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Showing posts from December, 2012

छब्बीस साल पहले लिखी एक रचना

--> किसी दिन तू आएगी तू जो मेरे जन्म से मौत तक मुझसे जुड़ी है तेरे कठिन कोमल हाथों में खिलता तेरे आँसुओं को पहचानता तेरी चाह में भटकता तेरी मांसलता में खुद को छिपाता तेरे दिए बच्चों से खेलता तुझे रौंदता रहा हूँ तुझे तो पता है कितना डरा हुआ हूँ मैं कितना घबराता हूँ तुझसे फिर भी तेरा गला दबोचता हूँ जानता हूँ हर शोषित की तरह तुझे भी पता है कि यह सब बदलेगा किसी दिन तू बाजारों में पत्रिकाओं के मुख - पृष्ठों पर और रसोइयों में मिट्टी के तेल की आग से मरेगी नहीं जानता हूँ किसी दिन तू आएगी मुझे ले चलने उस दिन हमारे शरीर पर शोषण और भूख के कपड़े नहीं होंगे उस दिन हम केवल समानता पहनेंगे देखेंगे चारों ओर सब कुछ बदल गया होगा पार्थिव सौंदर्य में। ( १९८६ )

कविता नहीं

यह कविता 1994 में हंस में छपी थी। *** कविता नहीं कविता में घास होगी जहाँ वह पड़ी थी सारी रात। कविता में उसकी योनि होगी शरीर से अलग। कविता में ईश्वर होगा बैठा उस लिंग पर जिसका शिकार थी वह बच्ची। होंगीं चींटियाँ , सुबह की हल्की किरणें , मंदिरों से आता संगीत। कविता इस समय की कैसे हो ?   आती है बच्ची खून से लथपथ जाँघें ?   बस या ट्रेन में मनोहर कहानियाँ पढ़ेंगे आप सत्यकथा उसके बलात्कार की। हत्या की। कविता नहीं। *** यह कविता ' लोग ही चुनेंगे रंग ' (2010, शिल्पायन ) में शामिल है। एक प्रगतिशील समीक्षक ने ' पुस्तक वार्ता ' में इसे उद्धृत करते हुए यह बतलाया था कि मुझे कविता लिखनी ही नहीं आती। समीक्षक जैसा भी हो , उसकी बात सर माथे पर। इसी संग्रह पर प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने फरवरी 2011 में चंडीगढ़ में एक पूरा व्याख्यान दिया थ ा। इधर ' वागर्थ ' के दिसंबर अंक में साथी कवि विमल कुमार ने घोषित किया है कि 1992 (असल में 1991) में पहला संग्रह आने के बाद मैं सक्रिय नहीं रहा। यह भी सर माथे पर। हिंदी के कवि हैं भाई। शुकर है कि हत्या तो नहीं की , निष्क्रिय ...