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दबंगई, दरिंदगी, राष्ट्रवाद और सभ्यता- कुछ खयाल


(यह आलेख 'समयांतर' पत्रिका के मार्च 2014 अंक में प्रकाशित हुआ है)

घटनाएँ इतनी तेजी से हो रही हैं कि किस पर लिखें और किस पर नहीं सोचना मुश्किल होता रहता है। हर घटना के सूक्ष्म संदर्भ होते हैं। साथ ही गहराई से देखने पर कुछ बातें ऐसी भी दिखती हैं जो इन घटनाओं के जरिए उस देश-काल को परिभाषित करती हैं, जिसमें हम जीते हैं। समाज विज्ञान में हर घटना की विशिष्टता के अध्ययन पर जोर दिया जाता है। यह स्कॉलरशिप की माँग है। अपनी विशिष्टता को बनाए रखे कोई घटना दीगर और घटनाओं के साथ कैसे जुड़ी है, यह जानना शोधमूलक अध्ययन है। मेरी कोशिश यहाँ समकालीन समाज पर सामान्य टिप्पणी भर की है और सूक्ष्म विवरणों को यहाँ ढूँढना सही नहीं होगा। पढ़ते हुए पाठक इस बात को ध्यान में रखें। मेरा दावा कोई नई खोज का नहीं है, बल्कि मैं महज उन बिखरे खयालों को लिपिपद्ध कर रहा हूँ जो कई भले लोगों को परेशान कर रहे हैं। मेरे लिखने का औचित्य बस इतना है कि ये बातें कही जानी ज़रूरी हैं, बार-बार कही जानी ज़रूरी हैं।

लगातार सामने आ रही स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटनाएँ, सांप्रदायिक दंगे और मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए व्यापक समर्थन, देखने में ये सारी घटनाएँ एक दूसरे से अलग दिखती हैं, पर सचमुच ये अलग नहीं हैं। आनंद पटवर्धन ने बीस साल पहले इस बात को अपनी प्रसिद्ध फिल्म 'पितृ, पुत्र और धर्मयुद्ध' में अकाट्य तर्कों के साथ सामने रखा था। पुरुष की असुरक्षा हिंसा के अलग-अलग स्वरूपों में सामने आती है। सांप्रदायिकता इनमें से एक है।

इन सभी घटनाओं को जोड़ता एक धागा है, जो मूलतः क्या कर लोगे किस्म की एक दबंग आवाज है, जो हमारे अंदर से आती है। मेरा पुरुष अहं दिखावे के लिए कितना भी स्त्री के समर्थन में रोता हो, मेरे अंदर वह हिंसक दानव नहीं है, जो किसी दूसरे पुरुष में है, यह दावे के साथ कहने वाले मर्द खुद को धोखा दे रहे होते हैं। मेरी सामुदायिक अस्मिता और मेरी निजी अस्मिता एक दूसरे से कितने भिन्न हैं, इस बात को अभी तक जान पाना संभव नहीं हुआ है। और यह ज़रूरी नहीं कि दबंगई की यह पुरुष-मानसिकता जैविक पुरुषों में ही हो, यह उतनी ही या ज्यादा दरिंदगी के साथ जैविक-स्त्री में भी हो सकती है। बाजार भी इस दबंगई को उभारता है। सामाजिक हिंसा, जिसमें सांप्रदायिक और स्त्री-विरोधी दोनों तरह की हिंसा शामिल है, में दिखती दबंगई और दरिंदगी व्यक्ति-विशेष की मनोवैज्ञानिक बीमारी मात्र नहीं है, इसके सामाजिक राजनैतिक कारण भी हैं।

ऐसे दबंगपने को मुखर करते लोगों की एक जमात है जो खुद को राष्ट्र, धर्म और संस्कृति क ठेकेदार घोषित कर लोकतांत्रिक विमर्श को दबाने की कोशिश करती है। मुल्क के अंदर की सांप्रदायिकता हो या मुल्कों के बीच सांप्रदायिक आधार पर होने वाली जंगें हों, स्त्रियाँ और बच्चे ही हिंसा की बर्बरतम घटनाओं का शिकार होती हैं। हमारे यहाँ भी 19वीं सदी के अंत से जब जब भी दंगे हुए, हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जहाँ जो भी लघुसंख्यक हैं, उनकी नियति कसाई के बकरों की हुई है। स्त्रियों को बार-बार बलात्कार का शिकार होना पड़ा है। जब दंगे नहीं होते, तो यह कहना कठिन हो सकता है कि कोई बलात्कार की घटना और सांप्रदायिक हिंसा में क्या संबंध है, पर सचमुच दोनों में एक ही दबंगई और दानवीय दरिंदगी होती है। गैरबराबरी पर आधारित समाज में स्त्री विरोधी हिंसा की एक वजह दीर्घकालीन अमानवीय स्थितियों में पनपी पुरुष अहं की मानसिक बीमारी भी है, पर शोषण की इन स्थितियों के बने रहने के व्यापक संदर्भ हैं, जिन्हें समझना ज़रूरी है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि सांप्रदायिक, वर्ग और जाति द्वंद्वों से अलग पुरुष-प्रधानता के द्वंद्वों की समस्याएँ नहीं हैं। यहाँ हम सीमित संदर्भों में सामाजिक हिंसा की कुछ विशिष्टताओं की पड़ताल कर रहे हैं।

