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Showing posts from August, 2018

मैं अपनी माँ को भारतीय कैसे सिद्ध करूँ

BBC पंजाबी पर हाल में मेरे इस लेख का अनुवाद (दलजीत अमी द्वारा)  पोस्ट हुआ है।  ' गंगा आमार माँ , पॉद्दा ( पद्मा ) आमार माँ ' और ' गंगा बहती हो क्यों ' जैसे गीतों  के गायक भूपेन हाजारिका , अपनी मूल भाषा अख्होमिया से ज्यादा बांग्ला में  गाने के लिए जाने जाते हैं। यह कैसी विड़ंबना है कि असम में कई दशकों से  वहाँ बस चुके तथाकथित बांग्लादेशियों को निकालने की कोशिशें चल रही हैं ,   और इसे एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा बना दिया गया है। इनमें से अधिकतर ग़रीब  हैं जो विस्थापन की मार झेल नहीं पाएँगे और विस्थापित होने पर जाने के लिए  कोई जगह उनके पास नहीं है। मेरी माँ का जन्म आज के बांग्लादेश में हुआ था। 2012 के अगस्त महीने में मैं  कालामृधा नामक गाँव में पहुँचा जहाँ मेरी माँ जन्मी थी। मुझे जेसोर की  यूनिवर्सिटी ने कीनोट-अड्रेस के लिए बुलाया था और वहीं से एक अध्यापक  बाबलू मंडल मुझे कालामृधा ले गए। सत्तर साल पहले माँ के नाना पास के गाँव  में माध्यमिक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे औ...

कवियों ने ग़रीबों का साथ छोड़ दिया है

यही मौका है - नबारुण भट्टाचार्य ( मूल बांग्ला से मेरा अनुवाद - लाल्टू ) यही मौका है , हवा का रुख है ग़रीबों को भगाने का मज़ा आ गया , भगाओ ग़रीबों को कनस्तर पीट कर जानवरों को भगाते हैं जैसे हवा चल पड़ी है ग़रीब अब सही फँसे हैं राक्षस की फूँक से उनकी झोपड़ी उड़ जा रही है पैरों तले सरकती ज़मीन और तेज़ी से गायब हो रही है मज़ा ले - लेकर यह मंज़र भोगने का यही वक्त तय है इतिहास का सीरियल चल रहा है वक्त पैसा है और यही वक्त है ग़रीबों को लूट मारने का ग़रीब अब गहरे जाल में फँस गए हैं वे नहीं जानते कि उनके साथ लेनिन है या लोकनाथ वे नहीं जानते कि गोली चलेगी या नहीं ! वे नहीं जानते कि गाँव - शहर में कोई उन्हें नहीं चाहता इतना न - जानना बुखार का चढ़ना है जब इंसान तो क्या , घर - बार , बर्तन - बाटी सब तितली बन उड़ जाते हैं यही ग़रीब भगाने का वक्त कहलाता है कवियों ने ग़रीबों का साथ छोड़ दिया है उन पर कोई कविता नहीं लिख रहा उनकी शक्ल देखने पर पैर जल जाते ह...