जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' के मेरे द्वारा किए अनुवाद 'अंधकूप' की समीक्षा :
पुस्तक चर्चा (सामयिक वार्ता : जुलाई-अगस्त, 2015 पृ. 43-44)
मैंने अपनी भूमिका में लिखा है- 'आचीबे की यह आपत्तियाँ वैसी ही हैं जैसे अक्सर दलित आलोचक प्रेमचंद की रचनाओं में दलित चरित्रों का विवरण आपत्तिजनक मानते हैं। हालाँकि इन आपत्तियों के जवाब आलोचना‑साहित्य में दिए जाते रहे हैं, इनको हम दरकिनार नहीं कर सकते और इन पर और विवेचन की ज़रूरत रह जाती है।' यानी मैंने आचीबे के मत का खंडन नहीं किया है, बल्कि मैंने माना है कि वे जो कह रहे हैं, उस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।)
पुस्तक चर्चा (सामयिक वार्ता : जुलाई-अगस्त, 2015 पृ. 43-44)
अंधकूप, मूल नाम- हार्ट आफ डार्कनेस, लेखक-जोसेफ कोनराड ,अनुवादक-लाल्टू, प्रकाशक- वाग्देवी प्रकाशन, मूल्य- 70 रूपये मात्र
औपनिवेशिक
लूट का अंधकूप
संजय
गौतम
'अंधकूप'
पोलिश
मूल के अंग्रेजी भाषी लेखक
जोसेफ कोनरड के प्रसिद्ध
उपन्यास ‘हार्ट आॉफ डार्कनेस’
का हिंदी अनुवाद
है। अनुवाद किया है चर्चित
कवि लेखक लाल्टू ने।
जोसेफ
त्योदोर कोनराड कोर्जेनिवोस्की
का जन्म 1857
में
यू्क्रेन में हुआ था। कोनराड
के पिता भी कवि और अनुवादक थे।
इन्हें राष्ट्रदोह के आरोप
में गिरफ्तार कर निष्कासन भी
किया गया। कोनराड ने माता-पिता
के साथ यात्राएँ की। आठ साल
में ही माँ की मृत्यु हो गई।
वह 1886 में
ब्रिटेन के नागरिक बने और
परीक्षाएँ पास की। उन्होंने
अंग्रेजी भाषा में अपने उपन्यास,
कहानियां
और वैचारिक लेख लिखे,
लेकिन
वे अपने को पोलिश ही मानते
रहे। उनकी भाषा पर फ्रेंच एर्ं
पोलिश का प्रभाव बना रहा।
उन्होंने समुद्री नाविक के
रूप में काम किया था। इस जीवन
के अनुभवों का उन्होंने अपने
कथा साहित्य में भरपूर उपयोग
किया।
यह
उपन्यास मूलत:
औपनिवेशिक
प्रवृत्ति,
लालच,
लूट और
आदिम जातियों के साथ संघर्ष
की कहानी है। उपन्यास का ‘मैं"
अपनी
मौसी की सिफारिश पर नाविक की
नौकरी प्राप्त करता है और इसी
यात्रा के दौरान ‘मैं'
शैली
में किनारे स्थित जंगल के
जीवन, वहाँ
के लोगों के स्वभाव,
उनके
प्रति गोरे लोग्गों के भाव
को व्यक्त करता है। उन्नीसवीं
सदी के अंत में भी अफ्रीकी
देशों के सुदूरतम क्षेत्र से
संपदा की लूट चालू थी। कंपनियों
के जहाज जाते थे और प्राकृतिक
संपदा लेकर आते थे। ‘हाथी
दाँत’ की लूट जबरदस्त हो रही
थी। इस लूट के बावजूद वहाँ के
निवासियों को ‘सभ्य’ बनाने
का भ्रम भी था और विरोध होने
पर गोली मारने का उत्साह भी
था। कुर्त्ज़ ऐसा ही पात्र
है, जो
कंपनी के कार्य में अत्यंत
कुशल एर्ं सभी का आदर्श है।
अंततः वह मर जाता है। उसके साथ