सांप्रदायिकता का एक छोर राष्ट्रवाद है। दक्षिण एशिया की अवाम का मुल्कों के बीच सांप्रदायिक आधार पर निर्मित राष्ट्रवादी बँटवारा होने से, जंगें या और दीगर हिंसक वारदातें या काश्मीर का मसला जैसी समस्याएँ मूलतः सांप्रदायिक द्वेष है। इसलिए सांप्रदायिक तत्व लघुसंख्यकों को दुश्मन के एजेंट बतलाते हैं। यहाँ तक कि एक वक्त ऐसा भी था जब कुछ लोग भारत-पाकिस्तान क्रिकेट खेलों के दौरान खेल से ज्यादा इस बात में रुचि रखते थे कि कैसे लघु-संप्रदाय के लोगों पर दूसरे देश की टीम का समर्थन करने का आक्षेप लगाया जा सके। ज्यादा गंभीर स्थिति तब होती है जब राष्ट्र और संस्कृति के नाम पर नियोजित हिसा की घटनाएँ होती हैं, जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित स्त्रियाँ और बच्चे होते हैं।

राष्ट्रवाद के साथ अक्सर सभ्यता को जोड़ कर देखा जाता है। राष्ट्रवाद के मुखर पक्षधर राष्ट्र की होंद यानी उसके अस्तित्व के सत्व को एक सभ्यता के साथ जोड़कर उसकी गरिमा को प्रतिष्ठित करने की कोशिश करते हैं। अतीत में राष्ट्र से अधिक राज-परिवार की गरिमा प्रतिष्ठित होती थी। यह पिछली ढाई सदियों के आधुनिक समय में ही हुआ है कि सभ्यता और राष्ट्र के सिद्धांतों को साथ जोड़कर देखा जाने लगा है। पश्चिम के लोगों के साथ यह अच्छा रहा कि सभ्यता को राष्ट्र या नस्ल की सीमाओं में बाँध कर देखने की कोशिशें दीर्घस्थाई नहीं रहीं। हमारी बदकिस्मती है कि हमारे यहाँ डेढ़ सौ साल के औपनिवेशिक शासन और आज़ादी की लड़ाई के दौरान पहले राष्ट्रीय और बाद में धार्मिक अस्मिताओं के साथ सभ्यता को जोड़ कर देखा गया। इससे हमारी ऐतिहासिक और राजनैतिक समझ बुरी तरह से प्रभावित रही और आज तक इससे हम पूरी तरह छूट नहीं पाए हैं। दक्षिण एशिया में सभ्यता की संकीर्ण समझ वाली यह प्रवृत्ति जो बुनियादी तौर पर मानव-विरोधी ही नहीं, बल्कि प्रकृति विरोधी भी है, कम नहीं हो रही, बल्कि नफ़रत के खूँखार सौदागरों के नेतृत्व में बढ़ती ही जा रही है। आँकड़ों की सच्चाई को देखकर भी न देखना और ऐसे एक मुख्य-मंत्री को, जिसके साथ काम कर रहे वरिष्ठ मंत्री और पुलिस के अधिकारी जेल में हैं, ईमानदार मान लेना और अगले चुनावों में भावी प्रधान-मंत्री के रूप में उसे स्वीकार कर लेना इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है।

राष्ट्रवाद और बाजार का भी विशेष संबंध रहा है। पूँजीवाद और मुक्त बाजार की खासियत है कि इसकी पहली और आखिरी शर्त मुनाफा में इजाफा है। यह हाल के कुछ दशकों में संभव होने लगा है कि पूँजी का बहुराष्ट्रीय स्वरूप बन रहा है। पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ होती थीं, पर अमानवीय व्यवस्थाओं और श्रमिक वर्ग के शोषण के लिए वे अपनी राष्ट्रवादी पहचान बनाए रखती थीं। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अमेरिकी, बर्त्तानवी, जर्मन आदि पहचान के साथ जाना जाता था। उस जमाने में राजनैतिक साम्राज्यवाद का पूरा फायदा पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मिलता रहा। अब यह स्थिति बदल रही है। बड़ी कंपनियाँ अब सिर्फ बहुराष्ट्रीय नहीं, उनकी वैश्विक पहचान है। भारत-पाकिस्तान जैसे देशों में स्थिति काफी हद तक अभी भी वैसी है, जैसी पश्चिमी मुल्कों में 19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी के मध्य तक थी। इसलिए यहाँ आज भी कंपनियाँ वही लंपट गुंडा संस्कृति अपनाती हैं, जैसी एक सदी पहले पश्चिमी देशों में कंपनियों के प्रबंधन की शैली थी। गुड़गाँव में मारुति कंपनी के कामगरों के हाल को हम इसी तरह समझ सकते हैं। दक्षिण एशिया में जो बड़े पैमाने का भ्रष्टाचार है, यहाँ के राजनैतिक दलों की उसमें जो भागीदारी है, वह सब इसी ऐतिहासिक स्थिति की पहचान है। गौरतलब है कि राष्ट्रवाद का फायदा उठाती ये कंपनियाँ अलग-अलग देशों में राष्ट्रवाद के साथ सभ्यता की धारणा को जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। टेलीविज़न और अन्य मीडिया स्रोतों में इन कंपनियों द्वारा प्रसारित विज्ञापनों में यह बात देखी जा सकती है। यहाँ इस बात की सावधानी ज़रूरी है कि प्रगतिशील राष्ट्रवाद की प्रासंगिकता को हम खारिज न करें। वैश्विक संस्थाओं द्वारा नव-उदारवादी पूंजीवादी शोषण भी एक सच्चाई है। पर इसके विरोध में जो प्रगतिशील राष्ट्रवाद है, उसे आज 'राष्ट्रवाद' कम ही कहा जाता है।

