प्रेम
पर पहरा क्यों ?
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प्रेम
मानव को प्रकृति का सबसे खूबसूरत
उपहार है। हर क्रांतिकारी का
मूल स्वप्न प्रेम होता है।
लगातार प्रेमविहीन हो रहे
समाज में प्रेम की पुनर्प्रतिष्ठा
के लिए हम सबको सोचना है।
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क्या
किशोर-किशोरियों
का सार्वजनिक जगहों पर एक साथ
घूमना और परस्पर प्रेम प्रदर्शन
करना ठीक है?
पंचकूला
पुलिस द्वारा बुजुर्गों की
शिकायत पर युवाओं को पकड़ने
और उनके माता-पिता
को बुलाने की घटना से यह बात
चर्चा का विषय बनी है। अधिकतर
लोग इसे नैतिकता का सवाल मानते
हैं,
जबकि
युवा इसे अक्सर तिल का ताड़
बनाने की मूर्खता मानते हैं।
आज
इलैक्ट्रानिक मीडिया पर जैसे
दृश्य हम देखते हैं,
उसके
बाद युवाओं के प्रेम पर सवाल
उठाना वाजिब नहीं लगता। अपने
घर में बैठकर टीवी पर हर पांच
मिनट में चुम्बनों से भरा
जांघिया पहना मर्द,
कनिष्ठिका
उठाए आई वाना डू,
कुछ
भी हो सकता है के सरकते वस्त्र
आदि-आदि
देखने में हमें कोई आपत्ति
नहीं। यौवन का प्रेम जो कुदरती
है,-
अरे
बाप रे,
कुछ
हो गया तो?
छिः
छिः, जहां ये युवा बैठते हैं,
हम
वहां से गुजर भी नहीं सकते।
जब
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नंगेज
की भरमार है और घटिया,
बीमार
नंगेज दिखाकर हमारी चाहतों
का शोषण करने के लिए अंतड़ियों
तक पहुंचती पूंजीवादी व्यवस्था
की बौछार हो रही है,
तब
कोई सरकार,
कोई
पुलिस परेशान नहीं। यह तो
पूंजी निवेश है,
साबुन
के साथ-साथ
दिमाग में कुछ बीमारी भी घुसे
तो क्या हुआ। किसी मित्र के
साथ खाना मत खाइए,
डांस
मत कीजिए,
बस
मौके की ताक में रहिए कि कोई
न देखे तो तुरंत अपना लिजलिजा
हाथ उसके अंगों पर मारिए। औरत
इंसान नहीं महज उपयोग की वस्तु
है। यह मानसिकता है।
प्रेम
पर रोक लगाकर कुंठित मन पर
इलेक्ट्रॉनिक चमक-दमक
के साथ औरतों के वस्तुकरण का
हमला जारी है। चूंकि प्रेम
स्वीकार्य ही नहीं,
तो
प्रेम के बारे में बात क्या
करें?
