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Showing posts from April, 2013

अहसास पुराना हो चला था

--> टूटते परमाणु अहसास पुराना हो चला था कि अब प्रवाह धीमा पड़ गया है।  उदासीन सी निश्चितता में दोनों मिलते थे इधर। मुलाकातें गिनती से ज्यादा हो चुकी थीं। दोनों ही जानते थे  कि अब वह कुछ नहीं रह गया था जो कभी उनके बीच  जादू जैसा खिलता था ।     आस - पास की सड़कें , दीवारें सब थक चुकी थीं। लोग - बाग की नज़रों में कोई कौतूहल न रह गया था।  अनिश्चितताएँ , परेशानियाँ मिट रही थीं धीरे धीरे।     क्या उन्हें याद है जब लाइब्रेरी में किताबों से नज़रें उठते ही सिर्फ  एक दूसरे को देखती थीं ;   जब सभाओं में औरों की बतियाती शक्लों में एक दूसरे को देखते थे ;   जब एक दूसरे की आँखों में शरारतें बाँट लेते थे ;   जब फोन पर काम के बहाने लंबी गुफ्तगू सिर्फ इसलिए होती थी  कि दुनिया में तब सिर्फ एक दूसरे की आवाज़ इतनी  मीठी होती थी ? ' याद आती है , पर नहीं आती। ' लगता है यह होना ही था। लंबे अरसे से , महीनों से , सालों से हो चला था।  बहुत पहले कभी संकेत उभरने लगे थे ,   जैसे अनबोए ही उग आए थे क...

डायरी में तेईस अक्तूबर

पिछले पोस्ट के आलेख में मैंने अपनी एक कविता 'लड़ाई की कविता' का ज़िक्र किया है जो फुकुयामा को मे रा जवा ब है। मेरा पहला ऐसा प्रयास नीचे पेस् ट की गई कविता में है, जो तकरीबन 18 साल पहले आई आ ई टी कानपु र में हमारे प्रिय प्रोफेसर अगम प्रसाद शुक्ला द्वारा आयोजित एक सभा में हुए अनुभव से उपजी थी। ए क सत्र में मेरे सुझाव पर मध्य वर्ग के सामाजिक कार्यकर्त् ता ओं के विभाजित व्यक्तित्व पर चर्चा हो रही थी। गाँधीवादी और मार्क्सवादी कार्यकर्त् ता ओं के बीच बहस छिड़ गई थी और मैंने गौर किया कि मेरी प ॉ केट डायरी (पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा प्रकाशित) में इतिहास में उस दिन हु ई कुछ अ नोखी घटनाओं का उल्लेख है। मैंने सबको रोक कर डायरी का वह अंश पढ़ कर सुनाया। बाद में शाम को हमलोग देर तक गाते बतियाते रहे। रात को सोते हुए मैंने सोचा कि कौन कहता है कि इतिहास का अ ंत हो गया। हम हर दिन इतिहास रचते रहते हैं। सही कि फुकुयामा या मार्क्स इ तिहास  के किसी और अर्थ क ी बात करते हैं, पर प्रकारांतर में सभ्यता के विकास क ा वह प्रसंग भी इस कविता के केंद्र में है। यह कविता इसी शीर्षक से मेरे दूसरे संग्र...