Thursday, August 29, 2024

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ। 

“पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता”
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मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपने वरिष्ठ कवियों से यह सिलसिला शुरू करेंगे और उसके बाद आज की पीढ़ी के कवियों की कविताएं लेकर आएंगे।
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‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला स्त्री विमर्श में अपने विशेष स्थान होने का संज्ञान लेती है। यह एक आकृष्ट करता ऐसा विषय है जो स्त्री-पुरुष दोनों के जुडते परिदृश्य पर नज़र रखता है और उनके अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य को व्यक्त करता है। पुरुष के मन्तव्य, वैचारिकता एवं दृष्टिकोण वैशिष्ट्य स्त्री विमर्श के उस रिक्त को भरते हैं जिसका खामोश इंतजार हमेशा रहा है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष कवियों की ‘स्त्री विषयक कविताएं’ समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं विशेषता दर्शाती है। ये कविताएं, पुरुषों के स्त्री संबंधी मानसिकता की रूपरेखा का साक्षात्कार ही नहीं, उनके सोच का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। कठघरे में खड़ा ‘पुरुष’ स्त्री विमर्श का ध्येय नहीं बल्कि पुरुष कवियों के स्त्री विषयक भीतरी सौन्दर्य का मूल्यांकन भी अहम है।
पुरुष कवियों की ‘पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता’ शृंखला की शुरुआत वरिष्ठ कवियों से की गई हैं। शृंखला में कवियों का क्रम वरिष्ठता का सम्मान है। वसंत पंचमी के दिन युगप्रवर्तक कवि निराला की कालजयी रचनाओं में उनकी स्त्री विषयक कविताओं को प्रस्तुत करने के बाद समकालीन कवियों में सर्वप्रथम प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्लजी की कविताओं से शृंखला का शुभारंभ किया गया। उनके बाद प्रसिद्ध कवियों में नरेश सक्सेना, प्रयाग शुक्ल, ऋतुराज, लीलाधर जगूड़ी, इब्बार रब्बी, अशोक बाजपेयी, राजेश जोशी, गिरधर राठी, आलोक धन्वा, नरेंद्र जैन विनोद भारद्वाज, विजय कुमार, विष्णु नागर, हृदयेश मयंक, उदय प्रकाश, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, मदन कश्यप, असद ज़ैदी, स्वप्निल श्रीवास्तव, विनोद दास, अजामिल, सुभाष राय, कुमार अंबुज, अष्टभूजा शुक्ल, कृष्ण कल्पितजी की कविताएँ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की गई। आभारी हैं के आप पाठकों ने पसंद किया। आपने बहुमूल्य विचारों, प्रतिक्रिया, टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित किया आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है। इस शृंखला में वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित के बाद अगले प्रसिद्ध कवि लाल्टू हैं। पुरुष कवियों के भाव-बोध की गहराई में उतरते संवेदना को विस्तार देते उनके अनुभव द्वारा उद्घाटित उनकी स्त्री विषयक दृष्टि हम उनकी रचनाओं में पाते हैं जो उनके विचारों और आत्मबोध के वैचारिक परिदृश्य का विस्तार भी है।