इसलिए
जिम्मेदारी से प्रेम निभाने
की बातचीत भी नहीं हो सकती।
समुचित यौन शिक्षा,
गैर
जिम्मेदार यौन संबंध के खतरे,
एड्स
जैसी बीमारियां -
कोई
बातचीत खुले आम नहीं होगी।
छिप-छिप
कर बातचीत करें,
सही-गलत
बातें जानें -
हो
सकता है संस्कृति के ठेकेदारों
को यह ठीक लगता हो,
पर
सच्चाई यह है कि इससे देश और
समाज अंधेरे में डूबता ही
जाएगा।
पुरुष-प्रधान
समाज में औरतों और बच्चों को
सदियों से यौन-शोषण
का शिकार बनाया गया है।
सुविधा-संपन्न
और ताकतवर लोगों ने विपन्न
औरतों को,
जैसे
जमींदारों ने खेत मजूरों को
शारीरिक रूप से सताया है। चाहत
के पूंजीवादी शोषण का इलेक्ट्रॉनिक
स्वरुप उसी कड़ी में औरतों और
बच्चों पर जुल्म को बढ़ाता है।
प्रेम महज दो लोगों का परस्पर
बंधन नहीं,
कुंठाग्रस्त
और बीमार समाज के खिलाफ विद्रोह
भी है। इसीलिए प्रेम-प्रसंग
को जीवन में होते देखना समाज
के प्रतिष्ठित वर्गों को
खतरनाक लगता है। प्रेम की
पुनर्प्रतिष्ठा हर विद्रोही
का नारा होना चाहिए। इसीलिए
कवि जो स्वभाव से ही विद्रोही
होते हैं,
हमेशा
प्रेम-राग
में डूबे होते हैं।
हमारे
समाज में प्रेम हमेशा ही
विवादास्पद रहा है। प्रेमियों
की तड़प को अपनी तड़प मान लेना
फिल्मों,
नाटकों
को देखते हुए या कहानी-उपन्यास
पढ़ते हुए तो ठीक है,
पर
अपनी ज़िंदगी में खुद को छोड़कर
बाकी सबके प्रेम में खोट ढूंढना
हमारी सांस्कृतिक पहचान है।
इसलिए अक्सर समझदार लोग भी
इस विषय पर बोलते हुए संस्कृति
का हवाला देते हैं और ‘ऐसा
होगा तो गली-गली
में लोग लेटे हुए मिलेंगे,’
जैसी
घटिया बातें करते हुए बहस करते
हैं। इनमें से कुछेक ने ही
फिल्मी ही सही,
राधा-कृष्ण
की रास-लीलाओं
के बारे में देखा-सुना
होता है। शंकराचार्य की
सौंदर्यलहरी में शिव पार्वती
के सौंदर्य की स्तुति तक तो
इनकी पहुंच हो नहीं सकती।
हीर-रांझा,
शीरीं-फरहाद
जैसी लोककथाएं इनकी स्मृति
से विलुप्त हो चुकी हैं। प्रेम
जैसे ही प्रकृति के अन्य सुंदर
अवदानों को नष्ट करने में भी
लोग तत्पर रहते हैं। मसलन सुबह
के नैसर्गिक सौंदर्य को
मंदिर-गुरुद्वारों
से यांत्रिक शोर से नष्ट करने
में ये संस्कृति और परंपरा
की महानता देखते हैं। प्रेम
में खोट ढूंढने वाले ये महानुभाव
खुद ही इतने बीमार हैं कि इनको
धर्म के नाम पर सैकड़ों का खून
बहाने में बड़ा आनंद आता है।
कल्पना चावला अंतरिक्ष में
उड़ने का सपना देखती रहे,
हम
तो मंदिर-मस्जिद
के लिए लड़ेंगे।
देशभर
में ध्वनि-प्रदूषण
के खिलाफ कानून बने हैं। सभी
डॉक्टर,
सभी
वैज्ञानिक आपसे कहेंगे कि
ध्वनि-प्रदूषण
से अनगिनत बीमारियां होती
हैं। कोशिश कीजिये कि पुलिस
को सुबह मंदिर-गुरुद्वारों-मस्जिदों
से होते ध्वनि प्रदूषण रोकने
के लिए कहें। पर पुलिस भला इसे
क्यों रोके?
लेकिन
दो युवा परस्पर स्नेह प्रकट
करने पार्क में गए हैं,
तो
तुरंत पुलिस को यकीन हो जाता
है कि यह समाज,
देश,
संस्कृति
व नैतिकता के खिलाफ बहुत बड़ा
षड़यंत्र है। युवाओं में अधिकतर,
सरकार
चुनने वाले अठारह से अधिक उम्र
के नागरिक हैं,
जिनके
संवैधानिक अधिकारों का खुलेआम
हनन करने में पुलिस को कोई
शर्म नहीं। पूरे प्रदेश में
नशीले पदार्थों की ट्रैफिकिंग,
धनवानों
और राजनैतिक शक्ति संपन्न
लोगों के लिए गैर-कानूनी
यौन-कर्मियों
की ट्रैफिकिंग --
सब
लोग जानते हैं ये समस्याएं
कितनी गंभीर हैं,
पर
पुलिस की आंखों के सामने सिर्फ
ये युवा हैं,
जो
आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने
के कारण अभी कमजोर हैं। इसलिए
उन्हीं को पकड़कर मां-बाप
से वाहवाही क्यों न लूटी जाए।
मां-बाप
क्यों चाहते हैं कि उनके बच्चे
डेटिंग न करें?
