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Showing posts from September, 2007

माई मेरे नैनन बान परी री

मज़ा गालियों का आना था, पर बहुत दिनों के बाद मैं भरपूर रोया। वैसे तो गाली गलौज़ से मुझे चिढ़ है, पर कहानी कविताओं में सही ढंग और सही प्रसंग में गालियों का इस्तेमाल हो, तो कोई दिक्कत नहीं, बिना गालियों के कई बार बात अधूरी लगती है या कहानियों में चरित्र अधूरे लगते हैं। तो गालियों के सरताज राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'ओंस की बूँद' पढ़ रहा था। 'आधा गाँव' और 'टोपी शुक्ला' कई साल पहले पढ़े थे। 'ओंस की बूँद' खरीदे भी कई साल हो गए, पर पढ़ा नहीं था। पढ़ने लगा तो आँसू हैं कि रुकते नहीं। भेदभाव की राजनीति से आम इंसानी रिश्तों में जो दरारें आती हैं, शायद ऐसी सभी विड़ंबनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मुझे सांप्रदायिक कारणों से उपजी स्थितियाँ करती हैं। 1979 में रामनवमी के दिनों में जमशेदपुर में दंगे हुए, एक जगह थी जिसका नाम था 'भालोबासा'; बांग्ला का शब्द है, अर्थ है प्यार। वहाँ ऐम्बुलेंस में छिपा कर ले जाए जा रहे बच्चों औरतों को दरिंदों ने निकाल कर मारा था। अपने एक मित्र को इस बात का जिक्र कर खत लिखते हुए मैं यूँ रो पड़ा था कि खत भीग गया था। रोने की पुरानी आदत ह...

इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी

मेरा औपचारिक नाम मेरे पैतृक धर्म को उजागर करता है। मेरे पिता सिख थे। बचपन से ही हम लोगों ने सिख धर्म के बारे में जाना-सीखा। विरासत में जो कुछ भी मुझे सिख धर्म और आदर्शों से मिला है, मुझे उस पर गर्व है। माँ हिंदू है तो घर में मिलीजुली संस्कृति मिली। अब मैं धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता और वैज्ञानिक चिंतन में प्रशिक्षित होने और विज्ञान-कर्मी होते हुए भी सचमुच के धार्मिक लोगों का सम्मान करता हूँ। हाल में तीन सिख छात्र मेरे पास आए और उन्होंने गुजारिश की कि मैं होस्टल में एक कमरा उन्हें दिलवाने में मदद करुँ, जहाँ सिखों के धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहब जी' से जुड़ी कुछ साँचियाँ रखी जा सकें। मुझे चिंता हुई कि यह बड़ा मुश्किल होगा, होस्टल में कमरा मिलना कठिन है, फिर एक धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐेसा हो तो औरों के लिए भी करना होगा। सभी के लिए कमरा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर किसी की सँभाल में जरा भी गफलत हुई तो समस्या हो सकती है। मैं जिस संस्थान में अध्यापक हूँ, वह भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के शीर्षतम शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। स्वाभाविक है, कागजी तौर पर हमारे छात्र देश के सबसे बेहत...

सात कविताएँ: 1999

यह भी। सात कविताएँ १ वह जो बार बार पास आता है क्या उसे पता है वह क्या चाहता है वह जाता है लौटकर नाराज़गी के मुहावरों के किले गढ़ भेजता है शब्दों की पतंगें मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है वैसे ही लिखनी है उस पर भी मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की चाँदनी में लौटते हुए एक चाँद उसके लिए देखता हूँ चाँदनी हम दोनों को छूती पार करती असंख्य वन-पर्वत बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों को पार करती चाँदनी उस पर कविता लिखते हुए लिखता हूँ तांडव गीत तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो। २ कराची में भी कोई चाँद देखता है युद्ध सरदार परेशान ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है। आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे। ३ चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं फिर...