बिहार
के बहाने गुहार
एक
पल के लिए मान ही लें कि बिहार
के चुनावों में भाजपा हार
जाएगी। तो फिर?
बहुत
सारे लोग यह ग़लत उम्मीद लगाए
बैठे हैं कि बिहार में भाजपा
हार जाएगी तो कोई बड़ी जीत हासिल
होगी। यह संभव है कि भाजपा हार
जाए, पर
अगर ऐसा होता है तो क्या वह
इसलिए होगा कि लोगों को भाजपा
का असली स्वरूप समझ में आ गया
है और इसलिए वे नितीश को जिता
रहे हैं?
नहीं,
ऐसा
इसलिए होगा कि अमित शाह की
सांप्रदायिक और जातिवादी
चालें लालू इत्यादि की जातिवादी
चालों से कमज़ोर रह गई। देश
भर में माहौल कहीं नहीं बदलेगा।
सांप्रदायिकता का ज़हर बढ़ता
रहेगा और भाजपा के सहयोगी संघ
परिवार के दर्जनों संगठन देश
भर में आतंक का माहौल बढ़ाते
रहेंगे।
मैं
यह इसलिए कह रहा हूँ कि भाजपा
के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं
है, जिसके
बारे में लोगों को पिछले दो
दशकों से पता नहीं है। मैंने
संसद के चुनावों के पहले अपने
कई लेखों में चीख चीख कर लिखा
था कि यह होने वाला है,
लोगों,
सोचो,
जरा
सोचो। पिछले कई दशकों से समूचे
दक्षिण एशिया में हर समुदाय
में फिरकापरस्त ताकतें मजबूत
हो रही हैं। अगर पाकिस्तान
और बांग्लादेश में इस्लामी
और श्रीलंका में बौद्धों की
सांप्रदायिकता दिखती है तो
हिंदुस्तान में हिंदुत्ववाद
का वर्चस्व बढ़ता रहा है। अच्छे
भले पढ़े लिखे लोग लोग खुद को
धोखा देते रहे कि नहीं हम तो
विकास के पीछे चल रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि नफ़रत का
वर्चस्व हम सब पर हावी है।
इसलिए गुजरात में 2002
के बाद
भी मोदी की सरकार आती है। वह
फिर 2007 में
आती है। फिर संसद 2014;
जो लोग
विकास विकास चिल्लाते हैं,
वो किस
को धोखा दे रहे होते हैं!
इसी बीच
में आज़ादी के बाद पहली बार
किसी राज्य के काबीना स्तर
के मंत्री को मौत की सजा मिलती
है, जो
बाद में आजीवन कारावास में
बदल जाती है। राज्य का पुलिस
प्रमुख सालों से जेल में है।
और पता नहीं कितने लोग जेल में
हैं - जो
सच कहते हैं वे नौकरी से बाहर।
और हमलोग ऐसे बातें करते हैं
कि विकास की गाड़ी चल रही है!
दो सेकंड
लगते हैं कि आप इंटरनेट से जान
लें कि मानव विकास आँकड़ों की
सूची में 1990
से लेकर
आज तक गुजरात 11
वें
स्थान पर है। कहीं कोई तरक्की
नहीं दिखती जो दूसरे राज्यों
से अधिक हो। किस झूठ की दुनिया
में जी रहे हैं हम!