इस शृंखला में चयनित की गई वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की कविताएं क्रमानुसार इस प्रकार हैं, 1. मुंशीगंज की वे 2. कुछ जो दूर होता नहीं था 3. एक और औरत 4. तुम जानते हो मेरा नाम 5 समूची दुनिया होती है वह 6 जब तुम नहीं रहतीं 7. ठंडी हवा और वह 8. सालों बाद मिलने पर 9. अर्थ खोना ज़मीन का 10. डरती हूँ 11. ऐसे ही 12. स्केच (?) 13. छोटे शहर की लड़कियाँ 14 बड़े शहर की लड़कियाँ। वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की इन कविताओं को “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” शृंखला में समाहित किया गया हैं जो आप पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
कविताओं पर टिप्पणी :
कवि शरीर व्यापार में पूरी जिम्मेदारी के साथ लिप्त स्त्री के पास जाते दर्द, डर, क्रोध, दंभ को धराशाई करने आँसू से तरबतर फौजियों की बात करते है जिन्हें उन स्त्रियों ने साधा, जीया, भोगा और जीवन के जंग की तरह लड़कर अपनी रोटियाँ पाती रही। कवि के अनुसार स्त्रियाँ जलन का एहसास पीने की हद तक मिल जाने की आस सँजोए पुरुषों में जमीन खोजने की कोशिश करती साँस लेती रही, खुश होना चाहती हुईं। माँ और औरत को पास लाते हुए भी माँ को अलग पाते है कवि स्त्री पर अपनी बात रखते है। औरत को जर्रा जर्रा जानने की इच्छा रखते कवि उँगलियों पर इंतजार देखते है। रोशनी से भरे अंधकार में कवि स्त्री को समूची दुनिया कहते है। उसके न होने में उसके होते हुए की कल्पना को जीते हैं।
कवि के अनुसार स्त्री की दुनिया उसके अपने मर्द के इर्द-गिर्द बसी है। जीवन का बोझ ढोती स्त्री बेटी की खुशियों में खुशी पाती है। पुरुष में अपना जमीन देखती स्त्री उस जमीन का कीचड़ में बदल जाना भी देखती है। कवि समाज में पात्रता निभाती स्त्री के आँख में डर देखते हैं। स्त्री की चुप्पी को उसकी शक्ति समझाते लोगों को कवि स्त्री की अपनी निगाह से देखना दिखाते है। बिलखना, स्त्री की साथ जुड़ता शब्द बावजूद इसके कवि इंसान देखना चाहते है जबकि शरीर अपने नैसर्गिक हस्तक्षेप में स्त्री को अलग पहचान देता है।
कवि के अनुसार छोटे शहर की हँसती, भागती, बरसती लड़कियाँ बहुत बोलते हुए भी मन की बातें नहीं बोल पाती। जबकि मन से परिवार के मर्दों सी शहर की गोरी लड़कियाँ कवि के अनुसार औरत होने का अधकचरा एहसास लिए होती है रोना जिनका स्वाभाविक एहसास हल्का कर उन्हें उचाइयों तक ले जाता है। मजबूत बनाता है। दुनिया देखती है एक औरत का पहाड़ बनना। कवि मन की प्रकृति में स्त्री से सशब्द वार्तालाप रचते है।
पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि लाल्टूजी की स्त्री को विशेषता प्रदान करती उनकी चौदह कविताएं, जो तय करेंगी उनकी कविताओं में होना ‘स्त्री’ विशेष का।
- रीता दास राम
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लाल्टू की कविताएं –
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1. मुंशीगंज की वे
(1-i)
दूसरी ओर दो सौ कदम आगे से मकानों की खिड़कियों पर शाम के वक्त सज-धज कर खड़ी होती थीं। सादे कपड़ों में लोग आते और फौजी यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड को पार कर जाते। कभी बाँह पर एम पी की पट्टी और सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहने रॉयल एनफील्ड की मोटरबाइक बगल में लिए मिल्ट्री पुलिस वाले दिखते। फौजियों के निजाम में तत्सम शब्दावली आने में अभी कुछ दशक और गुजरने थे।
यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड वाली सरहद जवानी को जवानी से मिलने से रोक नहीं पाती थी। मुल्क के कोने-कोने से आए मर्द वहाँ मानो किसी मंदिर में जाते थे जैसे जंग छिड़ने पर सनकी कमांडर के हुक्म बजाने टैंक के सामने चले जाते हैं। उनके हाथ छोटे-मोटे तोहफे होते थे, जो वो अपनी बीबियों को देना चाहते थे, पर वहीं अपने वीर्य के साथ छोड़ जाते थे। स्त्रियाँ बाद में नहा लेतीं तो वीर्य बह जाता, पर तोहफे रह जाते। कुछ तोहफे उनके बच्चे ले लेते।
मर्द शराब पीते थे और हमेशा हँसते नहीं थे। कभी किसी स्तन पर माथा रखे रोते थे। सियासत नहीं समझते थे, पर जानते थे कि पुरअम्न दिनों में भी जंग छिड़ सकती है। कभी भी किसी सरहद को पार करते हुए मारे जा सकते थे। उस खयाल से दो घूँट और पी लेते या रोने लगते थे। कभी कोई दंभ दिखलाता, औरत के जिस्म पर उछलता हुआ दुश्मन पर फतह के उल्लास से चिल्लाता, पर सच यह था कि वह रो रहा होता।
वे यह सब देखतीं। उनमें से ज्यादातर माहिर थीं कि कब किसके माथे को कहाँ छोड़ा जाए कि वह उनकी जाँघों के बीच उछलता रहे। वे जैसी भी दिखतीं, असल में उदासीन आँखों से छत के ऊपर तारों भरे आस्मान के ऊपर देख रही होतीं। फिल्मों-कहानियों में नई नवेली के रोने जैसी बात वहाँ कम ही होती। मुंशीगंज की वे।
(1-ii)
आना-जाना समांतर ब्रह्मांड में घटित होता था। अपनी धरती पर उन्हें कोई फिक्र न थी कि किस जंग में कौन जीत रहा है, कौन प्रधानमंत्री कब मरा या किस को नोबेल जैसा सम्मान मिला। कुछ बातें न जानना जन्म से उनकी नियति थी। बाक़ी की खबर खुद नहीं रखते थे। उन्हें शिविरों में जानवर की हैसियत से रखा जाता था। जरा सी ग़फलत होने पर उनको ऐसे काम करने पड़ते जो जानवर से भी करवाए न जाते थे, मसलन रेंग कर पत्थर ढोना। उन्हें लगता कि यही सच है, उनको जानवर जैसा होना था। मुंशीगंज की वे उनके जिस्मों की गर्माहट सँभाल रखतीं। उनके सामने वे पिघल-सी जातीं, पर नज़र पलटते ही वे उनके दिए पैसों को ध्यान से गिनतीं। दो पल में जब वे सौ रुपए गिनकर खुश होतीं, टाटा-बिड़ला करोड़ों का लेन-देन कर चुके होते थे। अंबानी को आने में कुछ साल और बाक़ी थे। भारत-पाकिस्तान हाल में तीसरी जंग लड़ चुके थे। एक बंदा नया फील्ड मार्शल बन गया था। उनके कमरों के बाहर बीमार बच्चे खेल-झगड़ रहे होते थे कि वक्त बीत जाए और माँएं खाना खिलाएँ। धंधे के वक्त बच्चों का शोर मचाना उनको पसंद न था। मुंशीगंज की वे।
(1-iii)
शिविरों में सुबह-शाम जो कुछ भी करते वह अफसरों के आदेश मुताबिक होता। सुबह की परेड, शाम के खेल, हर बात में उनको आ, जा, घूम, नाच, उछल, कूद, हुक्म दिए जाते। कभी-कभी उनसे नकली हमले करवाए जाते कि अगली जंग के लिए तैयार रहें। ऐसा करते हुए उनमें से जो मुंशीगंज आ चुके थे छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। जो अभी वहाँ आए नहीं थे, पर वहाँ की औरतों के बारे में औरों से सुन चुके थे, छुट्टी की शाम का इंतज़ार करते। वक्त के साथ उनके ज़हन में अपराध-बोध कम होता रहता। एम पी वालों से पकड़े जाने का डर रहता और गाँवों में रह रही बीबियों के साथ बेवफाई की परवाह कम होती जाती। उनके सपनों में तमाम परेडों, मोर्चाबंदियों, आगे बढ़ पीछे मुड़ के साथ रंग-बिरंगी साड़ियाँ सलवार कमीज़ पहनी अपने जिस्म लहराती तरह-तरह की वे आतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-iv)