कई किंवदंतियाँ चलती रहती
हैं। उसे लाया जाता है। कई लोग
उसके ऊपर अपना दावा करते है।
उसी क्रम में उसकी प्रेमिका
के जरिये उसके प्रेम का भी
उद्घाटन उपन्यास में होता
है।
पूरे
उपन्यास में लूट की मानसिकता,
हिंसा
की प्रवृत्ति की गहरी शया है,
साथ ही
प्रतिरोध का आदिम तरीका भी।
रंगभेदी मानसिकता को व्यक्त
करने के लिए ही लेखक ने अपने
पूर्व कप्तान के बारे में यह
लिखा है,
‘आखिरकार
शायद उसे यह जरूरत महसूस हुई
होगी कि किसी तरह अपना आत्मसम्मान
प्रकट करे। इसलिए उसने बूढ़े
निगर को उसके अपने तमाम लोगों
की स्तब्ध आँखों के सामने
बेरहमी से पीटा,
जब तक
कि बुड्ढे की चीत्कार सुनकर
एक ब्दे से रहा न गया। मैंने
सुना कि वह मुखिया का बेटा था।
उसने आजमाइशी तौर पर गोरे पर
बरछी की चोट की-
और वह
तो कंधों को चीरती आसानी से
धँस ही गई। उसके बाद सारे लोग
इस डर से कि अब भयानक घटनाएंँ
हो सकती हैं,
जंगलों
में भाग गए।’ (पृ.
24) दूसरी
ओर कप्तान के अधीनस्थ भी घबड़ा
कर भाग गए। यहाँ तक कि कप्तान
को सँभालने वाला भी कोई नही
रहा। उपन्यास के ‘मैं’ के
पहुँचने पर लाश पर घास उगी पाई
गई। टिप्पणी उल्लेखनीय है,
‘वे लोग
समुद्रों के पार साम्राज्य
बनाने और व्यापार से बेइंतहा
धन कमाने चले थे। '-
(पृ.
25) लोगों
के दिमाग में ‘सभ्य बनाने का
प्रेम किस कदर पैठ गया था,
यह
कार्यभार संभालने से पूर्व
ही एक महिला के साथ बात-चीत
से पता चलता है,
”वह
मुझे समझाती रही कि उन करोड़ों
अज्ञानी लोगों को उनके जघन्य
तौर तरीकों से निकालना है।
मैंने संकेत करने की हिम्मत
की कि कंपनी तो मुनाफा कमाने
में लगी है।"
उपन्यास
के अंत तक यह स्पष्ट हो जाता
है कि सारा उद्यम सिर्फ हाथी
दाँत इकट्ठा करने के लिए है।
जो जितना ज्यादा हाथी दाँत
भेजता है,
वह उतना
ही निपुण और महत्वपूर्ण माना
जाता है। इस लिहाज से आदर्श
है। वह अपने काम में अत्यंत
कुशल है। अपनी कुशलता के चलते
ही वह प्रतीक में बदलता हुआ
दिखता है,
‘अपने
मौलिक रूप में की शुरूआती
तालीम इंगलैंड में हुई और जैसा
कि वह भले मन से खुद ही कहता
था- उसके
जज्बात सही जगह पर थे। उसकी
माँ आधी अंग्रेज़ थी और पिता
आधा फ्राँसीसी। कुर्त्ज़ के
बनने में समूचे यूरोप की
भागीदारी थी। और धीरे-धीरे
मुझे पता चला कि ‘द इंटरनेशनल
सोसायटी फार द सप्रेशन आँफ
सैवेज कस्टम्स’ (जंगली
जीवन को खत्म करने वाली
अन्तर्राष्ट्रीय संस्था)
ने उसको
यह जिम्मेदारी दी थी कि वह
भविष्य में काम करने लायक एक
रिपोर्ट तैयार करे और उसने
वह रिपोर्ट लिखी भी थी। मैंने
देखी है। मैंने पढ़ी है। बहुत
ही उम्दा लिखा था,
भाषा
की कुशलता उसके हर हिस्से में
दिखती थी,
पर मेरे
खयाल से उस लेखन में तनाव बहुत
था।' (पृ.
