ब्रिक्सिट से हम क्या सीखें ('समयांतर' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) नोट: इस लेख को मैंने 16 जुलाई की सुबह को पोस्ट किया है, पता नहीं कैसे इसमें 7 जून की तारीख दिख रही है -मूल लेख ब्रिक्सिट जनमत संग्रह के तुरंत बाद यानी जून के अंत में लिखा गया था ) आर्थिक वैश्वीकरण के जमाने में माली नज़रिए से ताकतवर किसी मुल्क में आ रहे राजनैतिक झटकों के प्रभाव सारी दुनिया पर दिखते हैं। ब्रिटेन के यूरोपी संघ से निकलने के पक्ष में जनमत से दुनिया भर में तहलका मच गया है। बाज़ार मंदी में है। कहा जा रहा है कि विश्व व्यापार को 200 खरब डॉलर का नुक्सान पहुँचा है। भारत में भी स्टॉक मार्केट में कीमतें धड़धड़ा कर गिर गईं। यह सोचना लाजिम है कि इस प्रकरण से हम क्या सीख सकते हैं। वैसे तो लगता है कि यह सब कुछ आलमी सरमाएदारी का खेल है , और वह है भी , पर इसकी गहराई में इंसानी रिश्तों को बिगाड़ने में प्रतिक्रियाशील ताकतों की लट्ठमार भी है। यूरोप का संघीय ढाँचे में उभर आना उतना ही सही दिखता है , जितना कि भारत की भिन्न राष्ट्रीयताओं का एक राष्ट्र में शामिल होना है। आखिर जब सभ्यताओ...