क्या मानव सभ्यता टुकड़ों में बँटी है? अगर पहनावा, खान-पान, अर्चना-विधि के आधार पर सभ्यता को आँका जाए, तो धरती पर कहीं भी कोई एक सभ्यता नहीं है। किसी भी जगह भिन्न पहनावे, भिन्न रुचि के खान-पान और अलौकिक के प्रति भिन्न मतों की भरमार दिख जाएगी। सभ्यताएँ या तो अनंत हैं - कम से कम उतनी जितनी कि दुनिया की जनसंख्या है या फिर एक ही सभ्यता है - मानव सभ्यता। मानवता को पश्चिमी सभ्यता, भारतीय या चीनी सभ्यता आदि या इस्लामी, ईसाई या हिंदू सभ्यता की श्रेणियों में बाँटकर देखने पर न केवल सवाल उठाने बल्कि इसे पूरी तरह नकारने का समय आ चुका है। ऐतिहासिक अध्ययनों में मानव के विकास में महत्त्वपूर्ण पड़ावों का ग्रीको-रोमन और हिंदू (सिंधु नदी के दक्षिण के अर्थ में) या अरब संस्क़ृतियों की बात करना इतना ही मायने रखता है, जितना कि यह कि आम तौर पर खाई जाने वाली आलू या दीगर सब्जियों की खेती पहले कहाँ होती थी। अब काफी जानकारी उपलब्ध है जो यह बतलाती है कि बौद्धिक विकास में ज्ञान का आदान-प्रदान सार्वभौमिक स्तर पर हमेशा ही होता रहा है। औपनिवेशिक शासकों के लिए अपना वर्चस्व बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि वे ग्रीको-रोमन मूल से आए ज्ञान को श्रेष्ठ साबित करें और ऐसे ही उनके खिलाफ संघर्षरत राष्ट्रवादियों के लिए यह कहना ज़रूरी था कि श्रेष्ठतर ज्ञान और विरासत यहीं रही है। पर अब न तो पहले जैसे उपनिवेश हैं, न ही वैसे राष्ट्रीय आज़ादी का आंदोलन। आज आर्थिक और सांस्कृतिक नव-उपनिवेशवाद का वर्चस्व है। इसी के तहत लूविस और हंटिंग्टन के 'सभ्यताओं का संघर्ष' के विचार को समझा जाना चाहिए। जितना खतरा नव-उपनिवेशवादी आर्थिक-सास्कृतिक हमले का है, उतना ही राष्ट्रवादी संकीर्णता से है। इस खतरे को पहचान कर विश्व भर में लोग संघर्षरत हैं कि इंसान को इंसान समझ कर एक धरती की कल्पना की जाए, ताकि टिंबक्टू का सांस्कृतिक अतीत भी हमें उतना ही गौरव दे सके जितना नालंदा का अतीत देता है।

पिछली सदी तक क्षेत्रीय स्तर तक मानव के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक अस्तित्व की बात अर्थ रखती भी थी, तो आज ऐसा कहना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। मानव की समस्याएँ विश्व-स्तर की हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि आधुनिक मशीनी जीवन-शैली ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि कई तरह की जैव-रासायनिक और भू-पारिस्थिकीय सीमाओं का हम अतिक्रमण कर चुके हैं। इनमें से कुछेक ऐसी सीमाएँ हैं जहाँ से वापस लौटना नामुमकिन है। जलवायु में बदलाव, ओज़ोन परत में बढ़ चुका छेद और समुद्रों के अम्लीकरण जैसी समस्याओं से जुड़े आँकड़े बतलाते हैं कि हमें आपसी भेदभाव से ऊपर उठकर धरती पर मँडरा रहे बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा। नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के जैवरासायनिक चक्र का संतुलन बिगड़ रहा है। प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, जैविक विविधता में तेजी से ह्रास हो रहा है। भू-संरक्षण, वायुमंडल में प्रदूषक तत्वों की मात्रा में अभूतपूर्व बढ़त आदि कई समस्याएँ हैं, जिनपर गंभीरता से विचार न किया गया तो संभव है कि अगली सदी तक धरती में मानव का जीवन-निर्वाह असंभव हो जाए। अभी तक इंसान कायनात की विशालता के समक्ष अपनी क्षुद्रता को अलौकिक की कल्पना कर और उससे एक अमूर्त्त संबंध बनाते हुए जीता रहा है। पर अब जब हम मानव के अस्तित्व की विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं, यह समझ स्पष्ट होनी चाहिए कि समूचे ब्रह्मांड में हमारी हैसियत तिनके भर की भी नहीं, न ही सृष्टि की शुरुआत से अब तक के इतिहास में मानवीय अस्तित्व का काल साल भर में पंद्रह मिनटों से ज्यादा है। इतना ही हम मान लें तो हमारे लिए यह समझना आसान हो जाएगा कि देश, धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव कितना बेमानी है।

ऐसे में यह ज़रूरी है कि हर नागरिक में विश्व-दृष्टि का निर्माण हो। विश्व-दृष्टि से हमारा मतलब यह नहीं कि स्थानीय संस्कृतियों की अपनी अस्मिता न हो। बल्कि इसके ठीक विपरीत हम यह कहेंगे कि स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों का विनाश कर मानव की वैश्विक अस्मिता नहीं बन सकती। इसलिए अंग्रेज़ीवादियों से हमारी सहमति नहीं है। विविधताओं को साथ लिए हमें एक मानव-अस्मिता बनानी है। विविधताओं से जीवन को अर्थ मिलता है। एकांगी मानव-अस्मिता का कोई मतलब नहीं होता। विश्व-संस्थाओं का एक प्रमुख काम ही यह होना जाहिए कि स्थानीय संस्कृतियों को बढ़ावा मिले। यह जितना संभव होगा उतनी ही सार्थक विश्व-अस्मिता बनेगी। इसके विपरीत विविधताओं में कमी विश्व-स्तर पर मानव-अस्मिता को पनपने न देगी। यह बात पहली नज़र में अटपटी लग सकती है, पर गहराई से सोचने पर सही लगती है। यह एक तरह का बुनियादी मानव-सामाजिक सिद्धांत माना जा सकता है, कि विश्व-स्तरीय अस्मिता में अनिश्चितता और स्थानीय विविधता की व्यापकता का गणितीय समीकरण बनता है कि दोनों का गुणनफल नियतांक है। एक बढ़ेगा तो दूसरा कम होगा। ऐसी विश्व-दृष्टि में बाधा डालने वालों की तादाद कम नहीं। इस बारे में कई उदारवादी बुद्धिजीवी भी अक्सर ग़लत खयाल रखते हैं। एक तरह की उदारवादिता अस्मिताओं की विविधता को स्वीकार करने में अक्षम है। ऐसी सीमित उदारवादी सोच से हमें बचना है। यह ज़रूरी है कि इन मानवता-विरोधियों को विश्व-संस्थाएं वैश्विक कानूनों की मदद से रोकें।

