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Showing posts from May, 2006

समय बड़ा बलवान

सुनील ने अपनी टिप्पणी में अफ्रीका दिवस का जिक्र किया तो पुरानी यादें ताजा हो गईं। एक जमाना था जब पैन अफ्रीकी आंदोलन शिखर पर था और दुनिया भर में आज़ादी और बराबरी के लिए लड़ रहे लोग अफ्रीका की ओर देख रहे थे। सत्तर के दशक के उन दिनों फैज अहमद फैज ने नज़्म लिखी थी 'आ जाओ अफ्रीका।' मैंने फैज को ताजा ताजा पढ़ा था और ऊँची आवाज में पाकिस्तानी मित्र इफ्तिकार को पढ़ कर सुनाता था: आ जाओ अफ्रीका मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग और बाब मार्ली के अफ्रीका यूनाइट पर हम लोग नाचते। पहली मई को अफ्रीका दिवस मनाया जाता था। पता नहीं मैंने कितनी बार जमेकन ग्रुप्स से रेगे टी शर्ट मँगाए और लोगों को बेचे या बाँटे। मेरे पास तो अब कोई टुकड़ा भी नहीँ है, पर हमारे उस जुनून को याद करते हुए मेरे बड़े भाई ने कोलकाता में अभी भी उनमें से एक टी शर्ट सँभाल कर रखा हुआ है। बाब मार्ली का चित्र है और किसी गीत की पंक्तियाँ। मार्ली का एक गीत redemption song जो उसने सिर्फ गिटार पर हल्की लय में गाया था, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं (त्रुटियों से बचने के लिए नेट से ले रहा हूँ): ... Wont you help to sing Th...

आस्था वालों की दुनिया

इस बार इंग्लैंड आया तो पहले चार दिन लंदन में दोस्तों के साथ गुजारे। कालेज के दिनों के मित्र शुभाशीष के घर दो दिन ठहरा। पिछली मुलाकात 1983 में कुछेक मिनटों के लिए हुई थी। उसके पहले 1977 तक हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे। सालों बाद मिलने का एक अलग रोमांच होता है। 1983 में शुभाशीष मुझसे मिलने बर्मिंघम से लंदन आया था। उसके कहने पर मैं उसके लिए भारत से आम लेकर आया था। एक दिन के लिए लंदन ठहरना था। जिस दिन पहुँचा, एयरपोर्ट पर वह मिला नहीं। दूसरे दिन सामान चेक इन कर मैं थोड़ी देर के लिए बाहर आया (उन दिनों आज जैसी सख्ती नहीं थी), तो बंदा मिला। तब तक रसराज कूच कर चुके थे। इस बात का अफ्सोस आज तक रहा। इस बार बर्ड फ्लू की रोकथाम की वजह से आम लाना संभव न था। जब चला था तब तक बढ़िया फल बाज़ार में आया भी न था। चोरी छिपे दोस्तों के लिए मिठाई के डिब्बे निकाल लाया। बहरहाल, लंदन में विज्ञान संग्रहालय देखा, साथ पुराने छात्र मित्र अरविंद का बेटा अनुभव था तो आई मैक्स फिल्म भी देखी। दूसरे दिन विक्टोरिया और ऐल्बर्ट कला संग्रहालय गया। इसके एक दिन पहले एक और पुराने छात्र मित्र अमित और उसकी पत्नी के साथ स्वामीनारायण म...

राममोहन और ब्रिस्टल

एक अरसे बाद ब्लाग लिखने बैठा हूँ। पिछ्ले डेढ महीने से इंग्लैंड में हूँ। ब्रिस्टल शहर में डेरा है। लिखने का मन बहुत करता रहा, पर खुद को बाँधे हुए था कि काम पर पूरा ध्यान रहे। जिस दिन सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने राजा की मूर्ति देखी, बहुत सोचता रहा. यह तो पता था कि राममोहन इंग्लैंड में ही गुज़र गए थे, पर किस जगह, यह नहीं मालूम था। 1774 में जनमे राममोहन 1833 में यहाँ आकर वापस नहीं लौट पाए। उनकी कब्र यहाँ टेंपल मीड रेलवे स्टेशन के पास आर्नोस व्हेल कब्रिस्तान में है । राममोहन का जमाना भी क्या जमाना था! बंगाल और अंततः भारत के नवजागरण के सूत्रधार उन वर्षों में जो काम राममोहन ने किया, सोच कर भी रोमांच होता है। हमने सती के बारे में बचपन में कहानियाँ सुनी थीं। जूल्स वर्न के विख्यात उपन्यास ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एइटी डेज़’ में पढ़ा था। जब झुँझनू में 1986 में रूपकँवर के सती होने पर बवाल हुआ, तो बाँग्ला की जनविज्ञान पत्रिका ‘विज्ञान ओ विज्ञानकर्मी’ ने राममोहन का लिखा ‘प्रवर्त्तक - निवर्त्तक संवाद’ प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भी हुई। यह अल...