' आलोचना' पत्रिका के अंक 62 में प्रकाशित मुंशीगंज की वे दूसरी ओर दो सौ कदम आगे से मकानों की खिड़कियों पर शाम के वक्त सज - धज कर खड़ी होती थीं। सादे कपड़ों में लोग आते और फौजी यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड को पार कर जाते। कभी बाँह पर एम पी की पट्टी और सिर पर तुर्रेदार पगड़ी पहने रॉयल एनफील्ड की मोटरबाइक बगल में लिए मिल्ट्री पुलिस वाले दिखते। फौजियों के निजाम में तत्सम शब्दावली आने में अभी कुछ दशक और गुजरने थे। यहाँ से आगे न जाएँ लिखे बोर्ड वाली सरहद जवानी को जवानी से मिलने से रोक नहीं पाती थी। मुल्क के कोने - कोने से आए मर्द वहाँ मानो किसी मंदिर में जाते थे जैसे जंग छिड़ने पर सनकी कमांडर के हुक्म बजाने टैंक के सामने चले जाते हैं। उनके हाथ छोटे - मोटे तोहफे होते थे , जो वो अपनी बीबियों को देना चाहते थे , पर वहीं अपने वीर्य के साथ छोड़ जाते थे। स्त्रियाँ बाद में नहा लेतीं तो वीर्य बह जाता , पर तोहफे रह जाते। कुछ तोहफे उनके बच्चे ले लेते। मर्द शराब पीते थे और हमेशा हँसते नहीं थे। कभी किसी स्तन पर माथा रखे रोते थे। सियासत नहीं समझते थे , पर जानते थे कि पुरअम्न दिनों में भी जंग छिड़ सकती ह...