परसों एक स्थानीय राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में सईद आलम लिखित, निर्देशित और टाम आल्टर अभिनीत मौलाना आज़ाद पर मोनोलाग देखने गया था। टाम आल्टर पद्मश्री से सम्मानित कलाकार है। आम तौर से सरकारी किस्म के कार्यक्रमों में ऐसे सम्मानित व्यक्तियों का औपचारिक आदर औरों की तुलना में अधिक होता है। पर मैंने इतने बदतमीज़ दर्शक बहुत कम देखे हैं। टाम ने खुद अभिनय के दौरान गुस्सा दिखलाया और बाद में सईद आलम ने भी नाराज़गी व्यक्त की। बार बार सेल फ़ोन बजना, लगातार लोगों का स्टेज के साथ लगे दरवाजों से आना जाना। स्वयं वायस चांसलर या ऐसे ही किसी अधिकारी का पहले रो में बैठकर दफ्तरी कागज़ात देखना और कर्मचारी से बात करना, पता नहीं इन लोगों ने कार्यक्रम रखा क्यों था। हिंदुस्तान में कलाकारों का ऐसा अनुभव आम बात है। लोग नाटक देखने या संगीत का कार्यक्रम देखने नहीं जाते, मेला समझ कर जाते हैं। वक्त पर नहीं आएँगे, सेलफ़ोन पर फूहड़ बाजे वाली रिंग सुनेंगे, साथ दूध पीते या उससे थोड़े बड़े बच्चों को लाएँगे कि चल बच्चू देख नौटंकी देख। कलाओं के प्रति पढ़े लिखे लोगों में ऐसा संकीर्ण और असभ्य रवैया क्यों है? पुराने मित्र...