जैसे जैसे प्रकृति के रहस्यों को समझने में हमारी काबिलियत बढ़ रही है, हम जान रहे हैं कि कुदरत के साथ हमारे संबंधों का एक बड़ा हिस्सा ज्ञान के निर्माण का है। पारंपरिक शिक्षा की यह सीमा रही है कि इसमें इस बात पर कम ध्यान दिया गया है। यह जानते हुए भी कि ज्ञान का अधिकांश निर्मित होता है और इस निर्माण प्रक्रिया में हमारी सक्रिय भागीदारी होती है, हम इससे दूर भागते हैं। संकट के समय में व्यवहारवाद आसान लगता है, इसमें हमें अपनी कोशिश नहीं करनी पड़ती। जो कुछ दूसरे दबंगों ने बतला दिया गया, उसी को उगल डालें। खासतौर पर जब हम जीवन के तनावों से जूझ पाने में असफल हों, कमज़ोर पड़ रहे हों तो यह रास्ता आसान दिखता है कि दबंग लोगों के साथ हो लें या अपने अंदर धड़कते मानवीय अस्तित्व को नकार कर दानव को सामने ले आएँ ताकि किसी को यह न दिखे कि दुःख-तकलीफों का सामना कर पाने में हम असफल हैं। तर्कशीलता के साथ, संवेदना के साथ समस्याओं को समझना और जीवन-संघर्ष में हिम्मत के साथ आगे बढ़ना आसान नहीं होता। किसी भी देश में बच्चों की शिक्षण प्रक्रिया में भौगोलिक इकाइयों के रूप में विभिन्न देश परिभाषित होते हैं; इस अमूर्त्त और कृत्रिम धारणा के प्रति सम्मान करना, अपने देश के लिए मर मिटने की कसम लेना, ऐसा हर बच्चा सीख जाए, यह ज़रूर शामिल होता है। जंगों में अपने देश की ओर से मरने वालों के लिए शहीद जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है। जंग होती है, अपने देश का सिपाही मर कर शहीद होता है, दूसरे देश का सिपाही मर कर महज कत्ल होता है। इसके विपरीत क्या शिक्षा में यह नहीं होना चाहिए जैसे कि साहिर ने लिखा है - 'खून अपना हो या पराया हो / नस्ल ए आदम का खून है आख़िर / जंग मशरिक में हो या मग़रिब में / अमन ए आलम का खून है आख़िर / टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें / कोख धरती की बाँझ होती है ..' ?

जो मरता है, वह मर जाता है। उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। सरकारें परिवार को जितने भी लाखों रूपए की क्षतिपूर्ति दें, वह वापस नहीं आता। उसकी माँ, पत्नी, अपने बाकी जीवन को कोसती रहती हैं।
यह विड़ंबना ही है कि ऐसे देश जहाँ हर मूल्य रसातल में जाता दिखता हो, जहाँ समुदाय के स्वास्थ्य में रुचि सोचनीय स्तर तक कम हो, जहाँ स्त्रियों और बच्चों के प्रति हिंसा की घटनाएँ बढ़ती जा रही हों, जहाँ अनंत कोशिशों के बावजूद जाति-प्रथा जैसी घृण्य परंपरा पूरी ताकत के साथ विद्यमान हो, शादी-ब्याह पर दहेज और अन्य खर्च करोड़ों में होता हो, वहाँ राष्ट्र या धर्म से जुड़ी तथाकथित सभ्यता पर सवाल क्यों नहीं उठते। इसकी एक वजह तो बुद्धिजीवियों का गिरगिटिया चरित्र है जो उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतों जैसे जटिल बहानों में बचाव के रास्ते ढूँढ कर भ्रम और मिथकों को ज़िंदा रखती है। नहीं, हमारी सभ्यता महान है, यह तो अंग्रेज़ों के आने से सब बिगड़ गया! बिगड़ा होगा औऱ इस बात में काफी हद तक सच है, पर अब तो अंग्रेज़ गए पौनी सदी बीत गई, हम आज की सच्चाइयों को देखना शुरू करें। इतिहास के बारे में सही सवाल उठाए जाएँ। कई सरल विरोधाभास तक हमें आसानी से नहीं दिखते। अगर कोई भारतीय सभ्यता नामक कुछ था भी, उसका संबंध आज के भारत देश की भौगोलिक इकाई से भला कैसे हो सकता है - अगर 1857 में, जब पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, अंग्रेज़ हार गए होते, तो दक्षिण एशिया में एकाधिक देश होते। वे आपस में उतने ही अलग होते जितने कि यूरोपियन संघ के देश एक दूसरे से अलग हैं। ऐसी स्थिति में काश्मीर, पंजाब, बंग, मराठा प्रदेश आदि सभी राष्ट्रों की अपनी अलग सभ्यताएँ होतीं। 1857 की लड़ाई आज़ादी की लड़ाई थी, एक भौगोलिक स्वरूप के निर्माण की लड़ाई नहीं। 1857 में मजहब, जाति, संस्कृति आदि सभी फर्क उस गुलामी के खिलाफ लड़ाई में मिट गए थे, जिसकी वजह से भारत-भूखंड की जनता को अभूतपूर्व आर्थिक शोषण का शिकार होना पड़ा था। फर्कों का मिटने का मतलब यह नहीं कि किसी एकरूप संस्कृति का वर्चस्व प्रतिष्ठित हो गया हो। अगर उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास का कोई औचित्य है, वह इसी में है कि हम भारत-भूखंड में सभ्यताओं और संस्कृति की विविधता को पहचानें, न कि इसमें कि हम जबरन हम उस राष्ट्रवादी फासीवाद को स्वीकार करें, जिसका खतरा हम पर लगातार मँडरा रहा है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि औपनिवेशिक शासन से भारतीय उपमहाद्वीप में बृहत्तर राष्ट्र निर्माण से क्या भला और क्या बुरा हुआ। राष्ट्र निर्माण में एक विरासत, एक परंपरा का जो मिथक बना, उससे नुकसान ही ज्यादा हुआ है। यह जानते हुए कि हम अलग हैं, हम एक राष्ट्र-संघ में सम्मिलित हैं - यह सोच बेहतर विकल्प है।

यूरोप में जो प्रक्रिया पिछले पंद्रह सालों से चल पड़ी है, हमें उससे सबक सीखना चाहिए। पिछली सदियों में यूरोप में भयंकर जंगें लड़ी गईं। फिर भी आज वहाँ मुल्कों के बीच खुल सरहदें हैं। चेकोस्लोविकिया से स्लोवाकिया अलग हुआ तो कोई जंग नहीं लड़ी गई, हालाँकि अधिकतर चेक इस बात से नाखुश थे। युगोस्लाविया के टूटने पर करीब पाँच सालों तक जंग और तबाही चली, पर यूरोप से दीगर मुल्कों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं का सही इस्तेमाल करते हुए युद्ध सरदारों को सजा दिलवाई। कई लोग संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका को पसंद नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि अमेरिका ने अपने रणनीतिक उद्देश्य के लिए ही उसको छिन्न-भिन्न किया और भयानक तबाही मचाई। पर अमेरिका ने तो जो करना है वह करता ही रहेगा, गैरबराबरी से उपजे बुनियादी तनाव न हों तो कोई अमेरिका कुछ नहीं कर सकता (आखिर क्यूबा भी तो है न?)यूरोपियन सं में मुल्कों की अलग भाषाएँ हैं, अलग संस्कृतियाँ हैं, अलग प्रशासनिक इकाइयाँ हैं, पर मानव-अधिकारों और व्यापार के बुनियादी एक जैसे सिद्धांतों को मानकर ये देश एकजुट हो गए हैं। इनमें से कई देश दक्षिण एशिया के पिछड़े देशों को अरबों रूपयों के शस्त्र बेचते हैं, पर खुद आपसी विरोध सुलझाने के लिए उनकी सभ्य लोकतांत्रिक इकाइयाँ हैं। हो सकता है कि कभी भविष्य में ये फिर सरहदें बंद कर दें, पर फिलहाल तो वहाँ सौ साल पहले की तुलना में कहीं अधिक शांति है। वे धनी हैं, हम गरीब हैं, हम उनसे शस्त्र खरीद कर परस्पर विनाश करने की लीला में जुटे हैं। यूरोपीय संघ पर विवाद हैं कि सरहदों को लाघने वाली यह एकता दरअसल कमजोर देशों को बाधने वाली एकता साबित हो रही है, और यूरोपी मजदूरों के अधिक शोषण का औजार बन गई हैस्पष्ट है कि अगर पश्चिमी मुल्कों में सचमुच मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा हो गई होती तो वे हमें शस्त्र बेचते ही नहीं। यूरोपी संघ में धनी देशों में गरीब मुल्कों से आए या संघ के बाहर के देशों से आए आप्रवासियों के साथ जो सलूक होता है, वह निंदनीय है। यूरोपी संघ अभी आदर्श स्थिति के आस-पास भी नहीं हैं। पर संरचनात्मक रूप से इस दिशा में पहल हुई है और मानवतावादियों के जन-संघर्ष से बेहतर भविष्य की उम्मीद बनी हुई है।

हमने यूरोप से आधुनिक राष्ट्र की धारणा को अपना लिया, पर जिस तरह यूरोप में राष्ट्रवाद की सीमाओं पर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद चिंतन हुआ है और समय के साथ इनसे जूझ कर नई दिशाएँ उभरी हैं, दक्षिण एशिया में ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि स्थिति और बदतर हुई है। राष्ट्र की जो धारणा आधुनिक यूरोपी सोच से आई है, उसमें एक निहित गड़बड़ी यह है कि अपने ही अंदर, अपनी ही भौगोलिक सीमाओं में दुश्मन ढूँढने की प्रवृत्ति है। तकरीबन हर ऐसे राष्ट्र-देश में सभी सरकार विरोधियों को कम्युनिस्ट, कम्युनिस्टों को रूस या चीन का एजेंट या हिटलर की जर्मनी में यहूदियों को दुश्मन मानना संभव होता है। हमारे यहाँ आज़ादी की लड़ाई के लिए एक मिथक की ज़रूरत थी, कि जिस तरह यूरोपी उपनिवेशवादी ताकतें आधुनिक ज्ञान के स्रोत का मूल ग्रीको-रोमन बतला रही थीं, उसी तरह हमें भी श्रेष्ठतम ज्ञान का स्रोत अपने देश में ढूँढना था। इसलिए यूरोपी सभ्यता के मिथक के बरक्स एकांगी भारतीय सभ्यता और उसमें भी फिर हिंदू सभ्यता और पाकिस्तान वालों को इस्लामी सभ्यता आदि के मिथक बनाने पड़े। आज़ाद हुए पाकिस्तान और भारत के सामंती शासक-वर्गों के लिए फिरकापरस्ती राजनीति का बड़ा औजार बन गई। इसलिए राष्ट्रवादी दबंगपन भारत में मुसलमान को, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू को, श्रीलंका में तमिल को दुश्मन मानता है।

