जल्दी
में लिखा यह आलेख 23 जनवरी
2014 को
जनसत्ता में 'वाम
के समक्ष चुनौतियाँ'
शीर्षक से
प्रकाशित हुआ है -
भारतीय
पतित-बुर्ज़ुआ
और चुनौतियों के समक्ष वाम
- लाल्टू
समाजवादियों
की शब्दावली में एक फ्रांसीसी
शब्द चलता है - अंग्रेज़ी
में जिसे पेटी-बुर्ज़ुआ
पढ़ते हैं। फ्रांसीसी उच्चारण
के बहुत करीब हिंदी में इसे
पतित-बुर्ज़ुआ
(सही
उच्चारण 'पातीत-
बुर्ज़ुआ'
होगा)
पढ़ा जा सकता
है। इस शब्द का संबंध हमारे
जैसे शहरी मध्य-वर्ग
के लोगों और ग्रामीण कुलीनों
(जिनका
शहरी मध्य-वर्ग
से घनिष्ट नाता होता है)
के लिए है
जो इस अहं में तो जीते हैं कि
उनकी भी कोई हस्ती है,
पर सचमुच वे
उच्च-अभिजात
वर्गों के वर्चस्व तले जीते
हैं और उनकी आकांक्षा भी अभिजात
वर्गों में शामिल होने की होती
है। पाखंड और झूठी नैतिकता
का झंडा हमेशा इनके हाथों में
होता है। इनका उदारवादी
लोकतंत्र से लेकर साम्यवाद
तक, हर
तरह की जनपक्षधर प्रवृत्ति
से विरोध होता है। ये एक तरह
के 'ऐनार्किस्ट'
या 'अराजकतावादी'
हैं,
पर ये
'अराजकतावाद'
के उस छोर
पर हैं जो मुख्यतः सत्तालोलुप
और स्वार्थी होते हैं। ये उन
अधिकतर 'ऐनार्किस्ट्स'
से अलग होते
हैं जो मुख्यतः मानवतावाद से
प्रेरित होते हैं। यह गाँधी,
तोल्सताय,
क्रोपोत्किन
और एमा गोल्डमैन का अराजकतावाद
नहीं है, जो
मानवता के सवालों से प्रेरित
था, बल्कि
यह ऐसी ज़मीन बनाने वाली सोच
है, जिसमें
मानव-अधिकारों
का ह्रास होता है।
पतित-बुर्ज़ुआज़ी
कभी ज्यादा तो कभी कम फासीवाद
यानी राष्ट्रवादियों की
तानाशाही के समर्थक होते हैं।
ऐतिहासिक परिस्थितियों के
अनुसार फासीवाद के प्रति इनके
झुकाव में घट-बढ़
होती रहती है। इन दिनों भारतीय
पतित-बुर्ज़ुआ
में फासीवाद के प्रति झुकाव
अपने शिखर पर है। अपने शुरूआती
दौर में भले-बुरे
वाम-दक्षिण
के कई तरह के लोगों को ये लोग
अपने साथ लेकर चलते हैं।
परिस्थितियों का अनुकूल होना
भी इसमें सहायक होता है। ऐसा
इटली में तकरीबन नब्बे साल
पहले हुआ और बाद में जर्मनी
में और भी वीभत्स रूप में वह
नात्सी यानी राष्ट्रवादी-समाजवाद
का आंदोलन बन कर उभरा। वाम या
जनपक्षधर ताकतों का बिखराव,
राष्ट्रीय
पहचान में हीनता का बोध,
तरक्कीपसंद
सोच रखने वाले पर महत्त्वाकांक्षी
प्रवृत्ति के सामाजिक-राजनैतिक
कार्यकर्त्ताओं का विचलन,
आर्थिक मंदी,
युवाओं में
मंदी की वजह से असुरक्षा का
तीखा अहसास, आदि,
कई कारण हैं
जिनसे पतित-बुर्ज़ुआज़ी
में फासीवाद के प्रति झुकाव
शिखर पर पहुँचता है और ऐसा ही
आज इस देश में हो रहा है। आम
आदमी पार्टी का भविष्य क्या
होगा, कहना
कठिन है, पर
