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Showing posts from December, 2018

प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'

तुमने पतंग उड़ाई है ?   धूप है , आस्मान सुनहरा , धरती पर धान का पौधा अपनी गर्दन घुमा कर बादल ढूँढता है मैं सपनों में पतंग बन दो आँखें ढूँढता हूँ पागल हवा धरती के हर मुल्क का सैर कर आती है साँप सी टेढ़ी सड़क के किनारे पौधों के पत्ते हैं ऊँची घास नशे में लहराती है समंदर पर लहरों सी उड़ती है पतंग अनगिनत साल बीत गए खोया नहीं हूँ पतंगों की भीड़ में जाना कि इंसान हूँ कि चाकू बंदूक चला सकता हूँ उड़ती पतंग उतार सकता हूँ ज़मीं पर जहाँ हर ओर घास पेड़ जल रहे हैं। सपने पतंग आँखें उड़ कर पास जा पूछता हूँ - दोस्त , कैसे हो ? डरावनी शक्ल के लोग मीठी हँसी हँसते कहते हैं - सँभल कर भाई , खुशी उफनने न लगे। हवा में तब उम्म्ह गंध होती है आकाश है कि समंदर घबराता मैं बातें करता हूँ - यह , वह , तुम , मैं… चाहता कि कहूँ - चलो , साथ उड़ेंगे कह न पाता हूँ सुनता हूँ कि कुछ लोगों ने एक झंडा उतारा है और एक हवा में फहराया है कि मैं , मैं नहीं , न पतंग , न सपना , शहर में ब्लैक आउट , सीने में ठकठक फौज की परेड गूँजती है फिर जंग छिड़ी है गंगा के सीने में नौका के नीचे सूरज लाल...

हम सब बच्चे बनना चाहते हैं

पिछले साल 10 दिसंबर को मैं सेवाग्राम में था। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच  की मीटिंग थी। 9 को आधी रात होते ही युवा मित्रों ने उठाकर जन्मदिन का  शोर मचाया। इस बार भी संयोग से मंच की ही मीटिंग में दिल्ली गया हुआ था।  जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकलने लगा तो साथ के सभी बुज़ुर्ग साथी थे,  उनसे कहा कि अब आप मुझे हैपी बड्डे कह सकते हैं। तो उन्होंने भी थोड़ी देर  सही, शोर तो मचाया। बहरहाल फेसबुक पर शोर से बच गया और इसलिए इस  अपराध-बोध से बचा रहूँगा कि दूसरों को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ  नहीं भेजता।  ऐसा बदतमीज़ हूँ कि उन दो-चार प्यारे मित्रों के जन्मदिन भी  भूल जाता हूँ, जो वर्षों से मुझे 'विश' करना नहीं भूलते हैं।  बहरहाल, यह पचीस साल पुरानी कविता 'हंस' के दिसंबर अंक में आई है :   पागल मुझे जगाया कब की बात पागल मुझे जगाया तुमने कहा कि मैं अठारह पर अटका हूँ कोई सपना नहीं था तुमने कहा कि हम सब बच्चे बनना चाहते हैं आज इस सर्द...