ऐतिहासिक परिस्थितियाँ बौद्धिक विकास के अनुकूल या प्रतिकूल परिवेश भले ही बनाती हों, किसी एक धर्म या भौगोलिक इकाई से इसे जोड़ कर मिथकों का निर्माण करना मानव इतिहास का सबसे दुखद षड़यंत्र है। ईसाई धर्म से जुड़ी माने जाने वाली व्यवस्थाओं (कैथोलिक परंपरा) में ही ब्रूनो, गालीलीओ पर अत्याचार भी हैं और बाद में (ऐंग्लो-प्रोटेस्टेंट परंपरा) वह वर्क-एथिक्स (श्रम और पेशे के प्रति निष्ठा) भी जो पिछली दो सदियों के प्रौद्योगिक विकास में सहायक माना गया। हिंदू जो कभी भी कोई एक धर्म न था, उसी में चारवाकों की नास्तिकता, वेदांत और सनातन विचारों के परस्पर विरोधी छोर सब कुछ हैं, वहाबी सुन्नी से लेकर उदारवादी सूफी इस्लाम की भी यही कहानी है। स्पष्ट है कि कोई धर्म, विरासत या सभ्यता बौद्धिक विकास की दिशा या सीमाएँ नहीं तय करती।

मतलब यह कि इंसान ने हमेशा परिस्थितियों के साथ जूझ कर और उनसे पर्याप्त समझौता कर बौद्धिक और भौतिक विकास के संघर्ष किए। हमारी शिक्षा में इसी बात की समझ सबसे कम है और बाकी सभी मिथक जो निहित-स्वार्थों के हित में षड़यंत्र हैं, उससे हमारे दिमाग बचपन से भर दिए जाते हैं। इसलिए पाकिस्तान और भारत अपने लोगों को भुखमरी, अशिक्षा और लाचारी के हालात में रखकर भी काश्मीर के लोगों पर ज़ुल्म ढाने में सफल होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी नागरिकों को उल्लू बनाकर राजनैतिक नेता, युद्ध सरदार और बेइंतहा मुनाफाखोरी वाले व्यापारी अपना हित पूरा करते रहते हैं। सीधे-सादे युवक इस भ्रम में भटक जाते हैं कि सुखी मानव जीवन नहीं, भौगोलिक सीमाओं से परिभाषित देश के नाम पर हिंसक खूनखराबा और मौत ही गर्व की बात है। इसलिए प्रशांतभूषण पर हमला होता है, पाकिस्तान और बांग्लादेश में निर्दोष हिंदुओं और भारत में निर्दोष मुसलमानों के घर जला दिए जाते हैं, और कहीं ओसामा और इस्लामी जमात तो कहीं तमाम हिंदुत्ववादी नेताओं के दबंगपन में सामान्य नागरिक डरता हुआ जीता है। विड़ंबना यह है कि भुगतने वाले आम लोग विरोध में एकजुट नहीं हो पाते पर इस हिंसा और मौत के व्यापार का फायदा उठाने वाले अपने मकसद में एक हैं। इसके विपरीत अक्सर फिरकापरस्त हिंसा में समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले लोगों को शामिल पाया गया है, जिनका आक्रोश उन सामाजिक विसंगतियों के प्रति होना चाहिए, जिनकी वजह से उनकी स्थिति में बुनियादी बदलाव नहीं आया है, पर इसी आक्रोश को सांप्रदायिक ताकतें लघु-संप्रदाय के खिलाफ भड़काने में सफल हो जाती हैं। अगर कोई सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आवाज उठाए भी तो ऐसी मानवीय आवाजों को यह कहकर कि 'वे भी तो हमारे लोगों को सता रहे हैं' दबा दिया जाता है। सच यह है कि जैसे हर जगह दबंगों की जमात है वैसे ही हर जगह मानवतावादी भी एक ही जैसी तादाद में हैं और संघर्ष का स्वरूप भी हर जगह एक ही है। इसलिए मुक्तिबोध ने कभी लिखा था - दुनिया के हिस्सों में चारों ओर / जन-जन का युद्ध एक / मस्तक की महिमा /व अन्तर की ऊष्‍मा /से उठती है ज्वाला अतिक्रुध्द एक। / संग्राम घोष एक / जीवन-संताप एक। /क्रांति का, निर्माण का, विजय का सेहरा एक / चाहे जिस देश, प्रांत, पुर का हो / जन-जन का चेहरा एक।

खुली और मानवतावादी सोच रखने वाले लोगों को यह हमेशा ध्यान में रखना होगा कि 'वे' नाम का कोई दुश्मन नहीं है। जो है वह हमारे अपने ही अंदर है। कइयों को यह चिंता खाए जाती है कि अगर राष्ट्र की इकाई बनाए रखने के लिए बचपन से सबको प्रशिक्षित न किया जाए तो राष्ट्र तो टूट जाएगा। पहली बात तो लोगों में ऐसी भावना का होना कि राष्ट्र को एकजुट रहना है, यह तभी संभव है जब उनका जीवन भौतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध हो। वर्ग, जाति और लिंगभेद आदि की समस्याओं के अलावा फौजी खाते में राष्ट्रीय कोष का बड़ा हिस्सा खर्च कर सरकारें लोगों को समृद्ध जीवन से वंचित ही नहीं करतीं, बल्कि उनको निरंतर गरीबी में रखती हैं। मध्य-वर्ग के वे लोग जो अक्सर राष्ट्रवाद का नारा बुलंद रखते हैं, उनमें से अधिकांश मौका मिलते ही संपन्न पश्चिमी देशों में जा बसने को तत्पर रहते हैं। दूसरी बात यह कि राष्ट्रों का बनना और टूटना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या बेरोक-टोक और बिना किसी डर के लोग धरती के एक ओर से दूसरी ओर आ-जा सकते हैं या नहीं। बाकी बातें यथार्थ तो हैं, पर यह मानवता पर अनचाहा अत्याचार है कि राष्ट्र के नाम पर सामूहिक संसाधनों का इस्तेमाल विनाश और संहार के लिए किया जाए।

जर्मनी में हिटलर ने तथाकथित आर्य मूल के जर्मन लोगों के पक्ष में राष्ट्रवादी जुनून पैदा किया और इसके लिए उसने लाखों की तादाद में यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया। उसका साथ जापानी राष्ट्रवादी ताकतों ने दिया। आँधी की तरह उभरा नात्सी राष्ट्रवाद और जापान की तोजोशाही जब गई तो करोड़ों लोगों की जानें जा चुकी थीं, दुनिया का एक बड़ा हिस्सा तबाह हो चुका था, नागासाकी और हिरोशिमा हमेशा के लिए मानवता के लिए कलंक बन इतिहास का अध्याय बन चुके थे। क्या हमें भी एक बड़े जंग और बेइंतहा बर्बादी के बाद ही पता चलेगा कि हमारे अंदर औरों के प्रति जो नफ़रत की भावना है वह सही नहीं है?

इसलिए ऐसे लोग जो समुदायों में नफ़रत फैलाकर ही राजनीति में अपनी जगह बना पाए हैं, उनको लेकर चिंता वाजिब है। जब अमर्त्य सेन और अनंतमूर्ति ऐसी चिंता जाहिर करते हैं तो दबंगों की जमात उछलकूद करने लगती है। सचमुच चिंता किसी एक मोदी या खालिदा जिया के प्रधान-मंत्री बनने को लेकर नहीं है, चिंता तो हमारे जैसे तमाम पढ़े-लिखे लोगों को लेकर हैं, जो तथ्यों को नज़रअंदाज़ कर झूठ का संसार गढ़ते जाते हैं। विकास के जो आँकड़े सहज उपलब्ध हैं, जिनको वे सबसे आसानी से उपलब्ध हैं, कंप्यूटरों और इंटरनेट का इस्तेमाल करते हमारे जैसे अनगिनत लोग इन आँकड़ों को देखना भी नहीं चाहते। हमारे दिमागों में फिरकापरस्त और स्त्री विरोधी कीड़े घर कर गए हैं, जो पुरुषसत्ता वाली धार्मिक राष्ट्रवादी अस्मिता के अलावा और कुछ नहीं देखते। राष्ट्र और सभ्यता के बारे में हमारी मान्यताएँ ही हमें मानव- विरोधी बनाती हैं। अंततः यह सच है कि आग लगाने वाला, चाकू चलाने वाला, बलात्कार करने वाला कोई मोदी नहीं होता, हमारे ही जैसे लोग होते हैं, या हमसे प्रेरित लोग होते हैं जो अपनी हैवानियत में यह मानते हैं कि जो कुछ वे कर रहे हैं सही कर रहे हैं।

ऐसे में तालीम के बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा। भविष्य की पाठचर्या में हमारे बच्चों को इन मानव-विरोधी राष्ट्रवादी अस्मिताओं से मुक्त करने के लिए सक्रिय पठन-सामग्री और शिक्षण पद्धति होनी पड़ेगी। पश्चिमी मुल्कों में ऐसी कोशिशें कुछ हद तक हो रही हैं। हमें इनके साथ जुड़ना होगा और सही अर्थों में धरती की संतति बनाने के लिए कदम उठाने होंगे। हमें भविष्य के नागरिकों में यह सोच विकसित करनी पड़ेगी कि काश्मीर समस्या का समाधान यह नहीं कि सैंकड़ों सालों तक हम वहाँ हर दिन सवा सौ करोड़ की लागत लगाकर आम लोगों को दबाकर रखें, बल्कि समाधान यह है कि कोई भी इंसान बिना किसी भय के परिवार समेत धरती के किसी भी इलाके में आ जा सके, रोजी-रोटी कमा सके। इसके लिए वर्त्तमान राष्ट्रवादी धारणाओं को हमें अस्वीकार करना पड़ेगा और ऐसी धरती की कल्पना करनी होगी जहाँ हर इंसान अपने छोटे-बड़े समुदाय में लोकतांत्रिक संरचनाओं में भरपूर भागीदारी कर रहा हो। यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि अगर आज समाज का सबसे पढ़ा लिखा तबका ही सबसे अधिक दबंगपना दिखा रहा है तो क्या गारंटी है कि कोई भी शिक्षा-व्यवस्था बेहतर इंसान बना सके। सही है और इसीलिए शिक्षा में बुनियादी बदलाव की ज़रूरत है। भविष्य की पाठचर्या में इस चुनौती को गंभीरता से लेना होगा कि मानवीय मूल्यों को बढ़ावा कैसे मिले और सांप्रदायिक या स्त्री-विरोधी या और किसी भी तरह की संकीर्ण सोच को कैसे दबाया जा सके।

