आजकल वक्त मिलता भी है तो नियमित काम से ऊब इतनी है कि चिट्ठा लिखा नहीं जा रहा। मंटो और मेंहदी हसन पर औरों के बेहतरीन आलेख पढ़ते हुए मन करता रहा कि मैं भी कुछ लिखूँ,.. बहरहाल फिलहाल एक पुरानी कविताः खयाल खयाल नहीं खयाल खयाल नहीं जिसे डेढ़ घंटे खींचा जा सके यादृच्छ उगता है यादृच्छ अस्त होता है जैसे खिड़की के सामने बायीं ओर से आता है कोई बा - या दा - यीं ओर गायब हो जाता है खयाल खिड़की पर खड़ा होता है कभी खिड़की बंद होती है खिड़की पर खड़े व्यक्ति को कहीं से बुलावा आता है व्यक्ति था या खयाल जो खिड़की पर था यादृच्छ उगता है यादृच्छ अस्त होता है खयाल खयाल नहीं जिसे डेढ़ घंटे गाया जा सके सालों पुराना खयाल भी ताज़ा होता है इसलिए रोता है कोई आखिरी पल तक एक ही खयाल को गाता हुआ। ( वाक् - 2010; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित)