('समयांतर' पत्रिका के ताज़ा अंक में प्रकाशित - इसे लिखने के बाद से अमेरिका में ओबामा सरकार ने स्नूपिंग पर नियंत्रण के लिए कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए हैं)
प्रसिद्ध
ग्रीक फिल्म निर्देशक कोस्ता
गाव्रास की एक चर्चित फिल्म
है - स्टेट
ऑफ सीज़। इसकी कहानी अमेरिकी
खुफिया एजेंसियों द्वारा
दक्षिणी अमेरिका के देश उरुग्वे
में दमन कारी सरकार का विरोध
करती ताकतों को खत्म करने की
साजिशों पर आधारित है। ऐसी
ही एक फिल्म जर्मन निर्देशक
फासबिंडर की 'द
थर्ड जेनरेशन' है,
जो एक सुरक्षा
से जुड़े कंप्यूटर सिस्टम्स
की निर्माता कंपनी द्वारा
अपने उत्पाद की बड़ी तादाद में
बिक्री सुनिश्चित करने के
लिए जबरन आतंक और विस्फोट की
घटनाएँ करवाने पर आधारित है।
सत्तर के दशक की ये फिल्में
महज कपोल कल्पना नहीं थीं।
शत्रु देश या सरकार विरोधी
ताकतों की गतिविधियों की
जानकारी रखने और उन्हें नुकसान
पहुँचाने के लिए गुप्तचरों
द्वारा षड़यंत्र के उदाहरण
इतिहास में बहुत पुराने हैं।
हमारे उपमहाद्वीप में तरह-तरह
के गुप्तचरों की कथाएँ मिलती
हैं, जिनमें
विषकन्याओं जैसे अजूबे भी
हैं। अधिकतर लोग ऐसी रोमांचक
कहानियों को पढ़कर - क्या
बात - कहकर
भूल जाते हैं। इसलिए जब जूलियन
आसांज के विकीलीक्स या एडवर्ड
स्नोडेन की अमेरिकी राष्ट्रीय
सुरक्षा एजेंसी (नैशनल
सीक्योरिटी एजेंसी - एन
एस ए) द्वारा
दुनिया भर में अवैध रूप से
जासूसी की खबर आती है तो वे
चौंक जाते हैं। आखिर जिस मुल्क
का वार्षिक निर्यात का बड़ा
हिस्सा शस्त्रों के सौदे का
हो, जिसने
दुनिया भर में अत्याचारी
शासकों और व्यवस्थाओं को अपने
हित में सत्ता में बनाए रखा
हो, वहाँ
की खुफिया एजेंसियाँ दूध में
धुली तो नहीं हो सकतीं। अमेरिका
तो क्या, भारत
की रॉ और पाकिस्तान की आई एस
आई का काम क्या यही नहीं कि
'दुश्मन'
पर खुफिया
नज़र रखे और जब तब उसके खिलाफ
षड़यंत्र रचे?
ये
खुफिया गतिविधियाँ तब तक
सवालों के दायरे में नहीं आतीं
जब तक कि कोई खुलासा न हो।
अन्याय और दमन की तमाम सूचनाएँ
उपलब्ध होने के बावजूद आधुनिक
'बुर्ज़ुआ'
व्यवस्थाओं
को अपने अधिकतर नागरिकों का
समर्थन इसी झूठ के भरोसे मिलता
है कि ये न्याय-आधारित
व्यवस्थाएँ हैं। अधिकतर नागरिक
यह मानते हैं कि सरकारें ऐसा
कुछ नहीं करेंगीं जो नैतिक
रूप से या वैश्विक या राष्ट्रीय
कानूनों के अनुसार अवैध हो।
विश्व-स्तर
पर भी यह नाटक चलता रहता है कि
कहीं कुछ ग़लत नहीं हो सकता,
आखिर सरकारें
समझदार लोगों के हाथों में
हैं। अगर कुछ छिपे-छिपे
ग़लत हो भी रहा हो तो वह बुरे
(evil) लोगों
से बचे रहने के लिए है। भारत
में ऐसे लोगों की तादाद कम
नहीं जो कहेंगे कि हमारा देश
कभी ग़लत तरीके नहीं अपनाता,
पर वे सब
छिपे-छिपे
मौका मिले तो पाकिस्तान या
चीन को उड़ा डालनेे को तैयार
मिलेंगे। ऐसा ही कमोबेश हर
देश में है। अगर इन्हें कहा
जाए कि इन सभी देशों की सरकारें
अनैतिक और गैरकानूनी रूप से
अपने और दूसरे देशों के नागरिकों
पर निगरानी रख रही हैं तो ये
इसे महज दिमागी विकृति कह कर
उड़ा देंगे। जब खुलासे होते
हैं तो पता नहीं ऐसे लोगों के
साथ क्या बीतती होगी। अधिकतर
तो सच को सच मानने को तैयार ही
नहीं होंगे।
बहरहाल
अमेरिकी एन एस ए द्वारा दुनिया
भर से एकत्रित डिजिटल सूचना
के बारे में जो खुलासे हुए
हैं, उससे
लोकतांत्रिक 'बुर्ज़ुआ'
सरकारों के
नैतिक मानदंडों पर हमेशा से
उठते सवाल खुले मैदान में आ
गए हैं। इसके पहले पिछले सात
सालों से जूलियन असांज द्वारा
स्थापित संस्था विकीलीक्स
ने लाखों की तादाद में पश्चिमी
मुल्कों, खासकर
अमेरिका, के
दुनिया भर में स्थित दूतावासों
से अपनी सरकार को भेजे गुप्त
संदेशों के दस्तावेजों को
सार्वजनिक कर तहलका मचा रखा
था। गौरतलब यह है कि इस प्रकरण
में तमाम जानकारियाँ मिलने
के बावजूद किसी भी भ्रष्ट
व्यक्ति के खिलाफ कोई मुकदमा
नहीं चला, उल्टा
यह हुआ कि असांज स्वयं झूठे
इल्ज़ामों और गिरफ्तारियों
से बचता मारा मारा फिरता रहा
और आखिरकार लंदन में इक्वाडोर
के दूतावास में उसे शरण मिली।
जिस अमेरिकी सिपाही ब्रैडली
मैनिंग ने सूचना भेज कर विकीलीक्स
की मदद की थी, वह
स्वयं जेल में कैद है।
अभी
पिछले कोई छ: महीनों
से जो शोर मचा है, उसे
चलती अंग्रेज़़ी में स्नूपिंग
कहते हैं। इसका मतलब किसी
व्यक्ति या कंपनी के बारे में
सूचनाओं की अनधिकृत तरीके से
जानकारी प्राप्त करना है। यह
कुछ ऐसा है जैसे कि किसी के
अनजाने कोई उसकी बातचीत सुन
रहा हो। ऐसी हरकत को असभ्य
आचरण माना जाता है। पर आज की
स्नूपिंग महज ई-डाक
के एक आदमी से दूसरे आदमी तक
जाने के बीच या किसी के टाइप
करने के दौरान शब्दों को पढ़
लेना मात्र नहीं है। खासतौर
पर प्रशिक्षित विशेषज्ञों
से सॉफ्टवेयर पैकेज बनवाकर