देर रात तक धंधा कर चुकने के बाद स्त्रियाँ अपने बच्चों की खबर लेतीं। उन्हें सोता देख कर या जगे हुओं को सुलाकर वे खुद सोने की तैयारी करतीं। उनमें से जो पुरानी थीं, उन्हें अपने जिस्म से घिन नहीं आती थी। वे इस पर सोचती भी नहीं थीं। अगली सुबह रोज़मर्रा के काम की चिंता अवचेतन में लिए वे सो जातीं। उनका हर दिन एक जंग है ऐसा कवि सोचते हैं, दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं था। फुर्सत में पीर भरे गीत गातीं और उल्लास के गीत गातीं। वे रोतीं और हँसतीं। बच्चों को पीटतीं और उनसे प्यार करतीं। अभी एड्स की बीमारी आई नहीं थी, कुछ फोड़ा फुंशी और एकाध सिफिलिस से परेशान रहतीं। एकाध असावधान मर्द ये बीमारियाँ साथ ले जाते। साल में एक-दो ऐसे केस होते रहते और फिर कोर्ट मार्शल जैसी कारवाई होती। पुलिस आकर उन स्त्रियों को छेड़ती। कुछ खिला-पिलाकर मामला दफा होता। डॉक्टरों के दौरे होते। जिस्मों की सफाई का इंतज़ाम होता। इन झमेलों के बीच वे पूजा-पाठ, नमाज वगैरह करतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-v)
उनमें से कोई प्यार के सपने देखती थी। कोई मर्द भी कभी हिल जाता। यह मसला कुछ महीनों से ज्यादा नहीं चलता था। उसके लगातार कई दिन न आने से औरत समझ जाती थी कि फिर एकबार उसके साथ धोखा हुआ है। वह अकेले में रोती, अपनी करीबी सखियों से कहती कि मैं मर जाऊँगी। आखिर में सब वैसा ही रहता, जैसा था। इतिहास में ऐसी स्त्रियों को उबारने के लिए मसीहों ने जन्म लिया है। पर इनके साथ भले लोगों की टोलियाँ जुटने में अभी कुछ दशक और लगने थे। कुछ सालों बाद भटके हुए से कुछ युवा एन जी ओ कर्मियों को यहाँ आना था। एड्स पर जानकारी और बच्चों की पढ़ाई के बीच उनमें नए सपनों को जगाना था। उन दिनों ऐसी बातों से बेखबर वे एक उम्र के बाद कहीं गायब हो जातीं। वृंदावन, काशी या ऐसी किसी जगह।
एकाध बुढ़ापे और बीमारी में मरने के लिए वहीं पड़ी रहतीं। मुंशीगंज की वे।
(1-vi)
ज़िंदगी एक जंग के मानिंद उन्हें निगल जाती थी। किसी भी जंग की तरह कहना मुश्किल है कि कौन किस ओर था। कौन जी रहा था और कौन मरता था, कहना मुश्किल था। ज़िंदगी धरती के सूरज के चक्कर काटने जैसी आवर्ती घटना थी। वे चली जातीं और वे आतीं। तबादले होते और नए मर्द आ जाते। मुल्क में तख्तापलट होता, सरकार गिरती और नई सरकार सत्तासीन होती। कहीं कोई मसीहा सिसकता हुआ गायब हो जाता और नया मसीहा ज़िंदा हो उठता। अदीब उन औरतों के बारे अफसाने लिखते जाते। कई इसी से पहचाने गए कि उन्होंने उन औरतों के सपनों में जगह बनाई। मुंशीगंज की वे।
(2019)
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2. कुछ जो दूर होता नहीं था
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(2.1)
जहाँ भी रहते हो
सबसे लंबा कद दिखना चाहते हो