इसके उद्भव और फिलहाल इसकी
कार्य-शैली
से यह स्पष्ट है। आआपा के बनने
में आरक्षणविरोधी और सांप्रदायिक
गुटों की भागीदारी रही है।
हालाँकि बाद में आआपा का जनाधार
पहले की तुलना में कहीं अधिक
व्यापक हुआ है, पर
दिल्ली में पार्टी की सरकार
में भागीदार नेताओं की कार्य-शैली
में दिख रही प्रवृत्तियाँ
चिंता का कारण हैं। मार्क्स
ने अपने विश्लेषण में यह कहा
था कि समाज की अर्थिक संरचना
में बदलावों से सबसे अधिक
नुकसान पतित-बुर्ज़ुआज़ी
को होगा। अपने इसी नुकसान की
समझ से यह वर्ग फासीवाद का
स्तंभ बन जाता है।
भारतीय
परिस्थितियों में एक और बात
जो इटली के फासीवाद के उभार
से अलग है, वह
है नरेंद्र मोदी के नेतृत्व
में भाजपा का सांप्रदायिक
तत्वों के झंडे तले सत्ता
हथियाने का संगठित प्रयास।
भाजपा का जनाधार सांप्रदायिक
फासीवाद है, पर
दल का नेतृत्व पूँजीवाद के
वर्चस्व में रहकर ही काम करता
है। पूँजीवाद मुनाफाखोरी पर
आधारित आर्थिक संरचना है,
पर अपने
वर्चस्व को बनाए रखने के लिए
इसे बुर्ज़ुआ-लोकतंत्र
यानी लोकतंत्र जिसमें शामिल
तो हर कोई हो पर सत्ता संपन्न
वर्गों के पास हो, ऐसी
संरचनाओं के साथ समझौता करना
पड़ता है। साथ ही पिछली सदी के
आखिरी दशकों में जन-आक्रोश
को दबा रखने के लिए स्थानीय
से वैश्विक हर स्तर पर लोकतांत्रिक
संरचनाओं में अपनी 'आस्था'
को पूँजीवाद
के सरगनाओं ने बढ़-चढ़
कर घोषित किया है। इसलिए
देर-सबेर
पतित-बुर्ज़ुआज़ी
के एक हिस्से का भाजपा के साथ
वैचारिक विरोध होना ही था।
पर
नरेंद्र मोदी की सफलता से
आतंकित हम लोगों में,
यानी उदारवादियों,
मानवतावादी
अराजकतावादियों में भी कई
लोग देश की वर्त्तमान परिस्थितियों
में खुद को असहायता की स्थिति
में पाते हैं। जो नव-उदारवादी
तत्व हैं वे तो कभी भी वाम के
साथ थे ही नहीं, हालाँकि
वैचारिक बुद्धिविलास में वे
भी लफ्फाज़ी में वाम-समर्थक
या तरक्कीपसंद रुख दिखलाते
रहे होंगे। उनके लिए आआपा के
समर्थन का बहाना यह सरल तर्क
है कि वाम ने अब तक क्या किया।
इस देश में वाम (साम्यवादी
और समाजवादी) की
राज्यों में शासन से लेकर
जंगलों में लड़ाई तक की जो समृद्ध
परंपरा रही है, जैसे
वह कभी थी ही नहीं। बाकी लोगों
में भी तीखी निराशा से उपजी
दौड़ है कि आआपा के मंच पर उनको
भी जगह मिल जाए। आआपा के कर्णधार
अरविंद केजरीवाल को विरोधी
दल अपरिपक्व कह रहे हैं,
पर वास्तव
में वे धुरंधर राजनीतिज्ञ
साबित हो रहे हैं। वे ऐसे सभी
तरीकों का इस्तेमाल कर रहे
हैं जो पतित-बुर्ज़ुआज़ी
को ही नहीं, बल्कि
उससे भी नीचे के तबकों को भी
उत्तेजित कर सके। उनकी चालाकी