15)
पूरे
औपन्यासिक विन्यास में दो
बातें साफ होती हैं। एक तो यह
कि यूरोप की औद्योगिक सभ्यता
ने सूदूरतम क्षेत्रों में
प्राकृतिक संपदा की लूट के
लिए औपनिवेशिक संरचना का विकास
किया। दूसरे अन्य सभ्यताओं
को ‘असभ्य’ मानते हुए उन्हें
‘सभ्य बनाने का दंभ’ भी पाला।
सभ्य बनाने की मुहिम में उसने
घुलमिल कर साथ नाचा-गाया
भी और अधिकांश मामलों में
निर्मम हत्याएं भी की। यह सब
विधिवत अध्ययन करके,
रिपोर्ट
तैयार करके,
लोगों
को प्रशिक्षित करके किया गया।
उपन्यास का वाचक मैं भी इन्ही
के बीच का है,
लेकिन
अपनी संवेदना के कारण वह इन
साजिशों को देख पाता है और
व्यंग्य भरी भाषा में टिप्पणी
भी करता चलता है। वह जंगल के
लोगों के प्रति यूरोपीय मनोभाव
को विदग्धता के साथ व्यक्त
करता है। संभवतः यही कारण है
कि उपन्यास लेखक जोसेफ कोनराड
को आलोचना का शिकार होना पड़ा।
प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखक
चिनुआ आचीबे ने 1975
में
लिखे अपने आलेख ‘ऐेन इमेज आफ
अफ्रीका :
रेसिज्म
इन कोनरड्स 'हार्ट
आफ डार्कनेस'
में
कोनराड को जन्मजात नस्लवादी
कहा। आचीबे का मत है कि उपन्यास
बड़ी कृति नही माना जा सकता,
क्योंकि
इसमें मानवता के एक हिस्से
से उसका व्यक्तित्व छीन कर
अमानवीयकरण को सराहा गया है।
वे कोनराड को प्रतिभाशाली और
तड़पता हुआ शख्स मानते हैं,
जो (अपने
चरित्र मार्लो के ज़रिये)
अफ़्रीका
के मूल निवासियों को महज टांगें,
कोण -
चमकती
सफेद आँखों की पुतलियाँ आदि
में संकुचित कर देते हैं। साथ
ही वह (डरते
हुए) उन
मूल निवासियों के साथ अपना
एक संबंध भी देख पाते हैं।’
(पृ.
9-भूमिका)
अनुवादक
लाल्टू ने स्वयं आचीबे के इस
मत का खंडन किया है और इस आलोचना
की तुलना दलित चिंतकों द्वारा
प्रेमचंद की आलोचना से किया
है।
उपन्यास
का कथा प्रवाह एवं भाषा विन्यास
भी जटिल संरचना से युक्त है।
कहानी का प्रवाह सरल तरीके
से पाठक को अपने प्रवाह में
नहीं खींचता है। इसे ही कोनराड
की विशेषता के रूप में रेखांकित
किया गया है। अनुवादक ने टी
ई लारेंस का कथन उद्धृत किया है-
‘गद्य
लेखन में उनसे बड़ा तहलका कोई
न था। काश कि मैं जान पाता कि
वे कैसे हर अनुच्छेद में (वे
वाक्य कदाचित ही लिखते,
हमेशा
अनुच्छेद ही लिखते थे)
लहरों
की तरह उमड़ना ले आते हैं,
जैसे
कोई घंटी बजने के बाद ऊँची
ध्वनि तरंगें पैदा कर रही हो।
उनका लेखन साधारण गद्य की
लय से नही,
बल्कि
उनके दिमाग में चल रहे प्रवाह
से बनता है,
और चूंकि
वह कह नहीं पाते कि वह क्या
कहना चाहते हैं,
इसलिए
उनका लिखा हुआ हर कुछ एक तरह
की भूख में,
कुछ न
कह पाने या न सोच पाने के संकेत
में सिमट जाता है,
इसलिए
उनकी किताबें अपने वास्तविक
आकार से बड़ी दिखती हैं। (पृ.