रोशनी के सामने खड़े हो मुड़कर अपना साया देखते हो
घबराहट में मुस्कराते हो कि
तुम्हारा साया दीवारों तक फैला है
जानती हूँ
सबकी नज़रें बचाकर समेट लेती हूँ
तुम्हारा साया अपने अंदर।
(2.2)
रात को सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं
आपको जल्दी घर चले जाना चाहिए
वह कहता है जब मैं पिछली सीट में बैठी
पर्स से आईना निकाल गालों और बालों को
सँवारती हूँ; सोचती हूँ कि फ़ोन पर कैसे फूहड़
आदमी से पाला पड़ा था जो बीमा का विज्ञापन सुनकर
कह रहा था कि मेरी आवाज़ मीठी है, बात
करती जाऊँ। ऑटो चलाते हुए वह बोलता रहता है
कि गंदे लोग हैं सड़कों पर घूम रहे
और पूछता है कि मेरी शादी हुई कि नहीं
एकबार झटका सा लगता है, हँस उठती हूँ
ठीक जब कहीं तूफान सा उठता लगता है या कि
ऑटो ही झटके के साथ घूमता है
नहीं, कहकर सोचती हूँ उसे जिससे शादी करने की सोची
थी, गलबँहियों से बहुत दूर तक जाकर
फिर जैसे किसी और कायनात की कहानी बन गई।
लफ्ज़ खो जाते हैं और कहती हूँ कि आराम से चलाओ
भैया और वह बड़बड़ाता है, ट्राफिक को गाली देता है।
रोशनी और अँधेरे के दरमियान सड़क दिखती है
मत्त बलखाती हुई गाड़ियों के बीच बच-बच कर
पीछे भागती हुई। रात को तो सिर्फ मर्द बाहर निकलते हैं,
कुछ तो जवाब होता ही है, गुस्सा नहीं आता मुझे
आराम से ही कहती हूँ कोई कहानी
कि अँधेरा सूरज की रोशनी में भी है।
(2.3)
तुमने कहा कि
मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
मैंने समझा कि तुम पेड़ हो
तुम्हारी डालों, तुम्हारे तने से बतियाती रही
तुम्हें गलबँहियों में लेना चाहा
और तुम बहुत चौड़े लगे
समझा कि तुम आस्माँ हो
तुम्हारे बादलों से बतियाती रही
सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा
कहकर ही मैंने छलाँग लगाई थी
सपाट धरती पर गिरी तो कुछ भी ठीक नहीं था
तुम धरती नहीं थे
मैं कहाँ थी मुझे पता नहीं था
तुम बहुत पहले खो गए थे
मेरे चेहरे पर अनगिनत पत्थरों से लगे चोट थे
चाहती थी कि मेरा हर पोर दर्द से चीख उठे
घावों को छुआ तो कोई एहसास न था
साथ दर्द का एहसास लिए पत्थर
कहीं अंदर धँस चुके थे; तुम तब भी कह रहे थे
कि मैं परेशान न होऊँ, सब ठीक हो जाएगा
खयालों की दौड़ में
रुक कर उकड़ूँ बैठी मैं उल्टी कर रही थी
हवा मुझे सहला रही थी; गालों को छूते हुए साँसें
उठ रही थीं, गिर रही थीं
मेरे अंदर कोई कह रहा था
साँस लेती रहो, फिलहाल साँस लेती रहो।
(2.4)
जीभ पर से फिसलता
तरल गरल सीने को चीरता बहा
ग्लास खाली हुआ और मैंने और डालने को
बोतल की ओर हाथ बढ़ाया तो तुमने
एकबारगी मुझे देखा
क्या तुम मुझे रोकना चाहते थे
या कह रहे थे कि ले लो और थोड़ी सी
मुझे समझ नहीं आया
सवाल में उलझी हुई काँपते हाथों
फिर से जाम होंठों तक लाते ही
एहसास हुआ, जलन बढ़ रही थी
बर्फ के दो टुकड़े और डाले
उठकर खिड़कियों तक गई
सारी खिड़कियाँ खुली थीं
और जलन कहीं खिड़कियों से बाहर चल निकली थी
तुम वहीं थे
किसी से बतियाते
या कि टी वी पर कुछ देख रहे थे
मैं चाह रही थी कि और पिऊँ
तब तक जलन का एहसास जिऊँ
जब तक तुम मेरे सीने के छेदों में से
गुजरते हुए कायनात के दूसरे छोर पर पहुँच न जाओ।
(2.5)
तुमने कहा कि मैं बहुत होशियार हूँ
मेरी समझ, क़ाबिलियत पर तुम फिदा थे