लोगों के अकाउंट "हैक"
कर यानी उनके
जाने बिना उनके अकाउंट में
लॉग-इन
कर उनकी फाइलें पढ़ना, यह
स्नूपिंग है। एन एस ए अरसे से
यह काम करती आ रही थी। इसे
करवाने के लिए सॉफ्टवेयर
कंपनियों को ठेके भी दिए गए
थे। सूचना प्रौद्योगिकी या
आई टी प्रशिक्षित युवा साधारण
से असाधारण, कई
तरह के लोगों के या कंपनियों
के अकाउंट के पासवर्ड "क्रैक"
करते (ताड़
लेते) और
फिर उनके अकाउंट में घुस कर
सारी जानकारी प्राप्त कर लेते
हैं। सूचना प्रौद्योगिकी में
अक्सर मजेदार तकनीकी नाम भी
रखे जाते हैं। 'स्नूपिंग'
तकनीकी शब्द
भी है, जिसका
मतलब ऐसे सॉफ्टवेयर से भी होता
है जो एक बड़ी तादाद में काम कर
रहे लोगों (यानी
कंप्यूटर्स) के
नेटवर्क में आते जाते सूचना
प्रवाह की निगरानी के लिए
इस्तेमाल होता है - ऐसी
निगरानी जो सिर्फ तकनीकी
कारणों से है कि कहीं किसी
कारण से कोई अवरोध न हो (जैसे
अगर ग़लती से क्षमता से अधिक
आयतन की सूचना भेजी जा रही हो
तो प्रवाह धीमा पड़ सकता है,
आदि)।
जो केंद्रीय कंप्यूटर इस तरह
का विश्लेषण (नेटवर्क
ट्रैफिक एनालिसिस) करता
है, उसे
'स्नूपिंग
सर्वर' कहते
हैं। यह विश्लेषण सूचना (डिजिटल
डेटा) के
प्रभावी प्रवाह के लिए जरूरी
होता है।
स्नूपिंग-कथा
अमेरिकी एन एस ए मात्र की नहीं
है। बी जे पी के प्रधान मंत्री
पद के उम्मीदवार के निर्देश
पर गुजरात के अमित शाह द्वारा
एक बेंगलूरु में कार्यरत एक
युवा स्त्री के फोन पर वार्त्तालाप
आदि को गैरकानूनी ढंग से सुनने
पर जो शोर मचा है, वह
भी स्नूपिंग है। बहरहाल अमेरिकी
खुफिया स्नूपिंग कार्रवाई
के पीछे नाइन-इलेवेन
(11 सितंबर
2001) वाली
उस घटना का बहाना दिया जा रहा
है, जिसमें
ओसामा बिन लादेन के अल-कायदा
संगठन ने न्यूयॉर्क स्थित
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दोनों
मीनारों को हवाई जहाजों की
टक्कर से ध्वस्त कर दिया था।
कहते हैं कि उस भयंकर घटना के
बाद से ही एन एस ए की स्नूपिंग
सक्रियता तेज हुई है। पर यह
कोई खास अर्थ नहीं रखता,
क्योंकि
जैसा हमने ऊपर लिखा है,
खुफिया
स्नूपिंग हमेशा ही होती रही
है। यह अलग बात है कि इंटरनेट
और मोबाइल फ़ोनों का उपयोग
पिछले एक दशक में जितना व्यापक
हुआ है, इससे
स्नूपिंग के लिए इंटरनेट पर
चल रहे सूचना आदान-प्रदान
पर ध्यान ज्यादा गया है। यानी
पहले इंटरनेट और मोबाइल फ़ोनों
के जरिए सूचना-प्रसार
पर इतना ध्यान नहीं था,
जितना आज
है। अमेरिका के मेरीलैंड
प्रांत के फोर्ट मीड इलाके
में दैत्याकार एंटीना लगे
हुए हैं, जिनका
मकसद यही है कि इलेक्ट्रॉनिक
जासूस और साइबरयोद्धा भरपूर
उल्लास के साथ दूसरों की
कानाफूसी पकड़ने के पवित्र
कर्म में जुट सकें। इसके लिए
जो साइबर-शस्त्र
मौजूद हैं, उनमें
से एक पर तो हाल के शोरगुल के
बाद प्रतिबंध लगा दिया गया