इससे स्पष्ट है कि काश्मीर
के लोगों पर दमन कर रही सेना
को हटाने पर प्रशांतभूषण के
सामान्य उदारवादी वक्तव्य
से वे खुद को अलग करते हैं,
क्योंकि वह
सांप्रदायिक राष्ट्रवादी
अहं पर चोट पहुँचाता है,
जबकि 26
जनवरी की
झाँकियों को वह झूठा गणतंत्र
घोषित करने से हिचकते नहीं।
समाजवादी वैचारिक परंपरा से
आए योगेंद्र यादव जो पहले ही
हरियाणा में जनसभाओं में खाप
पंचायतों के 'दूसरे
'भले'
पक्ष'
की वकालत कर
चुके हैं, केजरीवाल
के अपने साथी मंत्री के नस्लवादी
और स्त्री-विरोधी
करतूतों के समर्थन में दिल्ली
के सड़क पर आओ आह्वान को सही
बता रहे हैं। केजरीवाल अच्छी
तरह जानते हैं कि उनके समर्थक
तबकों में अधिकतर नस्लवादी
और स्त्री-विरोधी
सोच के वर्चस्व में है,
इसलिए उनको
तनिक भी फिक्र नहीं कि देश-विदेश
में उनके रवैए की निंदा हो रही
है। दबंगई की जिस भाषा का
इस्तेमाल केजरीवाल और बंधु
कर रहे हैं, वह
फासीवादी प्रवृत्ति की भाषा
है। केजरीवाल पतित-बुर्ज़ुआज़ी
को यह अहसास दिलाना चाहते हैं
कि दबंगई से सिर्फ नरेंद्र
मोदी ही नहीं, वे
भी आगे बढ़ सकते हैं। योगेंद्र
यादव सत्ता हथियाने की राजनीति
के लिए ही मैदान में उतरे हैं
और इस वक्त केजरीवाल को उनका
समर्थन इसी मकसद को पूरा करने
के लिए है। देखना यह है कि यह
आँताँत या गठजोड़ कब तक बना
रहता है; योगेंद्र
कितना केजरीवाल बनते हैं या
कि अपनी समाजवादी जड़ों को
कितनी ईमानदारी से बनाए रखते
हैं। साथ ही अगर केजरीवाल इतनी
ही चालाकी से गोटियाँ फेंकते
रहें, तो
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
सरमाएदारों को भी अपने पक्ष
में करने में उन्हें कठिनाई
न होगी। पूँजी मुनाफे के लिए
लगाई जाती है, जब
तक मुनाफे में इजाफा होना
निश्चित हो, मुसोलिनी
हो या हिटलर हो, सब
चलता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के बड़े अधिकारी समेत कॉर्पोरेट
दुनिया से कई लोग आआपा में
शामिल हो ही रहे हैं।
ऐसे
में वाम और उदारवादी परंपरा
से जुड़े हर किसी को यह सोचना
पड़ेगा कि सांगठनिक ढाँचों और
संघर्ष के समृद्ध इतिहास के
बावजूद मुख्यधारा की राजनीति
में वे इतने अप्रासंगिक क्यों
दिख रहे हैं। कांग्रेस-भाजपा
का विकल्प बन कर वाम क्यों
नहीं सामने आ पा रहा। नरेंद्र
मोदी को रोकने का सही विकल्प
न तो कांग्रेस है, और
न ही आआपा। एक ओर सांप्रदायिक
जहर फैलने का डर है तो दूसरी
ओर फासीवाद। एक ओर
अयोध्या-गोधरा-मुजफ्फराबाद
का इतिहास है, जाकिया
जाफरी और अनगिनत और स्त्रियों
बच्चों के आँसू हैं, दूसरी
ओर आसन्न तानाशाही। तो आखिर
क्या करना चाहिए?