मेरी आँखों के सामने खुशी के बादल बरस पड़े
गालों पर खारा स्वाद-सा था तो अचरज हुआ
बरस रहे थे अश्क कि
तुमने मेरा लिखा देखा एक बार
और हँस कर डेस्क के एक कोने पर रख दिया
बाद में भूले-से अंदाज़ में तुमने समझाया कि
मैं ज़रा लाउड लिखती हूँ
कि जो निज है उसे विस्तार देने में मुझे अभी काम करना है
कि उदासीन होना ज़रूरी होता है अच्छा लिखने के लिए
कि दूरी रखनी पड़ती है
बादल मेरे गालों को छू रहे थे
कितनी दूरी ठीक होगी मैंने सोचा
और उन्हें उँगलियों में थामते हुए दूर किया
हाथ भर। खारापन मिटता ही नहीं था
या कि कुछ था जो दूर होता ही नहीं था।
(2.6)
दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
क्योंकि प्यार मेरा आखिरी मक़सद है
क्योंकि कस्तूरबा के बिना गाँधी की क्या औकात
क्योंकि ग़ालिब की ख़लिश मैं समझती हूँ
क्योंकि सावित्री फुले और फातिमा शेख ने प्यार बाँटा था
दरख्त पर चढ़ कर देखूँगी कि एक दिन नफ़रत ढूँढे नहीं मिलेगी, कोई नहीं पूछेगा कि कौन किसका हमबिस्तर है, हर कोई खूब सारा खा पाएगा, हर कोई खुशी के गीत गाएगा
मैं दरख्त पर चढ़ जाऊँगी
अपनी ऊँचाई में वह और ग्रहों को चूमता है
वहाँ लोगों को लव जिहादी कह कर मारा नहीं जाता है
वहाँ इरोम को अनशन(1) नहीं करना पड़ता
ऊँचाई से दिखता है कि भविष्य हमारा है
पेड़ पर चढ़कर लोगों के साथ हो जाती हूँ जो भविष्य बना रहे हैं; मेरे पास चढ़ने के औजार हैं, लफ्ज़ हैं, नज्म हैं, शायरी है, तरन्नुम में या कि खुली शैली की। माँ-बाप बच्चों को रोकते हैं कि मत चढ़ो, कहीं जो पास है वह खो न जाए। चढ़ना वक्त माँगता है और मचान भी बनाना है, बीच-बीच में लौट कर नीचे उतरना है और फिर-फिर चढ़ना है। डर होता है कि जाने ऊपर क्या होगा, चढ़ते हुए थक गए तो, ऊपर खाने-पीने का क्या इंतज़ाम होगा, वहाँ चढ़कर हम कितना बदल जाएँगे।
सजदा करती हूँ कि कुदरत का साथ रहे, दुआ माँगती हूँ।
सपनों को सीने से लगा रखती हूँ, उन्हें अपने स्तन से दूध पिलाती हूँ। सपनों में मुँह छिपाकर खुद को धरती पर फैली सड़ाँध से बचाती हूँ। मैं और मेरे जैसे सभी, सपनों से बातें करते हुए दरख्त की ओर बढ़ रहे हैं। साथ बढ़ते हुए हम गीत गाते हैं। यह गीत तुम्हें सुनाऊँगी। तुम सुनोगे, क्योंकि प्यार के बिना तुम जी नहीं सकते। गीत की धुन तुम्हें दरख्त के ऊपर ले आएगी और वहाँ तुम - हम में से एक हो जाओगे।
(2018)
(1 इरोम शर्मिला ने आफ्स्पा के खिलाफ अनशन किया था)
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3. एक और औरत
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एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठी औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
एक इश्तहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देखती मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मेरा नम्बर मिला रही है
माँ छह घण्टों बस की यात्रा कर आई है
मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात में औरत का आना मना है।
(1992)
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4. तुम जानते हो मेरा नाम
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(4.1)
तुम जानते हो मेरा नाम?