है। इन्हें "ज़ीरो-डेज़"
कहा जाता
है, क्योंकि
ये कंप्यूटर्स में इस्तेमाल
हो रहे प्रोग्राम (कोड)
में अभी (आज
से शून्य दिन) से
पहले तक पता न लग पाई त्रुटियों
की जानकारी पर आधारित है। ऐसी
ही कुछ त्रुटिओं के आधार पर
ईरान के नातांज़ स्थित नाभिकीय
संयंत्र पर हमला किया गया था।
इस तकनीक पर प्रतिबंध लगते
ही राष्ट्रवादी देशभक्त बाजों
की चीखें तीव्र हो गई हैं और
इसे एकपक्षीय निरस्त्रीकरण
कहा जा रहा है। विशेषज्ञ चीख
रहे हैं - देखो,
देखो,
हम तो मैदाने-जंग
से भाग रहे हैं, चीन,
रूस,
ईरान,
सभी खूँखार
अपराधी गिरोह इस तकनीक का
इस्तेमाल कर हम पर हमला करने
वाले हैं। युद्ध सरदारों का
यही तर्क होता है और यह सार्वभौमिक
है। एक पुरानी चीनी कहानी याद
आती है - देखो,
देखो,
गड़म आ रहा
है।
अब
हम आलेख के मुख्य विषय यानी
अमेरिकी संस्था एन एस ए और
उसकी सहयोगी संस्थाओं द्वारा
दुनिया भर में चल रही गैरकानूनी
स्नूपिंग पर आते हैं। इस
कथा में मौजूदा नायक,
तीस वर्ष का
अमेरिकी कंप्यूटर विशेषज्ञ
एडवर्ड जोसेफ स्नोडेन,
कुख्यात
गुप्तचर संस्था सी आई ए का
कर्मचारी रह चुका है। एन एस
ए के लिए बूज़ एलेन हैमिल्टन
नामक कंपनी के ठेके पर काम
करते हुए उसने एन एस ए और ब्रिटेन
की संस्था जी सी एच क्यू
(गवर्नमेंट
कम्युनिकशंस हेडक्वार्टर्स
– सरकारी सूचना प्रसारण
मुख्यालय) द्वारा
2008 से
2011 तक
की स्नूपिंग के 17 लाख
दस्तावेज इकट्ठे किए,
जिनको उसने
न्यूयॉर्क टाइम्स, द
वाशिंग्टन पोस्ट, गार्डियन
(लंदन)
और देयर
स्पीगेल (जर्मनी)
अखबारों को
सौंप दिए। जून 2013 से
शुरू हुए इन खुलासों की शृंखला
में 'प्रिज़्म',
'एक्स-की-स्कोर'
और 'टेंपोरा'
आदि इंटरनेट
निगरानी प्रोजेक्ट्स सार्वजनिक
किए गए। नवंबर 2013 तक
'गार्डियन'
ने कुल लीक
की गई जानकारी का 1% उजागर
कर दिया था और यह घोषणा भी की
कि अभी तो बड़े भंडाफोड़ और होने
हैं।
बचपन
से चिंताशील और संवेदनशील
माने जाने वाले और खुद को बौद्ध
धर्म का अनुयायी मानने वाले
स्नोडेन को अपनी कारगुजारी
को लिए भुगतना पड़ा है। अमेरिकी
इतिहास में ऐसे 'ह्विसल-ब्लोअर
(सावधानी
की सीटी बजाने वाले)' होते
रहे हैं, पर
यह कृत्य अब तक का सबसे बड़ा
'लीक'
माना जा रहा
है। स्नोडेन को हीरो,
ह्विसल-ब्लोअर,
व्यवस्था
विरोधी, गद्दार,
देशभक्त,
हर तरह की
उपाधि से नवाजा जा रहा है।
स्नोडेन का कहना है कि वह आम
लोगों को बतलाना चाहता है कि
उनके नाम पर उनके हितों के
खिलाफ क्या किया जा रहा है।
इसमें कोई
शक नहीं कि इन दस्तावेजों के
छपने पर न केवल अमेरिका से
बाहर, बल्कि
अमेरिका में भी आज राष्ट्रीय
सुरक्षा, व्यापक
स्तर पर आम निगरानी पर व्यापक
बहस छिड़ गई है और निजी सूचनाओं
की गोपनीयता के अधिकारों को
लेकर जद्दोजहद बढ़ गई है।
इन
दस्तावेजों से पता चलता है
कि अमेरिका अपने 'पाँच