जाहिर
है कि वैचारिक मतभेदों की वजह
से पारंपरिक दूरियाँ बनाए रख
कर वाम दलों ने जनांदोलनों
की रीढ़ तोड़ दी है। जनविरोधी
ताकतें यह भ्रम फैलाने में
सफल हुई हैं कि वाम में बहसबाजी
अधिक और सामूहिक रणनीति पर
काम कम दिखता है। समय आ गया है
कि पिछली सदी से आगे बढ़कर व्यापक
वैचारिक आधार, जो
मुख्यतः उदारवादी,
मानवतावादी
और लोकतांत्रिक सोच पर आधारित
हो, जिसमें
सत्ता पर नियंत्रण की होड़ न
हो, ऐसा
एक आंदोलन खड़ा करना होगा। यह
चुनौती वाम कितनी परिपक्वता
के साथ लेता और निभाता है,
समय ही बतलाएगा।
आआपा बनने से पहले केजरीवाल
और बंधुओं के नेतृत्व में
भ्रष्टाचार के खिलाफ चले
आंदोलन में वामपंथियों की
भागीदारी को लेकर बहस चली थी।
सही बहस यह होनी चाहिए कि इसका
इस्तेमाल जनांदोलनों को सही
दिशा में मोड़ने में वाम कितना
सफल हो पाया है।
सत्ता
हथियाना राजनीति की पहली शर्त
होती है। पर वाम का आदर्श सत्ता
के लिए सत्ता नहीं, बल्कि
न्याय आधारित समाज की स्थापना
के लिए राजनीति का है। सत्ता
मिलती है या नहीं, आगामी
समय में वाम की भूमिका क्या
होनी चाहिए, इस
पर नए सिरे से सोचने की ज़रूरत
है। दलगत ढाँचों और राजनीति
में ऐसी क्या सीमाएँ हैं कि
अनगिनत भले लोग इनमें शामिल
नहीं हो पाते। क्या बदलती
परिस्थितियों के साथ वाम की
दशा-दिशा
में पर्याप्त बदलाव नहीं हो
पाया है। क्या वैचारिक शुद्धता
पर ज़रूरत से ज्यादा जोर है,
जबकि लोकतांत्रिक
संरचना और वैचारिक विविधता
का सम्मान आज के वाम का पहला
नारा होना चाहिए? क्या
नेतृत्व में दलितों और स्त्रियों
की जो भागीदारी होनी चाहिए
थी, उसे
साकार कर पाने में वाम राजनीति
असफल रही है? जहाँ
वाम दल संसदीय राजनीति के
द्वारा शासन में आए, वहाँ
भ्रष्ट और लंपट गुंडों का
प्रभाव कैसे बढ़ा? ऐसे
सवालों की लंबी शृंखला है,
जिनका सामना
वाम को करना होगा। जैसे हिंदी
के महाकवि शमशेर बहादुर सिंह
ने कभी लिखा था - 'वाम
वाम वाम दिशा/
समय
: साम्यवादी।/
पृष्ठभूमि
का विरोध अंधकार-लीन।
व्यक्ति --कुहास्पष्ट
हृदय-भार,
आज
हीन।/ हीनभाव,
हीनभाव/
मध्यवर्ग
का समाज, दीन।/...'
वह
हीनभाव तो चारों तरफ दिखता
है, पर
इसके आगे जिस मशाल की चर्चा
वे करते हैं - 'किंतु
उधर/ पथ-प्रदर्शिका
मशाल/ कमकर
की मुट्ठी में -
किंतु
उधर :/ आगे-आगे
जलती चलती है/
लाल-लाल/
वज्र-कठिन
कमकर की मुट्ठी में/
पथ-प्रदर्शिका
मशाल।' … वह
मशाल जो कभी बुझी नहीं,
पर एक
नई ज्योति के साथ उसके उठने
का समय आ गया है। यह वाम चिंतन
के लिए बड़ी चुनौती है। सामाजिक
बराबरी और न्याय के लिए लाखों
लोगों ने वाम के झंडे तले
कुर्बानियाँ दी हैं,
वह ऐसे
व्यर्थ नहीं जाएगा। नई
चुनौतियों का सामना
करने के लिए वाम फिर से तैयार
होगा।
Comments