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Showing posts from June, 2013

यह फिल्म नहीं, है जीवन

एक करीबी मित्र ने टी वी देखना ही बंद नहीं किया , वह सामाजिक - राजनैतिक विषयों पर होने वाली सभाओं में भी नहीं जाता। एक बड़े ही सचेत और बौद्धिक परिवार से आए एक व्यक्ति में ऐसा पलायनवाद देखकर तकलीफ होती है। फिर सोचता हूँ कि मेरे साथ भी कहीं ऐसा ही तो नहीं हो रहा। पर मेरे साथ जो हो रहा है उसमें शायद थोड़ा फर्क है। मैं थक रहा हूँ , गति में पीछे छूट रहा हूँ। हो नहीं पा रहा। बहुत कुछ कहना लिखना चाहता हूँ , पर कर नहीं पा रहा। जीमेल, फेसबुक से आए आलेखों को पढ़ते पढ़ते ही थक जाता हूँ। फिर नियमित काम तो हैं ही। बहरहाल, उत्तराखंड की हाल की दुर्घटनाओं के शुरूआती दिनों में ही 16 जून के जनसत्ता रविवारी में मेरी यह कविता आई थी। अब लगता है कि इस कविता के छपने का यह बड़ा ग़लत वक्त था। जिन्होंने न देखी हो, उनके लिएः यहाँ बारिश , बारिश वहाँ ! यहाँ बारिश , बारिश वहाँ ! टकराती हैं कमरे के दरवाजों से बूँदें आ वहाँ बारिश धुँआधार कि हल्की वह भीग रही कि खिड़की से देख रही ग़र्मी में सुकून या ठंडक में अवसाद ला रही उसे अलग - अलग वर्षाओं में देखता हूँ कमरे में दरवाजे के...

मंथरा के बहाने

कल शाम दोस्तों के साथ द टैमरिंड ट्री नामक रिज़ोर्ट में कुचिपुड़ी नृत्य देखने गया। अच्छी शाम – शुरूआती मानसून की नम हवाएँ , बूँदाबाँदी के आसार , पर हुई नहीं। रामकथा पर कई टुकड़ों में नृत्य। पारंपरिक शुरूआती गान और आखिर में मंगलम। नृत्य या संगीत जैसी कलाओं में मैं विज्ञ तो नहीं हूँ पर रुचि है और तजुर्बे से आलोचनात्मक बिंदु भी ढूँढ लेता हूँ। कुचिपुड़ी आंध्र का शास्त्रीय नृत्य है , जिसमें लोक - संस्कृति की माँग के अनुसार नृत्य के साथ अभिनय भी होता है। कल के नर्त्तक सत्यनारायण राजू का जोर अभिनय पर था। नर्त्तक बेंगलूरू का ही है और निश्चित ही नृत्य और अभिनय दोनों में उसे महारत हासिल है। खासतौर पर दासी मंथरा और हनुमान का अभिनय खूब सराहा गया। मंथरा को जीवंत करते हुए उसने कूबड़ और शक्ल की कुरूपता का अच्छा अभिनय किया। यह देखकर मैं सोचने लगा कि पारंपरिक कलाओं में यह कितना ज़रूरी है कि हम स्थापित पूर्वग्रहों को तोड़ कर चरित्रों की नई व्याख्या न पेश करें। पाठ की पुनर्व्याख्या तो एक बड़ा सवाल है ही। मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे साथी जो स्वयं इन विषयों के विद्वान हैं , किसी ने भी यह सवाल ...