आँख' सहयोगियों,
यू के,
कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया
और न्यूज़ीलैंड के साथ मिलकर
विश्व-स्तर
पर ऐसी खुफिया निगरानी चलाता
रहा है, जिसमें
यूरोपियन यूनियन के वरिष्ठ
अधिकारियों, अफ्रीकी
राष्ट्रप्रमुखों और उनके
परिवार के सदस्यों समेत कई
विदेशी नेताओं, संयुक्त
राष्ट्र संघ की संस्थाओं और
ऐसी दूसरी राहत संस्थाओं के
निर्देशकों, खनिज
तेल और वित्त मंत्रालयों के
अधिकारियों की आपसी बातचीत
पर निगरानी रखी गई। इन विदेशी
नेताओं में अमेरिका के सहयोगी
देश इज़रायल, फ्रांस
और जर्मनी के नेता भी शामिल
हैं। स्नूपिंग पर ज्यादातर
शोर इन्हीं मित्र देशों में
मचा है और सामयिक तौर पर थोड़ा
आपसी तनाव भी दिखा है,
जिसके चलते
प्रेसिडेंट ओबामा को एन एस ए
की गतिविधियों पर रोक लगाने
के लिए विशेष समिति बनानी पड़ी
है। अमेरिकी सरकार की मुख्य
शाखाओं- राजनैतिक,
प्रशासनिक
और न्यायिक, तीनों
से प्रमुख अधिकारियों ने माँग
रखी है कि एन एस ए पर लगाम कसी
जाए। सुनवाई और जाँच के बाद
एक संघीय न्यायाधीश ने हाल
में घोषणा की है कि इस तरह की
खुफिया निगरानी से न केवल
विदेशियों, बल्कि
अमेरिकी नागरिकों की निजी और
सामाजिक स्वाधीनता पर आँच
आती है और इस तरह यह बेशक अमेरिकी
संविधान में इन हकों से जुड़े
तीसरे से पाँचवें संशोधनों
के खिलाफ जाता है, जो
निजी गोपनीयता और मानव अधिकारों
की पुष्टि करते हैं। ओबामा
की विशेष समिति ने एन एस ए की
कार्य प्रणाली में व्यापक
सुधार के लिए कई सुझाव दिए
हैं, जो
मुख्यत: उनकी
अब तक की चल रही कई कार्रवाइयों
पर थोड़ी बहुत रोक हैं।
स्नोडेन
द्वारा साझा किए गए दस्तावेज
अधिकतर ब्रिटिश खुफिया केंद्रों
से आई तकनीकी दस्तावेज हैं।
इनमें मुख्यत: कृत्रिम
उपग्रहों द्वारा प्रसारित
अंतर्राष्ट्रीय सूचनाओं को
पढ़कर तैयार किए गए विश्लेषण
हैं। निगरानी के लिए तय किए
गए टार्गेट्स में संदिग्ध
आतंकवादी और खाड़कू भी हैं।
इन दस्तावेजों से सारी बातें
पता नहीं चलतीं, पर
यह पता चलता है कि कहीं और
अपेक्षाकृत बड़े डेटाबेस में
फाइलें तैयार पड़ी हैं जिनमें
अधिक विस्तार से सारी बातचीत
दर्ज़ है। इन टार्गेट्स में
से एक, भूतपूर्व
इज़रायली प्रधान-मंत्री
का कहना है कि उनकी बातचीत पर
निगरानी का कोई औचित्य नहीं
है, क्योंकि
अपनी सबसे गोपनीय बातचीत वे
प्रेसिडेंट बुश के साथ निजी
मुलाकातों के दौरान करते थे।
पर इनमें यूरोपियन कमीशन के
उपाध्यक्ष स्पेन के होवाकिन
अलमुनिया भी शामिल हैं,
जिनकी विभिन्न
जिम्मेदारियों में यूरोप की
विभिन्न आर्थिक गड़बड़ियों का
ब्यौरा लेना भी शामिल है।
स्थानीय और विदेशी कंपनियों
द्वारा की जा रही गड़बड़ियों
को रोकने के लिए उनकी समिति
ने निर्णायक कदम उठाए हैं,
जिनमें
माइक्रोसॉफ्ट और इंटेल जैसी
अमेरिकी कंपनियों द्वारा