मीराँ है या पारो, या कि दोनों हैं,
या कोई तीसरा जो ध्वनि या पाठ सब कुछ
चक्रवात में खो बैठा है
जीना चाहती हूँ या मरना
मेरा समय आगे बढ़ता या पीछे
सभी रस्म सभी रिवाज मुझमें से गुजर रहे
मेरे होंठ कथा दर कथा हीर गा रहे
मैं रांझा होई मैं रांझा होई मैं रांझा होई
मेरा क्या कुछ मेरा अब
मेरी नहीं मेरी साँस,
मेरे आँसू, मेरा हर स्राव,
मेरी उँगलियाँ मेरी नहीं,
मेरी त्वचा में दहक रही कोमलता
यह मेरे अंदर कोई दौड़ता
या कि एक ही जगह खड़े खड़े चकराता
यह मैं हूँ?
(4.2)
यह आज खुली मेरी आँखें
या कि ये खुली ही खुली हैं
देखती कुदरत के सभी दस्तूर
समूचा ज्ञान-विज्ञान मेरे रंध्रों की तड़प
ग्रहों नक्षत्रों को उनकी धुरियों पर
चला रही
हर कोई दौड़ता उड़ता
जो कुछ भी गतिमान
सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल भी
समाए हुए है उसी की गंध
उसके सुर उसकी कविता।
ये मेरी आँखें कभी नहीं सोएँगी
मेरी पलकें उन्हें नहीं ढँकेंगी
मुझे देखना है उसे मूर्त्त हर पल
जैसे देखती हूँ उसे अपने अंदर गहरे कहीं।
(4.3)
मेरे पागलपन में शामिल ऐ दोस्त ,
तू जो मेरा भूगोल और मेरा इतिहास है
मेरे जिस्म मेरी रुह मेरी साँस को तेरी ज़रूरत है
कैसे कहूँ
चश्म-ए-तर मेरे पोरों को कब से तेरी उँगलियों का इंतज़ार है।
(2010)
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5 समूची दुनिया होती है वह
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जब लेन्स सचमुच ढँका जाता है
खत्म हो जाती है दुनिया
अचानक आ गिरता अन्धकार
अब तक रौशन समाँ में
उतारती है चमकीले कपड़े -
उसके एकमात्र क़रीबी दोस्त
सँभाल कर रखती है इन दोस्तों को
कि अगली किसी रौशन महफिल में
फिर हाजिर हो सके
इधर से उधर जाती और वापस आती
कायनात भर की नज़रें साथ उसके घूम जातीं
ऐसे मौकों पर वह, वह नहीं
एक समूची दुनिया होती है
तमाम अँधेरे
सीने में समेटे
सावधान कदमों से सँभाले हुए भार
तयशुदा वक्त में करती पार
रोशनी से भरा अन्धकार।
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6 जब तुम नहीं रहतीं
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ठहर जाता है
विश्व एक बिन्दु पर
जब तुम नहीं रहतीं
रह रहकर
नशे में उठ पड़ता हूँ
जैसे तुम्हारी बाहैं
हवा में बहती
आ रही हों मेरी ओर
तुम्हारी जीभ, तुम्हारे वक्ष
नितम्ब तुम्हारे मुड़ मुड़
आते हैं हथेलियों पर
देखता रहता हूँ
अपनी उंगलियों को
जैसे तुमने परखा था उन्हें
(1992)
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7. ठंडी हवा और वह
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ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
सोचती अपने मर्द के बारे में ।
(2002)
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8. सालों बाद मिलने पर
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सालों बाद मिलने पर
वह दिखती है धरती का बोझ ढोती
स्मृति से बहन-भाई माता पिता लुप्त हो गए हैं
कभी बेटी आकर साथ लेटती है
और हल्की सी याद आती है
उसे माँ की बहनों की
स्त्रियाँ थीं वे भीं
जिनकी धरती इस धरती से न ज्यादा न कम ठोस थी
बोझ ढोती रहीं वे भी इसी तरह आजीवन
बेटी सीख रही है सही गलत उपाय बोझ से उबरने के
उसने सीख लिए हैं राज शरीर के
जैसे उसकी माँ आसानी से भूल गई है
झुर्रियाँ समय से पहले ही दिखतीं त्वचा पर
जैसे बेटी के बदन में नहीं कहीं भी रोंए
उसे देखकर एकबारगी लगता है
कि स्त्री होती है विरक्त स्वभाव से
देखोगे अँधेरे में जब कदाचित खुली आँखें
खुश दिखेगी यह सोचती कि
समंदर चाहतों का उमड़ता बेटी के नखरों में।
(2001)
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9. अर्थ खोना ज़मीन का