अपने अंदर के दानव को अस्वीकार कर नहीं, उसे जान-समझ कर ही हम उससे लड़ और जीत सकते हैं। जो किसी भी तरह इस आत्म-संघर्ष में नहीं शामिल हो सकते, उनके लिए चिकित्सा के अलावा कोई और रास्ता बचता नहीं। यह चिकित्सा कैसी हो, कौन यह नैतिक भार ले, इस पर बहस हो सकती है। पर हिंसा और नफ़रत और नहीं चल सकती, मानव और मानवीय परिवेश अब प्राकृतिक विकास या विनाश के ऐसे पड़ाव पर है कि इस पिछड़ेपन के इलाज के अलावा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। इसलिए अमेरिका हो या भारत-पाकिस्तान, हर मुल्क पर, मुल्क के शासकों और वहाँ की जनता पर संयुक्त राष्ट्र संघ या अंतर्राष्ट्रीय अदालत जैसी संस्थाओं के कानून लागू करने पड़ेंगे। विश्व भर में बराबरी के आधार पर विकेंद्रीकृत स्वशासन की स्थापना और आपसी संबंधों के लिए सर्वमान्य मानवीय मूल्यों के साथ अंतरार्ष्ट्रीय निगरानी के लिए संघर्ष का समय आ गया है। यह कहने भर से नहीं चलेगा कि ऐसी संस्थाएँ शक्तिशाली देशों की गुलाम हैं। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद यानी नस्लवादी व्यवस्था को उखाड़ने में और सर्बिया के युद्ध सरदारों को उचित सजा देने जैसे कई उदाहरण हैं जहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। अगर संसाधनों की खपत करनी ही है तो वह ज़ुल्म और दमन के लिए नहीं बल्कि इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, जिनमें हम शामिल हैं, को मजबूत बनाने के लिए करना पड़ेगा। यह वक्त की माँग है और सभी लोकतांत्रिक ताकतों को इसके लिए अपनी सरकारों पर दबाव डालना पड़ेगा।

ऐसा नहीं कि कोई पहली बार यह सोचा जा रहा है। हर युग में चिंतकों ने इस बात को मुखर हो कर दुहरया है सूफी संतों की वाणी, बुल्ले शाह से लालन फकीर तक हर आवाज यही कहती रही है। चंडीदास ने लिखा - सबार ऊपरे मानूष सत्त, ताहार ऊपरे नाई। बीसवीं सदी में बर्ट्रेंड रसेल और मानवेंद्रनाथ राय जैसे दार्शनिकों ने इस पर विस्तार से कहा-लिखा है। मार्क्स ने भी विश्व-मानव को ही अपने चिंतन के केंद्र में रखा था, पर हम यहाँ आर्थिक द्वंद्वों के विस्तार में नहीं जा रहे। हमारा ध्यान यहाँ इस बात पर है कि जितनी ज़रूरत आज एक विश्व-व्यापी उदार मानवीय व्यवस्था की है, ऐसी पहले कभी नहीं रही। कइयों को यह वाजिब डर होगा कि विश्व-स्तर पर निगरानी जॉर्ज ऑरवेल के 1984 की याद दिलाती है। सही है, इसलिए यह बात महत्त्वपूर्ण है कि स्थानीय स्तर पर विकेंद्रीकृत स्वायत्त शासन की प्रतिष्ठा हो। निगरानी मानव अधिकारों और अन्य सर्वमान्य मूल्यों भर की हो। प्रगतिशील राष्ट्रवाद की प्रासंगिकता को हम न केवल खारिज नहीं कर रहे, बल्कि इसकी ज़रूरत को रेखांकित करना चाहेंगे। इसके साथ ही वैश्विक संस्थाओं द्वारा नव-उदारवादी पूंजीवाद के पहियों के बतौर शिनाख्त को भी हम मानते हैं। हम विश्व-व्यापार संस्थाओं द्वारा निगरानी की वकालत नहीं कर रहे। हमारा मानना यह है कि दूसरों के साथ नफ़रत पर आधारित और किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में रहनेवाले लोगों को जबरन एक खाँचे में बाँधने पर आधारित राष्ट्रीय गौरव, विशिष्ट ज्ञान का एकमात्र स्रोत होना या बुद्धि विद्या और विरासत में दूसरों से श्रेष्ठ होने का दावा, यह सब दबंग की बीमारियाँ हैं और इसके लिए पहले वैकल्पिक शिक्षा और अंततः चिकित्सा के अलावा सचमुच कोई विकल्प नहीं है। सच है कि नव-उदारवादी, नव-साम्राज्यवादी आर्थिक संरचनाओं ने इस दबंग की बीमार का भरपूर इस्तेमाल किया है।

Comments

Sameer said…
आपके विचारों से सहमत हूँ . ये बात सत्य है की पढ़े लिखे लोग भी सिर्फ एक पक्ष ही देखते हैं. आशा है की ऐसे और भी लेख हमें रास्ता दिखाते रहेंगे.
We seem to share similar views, albeit there may be some differences. From your profile I see that you live in Hyderabad. I live in Guntur. Though I have nearly a hundred blogs, I maintain only one Telugu blog. Its address is problemsoftelugus.blogspot.com. I work on a self-propelled mission of spreading atheism and Marxism. Some of my writings may interest you. At present I am hung-up in writing one blog-post on writing a compare-and-contrast of Narendra Modi and Swami Vivekananda. For knowing its background research studies, you can have a look at what I have written at my blog at vivekanandayb.blogspot.com. What I probably want from you: your frank comments on whether it will be too premature to predict on what Mr. Narendra Modi is going to do for this Nation? He seems to have some traits of German rulers. I am worried about: What will be fate of this Nation? But, the Nation would not have been safe had it continued in the grips of Ms. Sonia Gandhi and Mr. Manmohan Singh. Will Mr. Modi prove to be a lesser evil than Nehru dynasty?

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