ग़लत ढंग से स्पर्धा रोकने
पर उनपर लागू सजाएँ शामिल हैं।
हालाँकि एन एस ए का कहना है कि
उसने अमेरिकी व्यापार संस्थाओं
को लाभ पहुँचाने के लिए कोई
जासूसी नहीं करवाई, पर
कमीशन इस मुद्दे को अमेरिकी
और यू के (ब्रिटेन)
के अधिकारियों
के समक्ष ले गया है। एन एस ए
का यह भी कहना है कि आर्थिक
मुद्दों को ध्यान में रख कर
की गई जासूसी राष्ट्रीय हितों
के मद्देनज़र ज़रूरी है।
राष्ट्र के नाम पर बड़े से बड़े
लोग हर कुछ ग़लत करने को तैयार
रहते हैं। हाल में ही दो साल
पहले रसायन में नोबेल पुरस्कार
विजेता भारतीय मूल के वेंकटरमन
रामकृष्णन ने भारतीय वैज्ञानिकों
को सलाह दी है कि वे आंतरिक
सुरक्षा के लिए सुरक्षा संस्थाओं
के साथ मिलकर काम करें ताकि
सूचनाएँ गोपनीय रह सकें। स्वयं
भारतीय नागरिकता त्याग चुके
वेंकटरमन की यह चिंता रोचक
है। भारत जैसे देश की सरकारें
पहले ही झूठ और ग़लत प्रचार
पर अपना कारोबार चला रही हैं।
गोपनीयता अंतत: आम
जनता के ही खिलाफ जाती है और
लोकतांत्रिक संरचना को कमज़ोर
बनाती है। वैसे भी सरकार और
खुफिया संस्थाओँ का दबाव इतना
होता है कि जानकारियाँ खुले
में ला पाना आसान नहीं होता।
गार्डियन जैसे स्वतंत्र माने
जाने वाले अखबार ने भी जी सी
एच क्यू के दबाव में आकर बहुत
सारी जानकारियाँ उजागर नहीं
की हैं जो स्नोडेन से मिले
दस्तावेजों में थीं। ब्रिटेन
में आर्थिक टार्गेट्स पर
निगरानी की छूट अधिक है और
कानूनी तौर पर देश की "आर्थिक
मजबूती" के
लिए यह अधिकार उन्हें मिला
है।
जर्मनी
में खूब शोर इस बात पर मचा कि
चांसलर एंजेला मर्केल की
मोबाइल फ़ोन पर बातचीत पर
अमेरिकी जासूसी संस्थाओं ने
निगरानी रखी। जर्मनी और यू
एस ए में जासूसी की सीमाओं पर
होने वाले समझौते अभी तक पूरे
नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य
कारण यह है कि अमेरिकी जासूसी
संस्थाएँ चांसलर के अलावा
अन्य अधिकारियों पर निगरानी
न रखने का वादा नहीं दे रही
हैं। यूनिसेफ और संयुक्त
राष्ट्र संघ के निरस्त्रीकरण
संस्थान जैसी कई संस्थाओं को
टार्गेट किया गया। जंग प्रभावित
क्षेत्रों में जा कर चिकित्सा
राहत में जुटने वाली संस्था
मेदेसीन्स दु मोंद जैसी
संस्था भी इनमें है।
इस
कथा में रोमांच और गुदगुदी
के सारे तत्व हैं। पंद्रह
दक्षिण अफ्रीकी देशों के
आर्थिक सहयोग की संस्था ईकोवास
(इकोनॉमिक
कम्युिटी ऑफ वेस्ट आफ्रीकन
स्टेट्स) के
अधिकारी मुहम्मद इब्न चांबास
के संवादों को पढ़ कर समझ में
नहीं आता कि गुप्तचरों को
इसमें क्या मज़ा आया कि वे इन
संवादों को पढ़ें। 'डॉक्टर
चेंबर्स' नामक
इस फाइल में उनके मित्रों और
सहयोगियों के साथ हुई रूटीन
बातचीत का ब्यौरा है। मीटिंग
कहाँ है, टिकट
कब का लें, यह
किताब अनोखी है, आदि
ऐसे वार्त्तालाप को दस्तावेजों
में दर्ज करने का क्या औचित्य
हो सकता है!