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मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।
(1995)
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10. डरती हूँ
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जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।
(1995)
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11. ऐसे ही
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ऐसे ही आओगे शाम-दर-शाम
सुनोगे प्रयोगवादी कवियों की उत्तम कविताएँ
सुनोगे बार-बार कि तुम कम्युनिस्ट विचारधारा के हो
और तुम्हें अच्छी नहीं लगती ये कविताएँ
न-न कहते थक जाओगे
एक दिन चुप रह के सोचोगे
तुम्हारे सिवा भी कोई और चुप है
जानती हूँ सोचोगे शाम-दर-शाम
मेरा चुप बैठे रहना
लौटोगे घर ठोकोगे माथा
दीवार पर सोच-सोच मेरा चुप बैठे रहना
चिढ़ते रहोगे मुझपर
कहोगे बार दो बार
कि मुझ को भी कहना चाहिए कुछ
कि कहने को कुछ मेरे पास भी होगा
एक दिन ऐसा आएगा
झगड़ोगे चिल्लाकर
तब भी बैठी रहूँगी
चुपचाप और तुम चले जाओगे
तुम्हारा झगड़ा होगा
बूढ़े कवि को शराब पिलाने पर
या बस यूँ ही किसी शादी या
बेमतलब सरकारी बर्बादी पर
सिर्फ जानूँगी मैं कि झगड़ना
तुम्हें मुझसे है फ़ोन करोगे शराब पीकर
हँसकर कहूँगी हमें जाना है कहीं
फिर भी कहते रहोगे कुछ
जो नहीं बदलेगा मेरा चुप रहना
तुम नहीं आओगे लौटकर नहीं करोगे फ़ोन
भूलती भूलती याद करुँगी तुम्हें
एक दिन लगेगा तुम कभी तो लौटोगे
हे भगवान !
चुप रहती-रहती बूढ़ी हो जाऊँगी एक दिन
फिर भी तुम नहीं आओगे लौटकर ।
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12. स्केच (?)
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एक इंसान रो रहा है
औरत
लेटर बॉक्स पर
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
बिलख रही
टेढ़ी काया की निचली ओर
दिखता स्तनों का उभार
औरत
औरत
दिखता स्तनों का उभार
टेढ़ी काया की निचली ओर
बिलख रही
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
लेटर बॉक्स पर
औरत
एक इंसान रो रहा है।
(1992)
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13. छोटे शहर की लड़कियाँ
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कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी
कहानियाँ सुनाती हैं
फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ
भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँकते
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं
मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक
रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े-खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता
एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी
फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी
एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।
(1988)
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14 बड़े शहर की लड़कियाँ
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शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है
जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में - मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा -
कहते हैं
ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं
फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता
छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है
तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं
उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं
रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है
फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।
(1988)