यूरोप
में तीस सालों में दो भयंकर
जंगें लड़ी गईं। अकेले सोवियत
रूस के ही 2
करोड़
लोग दूसरी आलमी जंग में मारे
गए। कई लोग मानते हैं कि
कम्युनिस्ट सरकार ने सच छिपाया,
असल में
ढाई करोड़ लोग मारे गए थे। यूरोप
के कई मुल्कों में सड़कों में,
मुहल्लों
में जंग लड़ी गई। करोड़ों लोगों
को घर छोड़ कर भागना पड़ा। इस
सबका नतीज़ा यह हुआ कि उनको
यह बात समझ में आ गई कि जंग लड़ाई
किसी मसले का हल नहीं है। आज
उनके पंद्रह मुल्कों की सरहदें
खुली हैं। दक्षिण एशिया में
1857 के
बाद बड़े कत्लेआम हुए भी तो वे
अधिकतर स्थानीय स्तर पर हुए
और वे लंबे समय तक नहीं चले।
1946-47 में
लाखों में मौतें हुईं तो बाद
के दंगों में हजारों में हुईं।
गुजरात और मुजफ्फरनगर के दंगों
के पहले बहुत बड़ी तादाद में
लोगों ने घर 1947
में ही
छोड़ा था। 1984
के दंगों
में कई हजार सिख मारे गए। 1947
के बाद
और 2002 से
पहले काश्मीर से हिंदू पंडितों
के पलायन की बड़ी गिनती है,
पर वह
इतिहास जटिल है और इसमें
केंद्रीय सरकार की भूमिका को
नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
बांग्लादेश से बड़ी तादाद में
हिंदू भारत में आते रहे हैं,
और 1971
में
उनकी गिनती बहुत ज्यादा थी।
मौतों और ज्यादतियों की गिनती
बेवकूफी है,
पर जैसा
भी होता रहा हो,
लोगों
में वह समझ नहीं आई है जो यूरोप
के लोगों में है।
जो
सत्ताधारी हैं या जिनको
यथास्थिति से फायदा है,वे
बतलाते हैं कि थोड़ी बहुत लड़ाई
होती रहेगी,
पर बड़ा
कुछ नहीं होगा। कई भले लोग भी
यह उम्मीद रखते हैं कि सरहदी
इलाकों को छोड़कर कहीं और बड़ी
लड़ाई नहीं होगी। यह इंसान की
फितरत है कि वह अपनी सुविधा
के अनुसार तर्कशीलता गढ़ लेता
है। फिरकापरस्ती,
नफ़रत,
ये
अतार्किक नहीं हैं,
इनके
अपने कुतर्क हैं। ये वैज्ञानिक
तर्क नहीं हैं,
पर इनकी
अपनी तार्किकता तो है। तार्किकता
है तो गतिकी भी है। इस गतिकी
के नियम हैं। एक नियत सीमा तक
मुठभेड़ और मारामारी होती रहे
तो स्थिति उतनी भयंकर नहीं
लगती जैसी यूरोप में आलमी
जंगों के दौरान हुई थी (और
जिसका हरजाना हमें बंगाल के
भयंकर अकाल के रूप में देना
पड़ा था - सारा
अनाज सिर्फ फौजियों के लिए
रोक रखा गया था)।
पर ये सीमाएँ कब पार हो जाएँगी,
कौन कह
सकता है। गतिकी के सिद्धांत
हमें बतलाते हैं कि अक्सर सीमा
पार होने के बाद यह संभव नहीं
होता कि आप आसानी से वापस पुरानी
स्थिति में लौट आएँ। तो क्या
हमें भी उन स्थितियों से गुजरना
होगा, जैसा
यूरोप में हुआ?
करोड़ों
मौतें, अनगिनत
बेघर, बेइंतहा
तबाही!
इसलिए
यह सोचना ज़रूरी है कि सही
विकल्प क्या है। सांप्रदायिक
सोच इतनी हावी है कि कई लोग
भाजपा को जिताने का कारण
कांग्रेस का कोई विकल्प न होना
बतलाते हैं। हर दिन कहीं न
कहीं साम्यवादी और समाजवादी
संगठित विरोध में लगे हैं,
यह बात
निर्विवाद है कि इस वक्त देश
का सबसे ईमानदार मुख्यमंत्री
त्रिपुरा के माणिक सरकार हैं,
पर
क्रमबद्ध ढंग से यह कहा जाता
रहा है कि वाम तो खत्म हो गया
है। अगर मान भी लें कि आप जानते
नहीं हैं कि कोई संगठित विकल्प
है, तो
भी क्या कांग्रेस के निकम्मेपन
को हटाकर सांप्रदायिक राजनीति
को आगे बढ़ाना कोई समझदारी का
काम है? किसी
भी चुनाव क्षेत्र से दसों
प्रार्थी खड़े होते हैं,
क्या
सचमुच कांग्रेस और भाजपा या
दूसरी भ्रष्ट पार्टियों के
अलावा हमें कोई विकल्प नहीं
दिखता? बेशक
यह इसी वजह से है कि हम सांप्रदायिक
सोच के गुलाम हो चुके हैं।
ऐसा
नहीं कहा जा सकता कि वाम दलों
में खामियाँ नहीं हैं। पश्चिम
बंगाल में जो ज्यादतियाँ वाम
सरकार के वक्त हुईं,
उनसे
हम नावाकिफ नहीं हैं। पर तब
विरोध सीधे सरकारी नीतियों
के खिलाफ हो सकता था,
आज हमें
अंजान हत्यारों का विरोध करना
पड़ रहा है,
जो पता
नहीं कब कहाँ से आएँ और खून की
नदी बहा जाएँ। आज हमें सोचना
पड़ रहा है कि पता नहीं कब जंग
छिड़ जाए और उसका नतीज़ा क्या
कुछ हो जाए!