स्नोडेन
को स्नूपिंग मामले के अलावा
एन एस ए और सी आई के साथ अपने
काम के अनुभवों को सार्वजनिक
करने की वजह से गिरफ्तारी से
बचने के लिए देश छोड़कर भागना
पड़ा। भागने से पहले वह सालाना
दो लाख डॉलर की तनख़ाह पर काम
कर रहा था। उस पर विस्तृत
जानकारी विकिपीडिया पर यहाँ
है - http://en.wikipedia.org/wiki/Edward_Snowden
उसने
ब्राज़ील आदि कुछ देशों में
राजनैतिक शरण लेने की असफल
कोशिश की। 20 मई
2013 को
अमेरिका से भागकर हॉँगकॉँग
में आ गया। उसने घोषणा की कि
उसे अपने आप को छिपाने की कोई
इच्छा नहीं है। अमेरिका की
तमाम कोशिशों के बावजूद उसे
वापस लौटने के मजबूर न किया
जा सका। 9 जून
2013 को
उसकी अपनी इच्छा से गार्डियन
अखबार ने उसका नाम उजागर किया।
23 जून
2013 को
वह रूस आ गया। 39 दिनों
तक वह हवाई अड्डे पर ही टिका
रहा। दो महीनों की नाटकीय
घटनाओं के बाद उसे रूस में
राजनैतिक शरण मिल गई। इन घटनाओं
में बोलीविया के राष्ट्रपति
ईवो मोरालेस के रूस से वापस
अपने देश की उड़ान के दौरान
हवाई जहाज का, जबरन
वियना में उतारना भी शामिल
है। इस शक पर कि उसमें स्नोडेन
छिपा बैठा है, अमेरिकन
दादागीरी से दब कर फ्रांस,
इटली और स्पेन
ने हवाई जहाज को अपने वायु-क्षेत्र
से उड़ने से मना कर दिया और प्लेन
का ऑस्ट्रिया में उतरना लाजिमी
हो गया)।
इन
दिनों वह रूस में ही रहता है।
स्नोडेन की बहादुरी को महज
एक सामयिक घटना समझ कर इसे
पुराने ढर्रे पर अमेरिका बनाम
बाकी दुनिया तक सीमित कर के
देखना ग़लत होगा। समय आ गया
है कि विश्व-स्तर
पर सरकारों के दमन-तंत्रों
पर सवाल उठाया जाए। यह समय है
जब हम मुक्तिबोध की पंक्तियों
को याद करें -
जन-जन
के शीर्ष पर
शोषण
का खड्ग अति घोर एक।
दुनिया
के हिस्सों में चारों ओर
जन-जन
का युद्ध
एक
मस्तक
की महिमा
व
अन्तर की ऊष्मा
से
उठती है ज्वाला अतिक्रुद्ध
एक।
संग्राम
घोष एक
जीवन-संताप
एक।
क्रांति
का,
निर्माण
का,
विजय
का सेहरा एक
चाहे
जिस देश ,
प्रांत,
पुर
का हो
जन-जन
का चेहरा एक।
स्नोडेन
ने अपने एक साक्षात्कार में
1945 में
न्यूरेम्बर्ग में घोषित
सिद्धांतों का ब्यौरा दिया
है - "हर
व्यक्ति के अंतर्राष्ट्रीय
दायित्व हैं जो राष्ट्र के
प्रति समर्पण और कर्त्तव्यों
के परे हैं। हरेक नागरिक का
कर्त्तव्य है कि वह मानवता
और शांति का नाश करते अपराधों
के खिलाफ कदम उठाने के लिए
स्थानीय कानूनों को तोड़े।'
यह
सार्वभौमिक नारा आज की बड़ी
ज़रूरत है। इति स्नूपिंग कथा।
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