी डेज़’ में पढ़ा था। जब झुँझनू में 1986 में रूपकँवर के सती होने पर बवाल हुआ, तो बाँग्ला की जनविज्ञान पत्रिका ‘विज्ञान ओ विज्ञानकर्मी’ ने राममोहन का लिखा ‘प्रवर्त्तक - निवर्त्तक संवाद’ प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भी हुई। यह अलग बात है कि उनके तर्कों को आज भी हमलोग समझना नहीं चाहते हैं। इसीलिए तो हालैंड से आया पड़ोसी बेन्स मुझे हाल में उत्तर प्रदेश में हुई सती की घटना के बारे में पूछता है। वह जानना चाहता है इस बारे में मेरी राय क्या है। राय क्या? अपराधियों को पकड़ो और उम्र भर की सजा दो। इन मामलों में मैं विशुद्ध आधुनिक हूँ। पर मन विषाद से भर जाता है। (तस्वीरें ब्रिस्टल की सरकारी वेबसाइट से)

राममोहन यहाँ आकर भी खुश तो नहीं रह पाए होंगे। समुद्र से थोड़ी दूर बसे इस शहर में गुलामों के व्यापार का अड्डा था। गुलामों को अफ्रीका से भेजा जाता था, पैसे आते थे अंग्रेज़ व्यापारियों के पास। उन दिनों तक यह व्यापार मंदा पड़ने लगा होगा, क्योंकि 1777 में अमरीका अलग हो चुका था, पर व्यापारियों के पास हर परिस्थिति में पैसे कमाने के तरीके होते हैं। यहाँ औद्योगिक संग्रहालय में गुलामों के व्यापार पर पूरा एक हिस्सा है, जिसमें इन बातों पर प्रदर्शनियाँ हैं। हाल में एक टी वी चैनेल द्वारा इस बात पर लोगों से मत लिए गए थे कि उन्हें गुलामों के व्यापार के घिनौने इतिहास के लिए माफी माँगनी काहिए या नहीं। 91% लोगों ने माफी माँगने के खिलाफ मत दिया। वैसे भी आज की पीढ़ी इतिहास के बारे में सोचना नहीं चाहती, इसलिए मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य था कि ऐसा मत माँगा भी गया। शायद टी वी चैनेल्स को कभी कभी इतिहास का मजाक उड़ाने लायक सामग्री भी चाहिए।


बहरहाल, आज इतना ही। अरे भई, हमें तो इतना ही लिखने के लिए कोई अवार्ड मिलना चाहिए। इतने दिनों के बाद टाइप कर रहा हूँ, दम निकला जा रहा है।