वाम
वाला विकल्प लोकतांत्रिक
अधिकारों और स्वस्थ माहौल की
गारंटी नहीं है,
इसके
लिए सतत सचेत रहने की ज़रूरत
पड़ेगी। वाम का चिंतन हमें इसके
लिए प्रेरित करता है। इस वक्त
यही एक विकल्प हमारे पास है।
इसलिए सभी लोकतांत्रिक ताकतों
को एकजुट होकर वाम के नेतृत्व
को बढ़ाना होगा।
बिहार
में भाजपा के रुकने की आस लगाए
भले लोगों को चुनाव परिणामों
के आने पर बड़ा झटका लग सकता
है। गाँव-गाँव
में संघ के कार्यकर्ता एक-एक
वोटर के पीछे पड़े हुए हैं।
जिन्होंने 1930
के
बाद के सालों में जर्मनी का
इतिहास पढ़ा है,
वे
इस बात को समझते होंगे कि स्थिति
कैसी भयावह है। पिछले साल यह
जानते हुए भी कि भाजपा के जीतने
की पूरी संभावना है,
किसने
कल्पना की थी कि उत्तर प्रदेश
में ऐसी बड़ी जीत उनकी होगी।
नफ़रत हमेशा राक्षसी मुद्रा
में नहीं दिखती। वह हँसते
खेलते लोगों में घर किए होती
है। जर्मनी में भी एक पूरा
हँसता खेलता मुल्क ही था जो
नफ़रत की आँच में उबल रहा था।
इसलिए यह मान लेना कि बिहार
में भाजपा हारेगी ही,
बचकानी
बात है। और अगर हार भी जाए तो
कोई बड़ी सफलता मान लेना -
यह
और भी बचकानी बात होगी। लोग
भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार
ही थे,
जिन्होंने
बिहार में भाजपा को पंजे गाड़ने
में मदद दी थी। लालू ही थे,
जिनके
विकल्प के रूप में ये लोग सत्ता
में आए थे। जब
दिल्ली के चुनाव हो रहे थे,
इसी
मंशा से कि किसी तरह मोदी को
रोका जाए,
वाम
दलों ने अपने काडर से आआपा को
समर्थन देने के लिए कहा। बेशक
वह सही कदम था,
दिल्ली
में वैसे भी वाम दलों को कोई
सीट मिलने की उम्मीद न थी। पर
दिल्ली में भाजपा के हारने
से संघ के षड़यंत्र रुकने नहीं
थे और वे रुके भी नहीं।
बिहार
में इस बार वाम पार्टियाँ
एकजुट होकर लड़ रही हैं। मेरी
आस उन पर है। बिहार की यह शुरूआत
देश भर में फैले,
मैं यह
उम्मीद करता रहूँगा। और वाम
के शासन में उनकी ज्यादतियों
के खिलाफ संघर्ष हों,
मैं
इसके पक्ष में हूँ। पर हिंदू
मुसलमान,
ऊँच-नीच
जातिभेद,
हिंदुस्तान
पाकिस्तान,
ये मेरे
मुद्दे बने रहें,
यह मैं
नहीं चाहता। ये और बस यही आज
के मुद्दे बने हुए हैं। ऐसी
मध्य- युगीन सोच की ओर ले जाने
वाली पोंगापंथियों की वर्तमान
सरकार के खिलाफ हर कोई उठ कर
खड़ा हो, यह
वक्त की आवाज है। आगे की सोच
रखने वाला एकमात्र विकल्प
वाम है।
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