एक करीबी मित्र ने टी वी देखना ही बंद नहीं किया , वह सामाजिक - राजनैतिक विषयों पर होने वाली सभाओं में भी नहीं जाता। एक बड़े ही सचेत और बौद्धिक परिवार से आए एक व्यक्ति में ऐसा पलायनवाद देखकर तकलीफ होती है। फिर सोचता हूँ कि मेरे साथ भी कहीं ऐसा ही तो नहीं हो रहा। पर मेरे साथ जो हो रहा है उसमें शायद थोड़ा फर्क है। मैं थक रहा हूँ , गति में पीछे छूट रहा हूँ। हो नहीं पा रहा। बहुत कुछ कहना लिखना चाहता हूँ , पर कर नहीं पा रहा। जीमेल, फेसबुक से आए आलेखों को पढ़ते पढ़ते ही थक जाता हूँ। फिर नियमित काम तो हैं ही। बहरहाल, उत्तराखंड की हाल की दुर्घटनाओं के शुरूआती दिनों में ही 16 जून के जनसत्ता रविवारी में मेरी यह कविता आई थी। अब लगता है कि इस कविता के छपने का यह बड़ा ग़लत वक्त था। जिन्होंने न देखी हो, उनके लिएः यहाँ बारिश , बारिश वहाँ ! यहाँ बारिश , बारिश वहाँ ! टकराती हैं कमरे के दरवाजों से बूँदें आ वहाँ बारिश धुँआधार कि हल्की वह भीग रही कि खिड़की से देख रही ग़र्मी में सुकून या ठंडक में अवसाद ला रही उसे अलग - अलग वर्षाओं में देखता हूँ कमरे में दरवाजे के...