भ्रा जी चले गए। लंबी अस्वस्थता के बाद जाना ही था। फिर भी तकलीफ होती है। मार्च में मिला था तो बिस्तर पर लेटे हुए समझाते रहे कि हमें दुबारा सोचना है कि क्या गलतियाँ हुईं हैं हमसे। फिर अपने छात्र जीवन की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में बतलाने लगे। जुलाई 1983 में विदेश में पी एच डी के दौरान एक महीने के लिए घर आया था। बापू बीमार था। गले का कैंसर था। अंतिम मुलाकात के लिए आया था। उन्हीं दिनों कोलकाता में स्टेट्समैन में पढ़ा कि ' बाबा बोलता है ' शृंखला के नाटकों के जरिए भाई मन्ना सिंह नामक एक व्यक्ति पंजाब में गाँव गाँव में सांप्रदायिक ताकतों और राज्य द्वारा दमन दोनों के खिलाफ चेतना फैला रहा है। फिर 1984 आया। 1985 में मैं देश लौटते ही सितंबर में चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में आ गया। उदारवादी प्रगतिशील छात्रों की एक संस्था ' संस्कृति ' ने भ्रा जी का एक नुक्कड़ नाटक कैंपस के बाज़ार के ठीक सामने हेल्थ सेंटर के पास करवाया। मैंने देखा और तुरंत उन छात्रों के साथ दोस्ती हो गई। उनमें से ज्यादातर जल्दी ही कैंपस छोड़ गए और बाद में वामपंथी राजनैतिक दलों के साथ ज...