इसलिए
कि उनमें डर है। जाति-प्रथा
की कुरीतियों से ग्रस्त इस
समाज में प्रेम विद्रोह का
बिगुल बजाता है। इसके अलावा
जो बच्चा अपने आप स्नेह संबंध
का निर्णय ले सकता है,
उस
पर नियंत्रण कैसे रखा जाए?
खास
तौर पर बेटियों के माता-पिता
तो इसी चिंता से परेशान रहते
हैं कि कुछ हो गया तो शादी कैसे
करवाएंगे?
तो
आखिर इसका समाधान क्या है?
जो
प्राकृतिक है -
उसे
रोका नहीं जा सकता। सही यह है
कि माता-पिता
और संतान के बीच स्वाभाविक
संबंध हों। अपनी चाहतों के
बारे में युवाओं को माता-पिता
के साथ निडर होकर बातचीत करने
की छूट होनी चाहिए। ऐसा होता
नहीं है क्योंकि बुजुर्गियत
अक्सर ‘हम बेहतर जानते हैं’
का बोझ लिए आती है। पीढ़ियों
में ज्ञान के साथ-साथ
अहसासों-जज्बातों
का जैसा फर्क आज है,
ऐसा
पहले कभी न था। वैसे भी किशोर
वय को पहुंच चुकी संतान को
बच्चे जैसा नहीं,
मित्र
जैसा मानना चाहिए। मां-बाप
को अपना अनुभव बांटना चाहिए,
न
कि उम्र और शक्ति का डंडा बरतना
चाहिए।
अगर
प्रेम के यौन संबंध में परिणत
होने की संभावना है,
तो
संस्कृति पर खोखला भाषण इसे
रोक नहीं सकता। हमें युवाओं
को यौन-संबंध
की जिम्मेदारियों के बारे
में सचेत करना चाहिए। साथ ही
उनमें खुली बातचीत का हौसला
बढ़ाना चाहिए,
ताकि
अगर वे किसी समस्या में हों,
तो
तुरंत उसका उपचार कर सकें।
कम उम्र में गर्भ से बचने के
लिए यौन-संबंध
से परहेज के लिए भी उन्हें
समझाया जा सकता है। युवाओं
में आवेग और आवेश को बांधने
की क्षमता भी होती है,
बशर्तें
उन्हें यह विश्वास हो कि यह
आवश्यक है।
युवाओं
को भी अपने माता-पिता
की सीमाओं और चिंताओं को समझना
चाहिए। मां-बाप
ने वर्षों तकलीफें झेलकर संतान
को बड़ा किया है। उसके सुरक्षित
भविष्य के लिए उनके सही-गलत
विचार हैं। रात-रात
नींद खोकर उन्होंने बच्चों
के बारे में सोचा है। इसलिए
उन्हें लगता है कि बच्चे पर,
उसकी
गतिविधियों पर नियंत्रण का
हक उन्हें है। जब बच्चा युवावस्था
में आता है,
उसे
संजीदा तरीके से मां-बाप
को समझाना है कि वह बड़ा हो गया
है। अपने मां-बाप
के साथ मन खोलकर उसे बातें
करनी चाहिए। उन मां-बाप
से क्या शर्म,
जिन्होंने
वर्षों बच्चे को गोद में पाला
है। मां-बाप
सख्ती अपनाते हैं तो धैर्य
के साथ उसका विरोध करना है।
साथ ही युवाओं को समाज की बदलती
मान्यताओं को परखना है। हर
बदलती मान्यता ठीक हो,
जरुरी
नहीं। युवाओं में से असामाजिक
तत्वों को पहचान कर उन्हें
पुलिस या उचित अधिकारियों को
सौंपना भी उनकी अपनी जिम्मेदारी
होनी चाहिए। गैर-जिम्मेदाराना
हरकतों से न केवल उन पर प्रतिबंध
बढ़ेंगे,
उनका
मानसिक संतुलन भी बिगड़ेगा।
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