मज़ा गालियों का आना था, पर बहुत दिनों के बाद मैं भरपूर रोया। वैसे तो गाली गलौज़ से मुझे चिढ़ है, पर कहानी कविताओं में सही ढंग और सही प्रसंग में गालियों का इस्तेमाल हो, तो कोई दिक्कत नहीं, बिना गालियों के कई बार बात अधूरी लगती है या कहानियों में चरित्र अधूरे लगते हैं। तो गालियों के सरताज राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'ओंस की बूँद' पढ़ रहा था। 'आधा गाँव' और 'टोपी शुक्ला' कई साल पहले पढ़े थे। 'ओंस की बूँद' खरीदे भी कई साल हो गए, पर पढ़ा नहीं था। पढ़ने लगा तो आँसू हैं कि रुकते नहीं। भेदभाव की राजनीति से आम इंसानी रिश्तों में जो दरारें आती हैं, शायद ऐसी सभी विड़ंबनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मुझे सांप्रदायिक कारणों से उपजी स्थितियाँ करती हैं। 1979 में रामनवमी के दिनों में जमशेदपुर में दंगे हुए, एक जगह थी जिसका नाम था 'भालोबासा'; बांग्ला का शब्द है, अर्थ है प्यार। वहाँ ऐम्बुलेंस में छिपा कर ले जाए जा रहे बच्चों औरतों को दरिंदों ने निकाल कर मारा था। अपने एक मित्र को इस बात का जिक्र कर खत लिखते हुए मैं यूँ रो पड़ा था कि खत भीग गया था। रोने की पुरानी आदत ह...