11)
अनुवादक
ने इस बात को साफ करते हुए कहा
है कि भले ही उस समय कोनराड को
जटिल लेखक माना गया और
पाठक समुदाय विरक्त रहा,
लेकिन
समय के साथ घटती हुई घटनाओं
से उनके लेखन का महत्व बढ़ता
गया और
वे भविष्य द्रष्टा लेखक माने
गए।
उपन्यास
के लेखन के समय को देखा जाए तो
निश्चित रूप से यह मानना पड़ेगा
कि उपन्यास में औपनिवेशिक
लूट की प्रवृत्ति और संस्कृति
को कोनराड ने बहुत पहले पहचाना।
यह संस्कृति आज अनेक रूप से
फल-फूल
रही है। तमाम नए सिद्धांत गढ़
लिए गए हैं,
रिपोर्ट
लिखी जा रही है। वर्तमान लूट
की संस्कृति के परिप्रेक्ष्य
में इसे पढ़ेंगे तो इस उपन्यास
में अनेक छायाभासी संकेत
मिलेंगे। हर्में लगेगा कि
उन्नीसर्वी शती से लूट की
संस्कृति का यह ‘अंधकूप’ आज
विकास के नाम पर कितने बड़े
अंधकूप के रूप में बदलता जा
रहा है।
अनुवादक
ने उपन्यास के साथ ही कोनराड
के कला संबंधी एक वैचारिक लेख
को भी दिया है,
जिसे
उन्होंने अपने उपन्यास ‘द
निगर आफ द नारसिसस’ की भूमिका
के रूप में लिखा था। इससे कोनराड
के कला संबंधी गंभीर दायित्व
बोध का पता चलता है (इसका
अंतिम पैरा कला-साहित्य
के क्षेत्र में कार्य करने
वालों के लिए आज भी उतना ही
प्रासंगिक है,
‘धरती
पर काम के लिए जुटे हाथों को
साँस भर के लिए रोकना,
दूरगामी
उद्देश्य के मोह मे बंधे लोगों
को पल भर के लिए चारों ओर फैले
रूप-रंग,
धूप-छाँव
की झलक देखने को मजबूर करना,
उन्हें
एक नजर भर उठाने को,
लंबी
सांस खींचने को,
एक
मुस्कान के लिए रूकने को मजबूर
करना- यही
कठिन और क्षणिक मकसद कला का
है और इसे कुछ ही लोग पूर कर
सकते हैं। लेकिन,
कभी
कभार प्रतिभाशाली और खुशकिस्मत
लोग ऐसे काम को भी पूरा कर लेते
हैं- और
जब पूरा हो जाता है।-
क्या
बात। जीवन की सारी सचाइयाँ
वहाँ होती है,
पल भर
की झलक, लंबी
साँस, मुस्कान
और चिरस्थायी शांति तक वापस
पहुँचना।’
(हालाँकि समीक्षा पर टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए, और यह वाकई बड़ी अच्छी समीक्षा है भी, पर एक स्पष्टीकरण देना ज़रूरी है। संजय गौतम ने कहा है - 'प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखक चिनुआ आचीबे ने ... कोनराड को जन्मजात नस्लवादी कहा। अनुवादक लाल्टू ने स्वयं आचीबे के इस मत का खंडन किया है और इस आलोचना की तुलना दलित चिंतकों द्वारा प्रेमचंद की आलोचना से किया है।' मैंने अपनी भूमिका में लिखा है- 'आचीबे की यह आपत्तियाँ वैसी ही हैं जैसे अक्सर दलित आलोचक प्रेमचंद की रचनाओं में दलित चरित्रों का विवरण आपत्तिजनक मानते हैं। हालाँकि इन आपत्तियों के जवाब आलोचना‑साहित्य में दिए जाते रहे हैं, इनको हम दरकिनार नहीं कर सकते और इन पर और विवेचन की ज़रूरत रह जाती है।' यानी मैंने आचीबे के मत का खंडन नहीं किया है, बल्कि मैंने माना है कि वे जो कह रहे हैं, उस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।)
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