Sunday, November 20, 2005

पिछले चिट्ठे से आगे - २

आधुनिकता ने सार्वभौमिक सत्य ढूँढने की कोशिश की, तो इसके आलोचकों ने उन्हें नकार कर 'स्थानीय सत्य' को मान्यता दी। हर संस्कृति, हर समाज या वर्ग की अपनी तर्कशीलता होती है। वैज्ञानिक तर्कशीलता ऐसी कई संभावनाओं में से एक है। जैसे हर स्थानीय सत्य का सामाजिक आधार होता है, वैज्ञानिक सत्यों के भी सार्वभौमिक चरित्र होने की कोई वजह नहीं है। कम से कम इतना तो है ही कि वैज्ञानिक सोच से बेहतरी की ओर बढ़ने की कोई गारंटी नहीं है। हिरोशिमा में क्षण भर में वाष्पित हो गए लोगों के पीछे विकिरण से बच गई जगहों के चिन्हों की भयावहता हमें यह बताती है।

एक ओर आलोचना के उपरोक्त विन्दुओं को नकारा नहीं जा सकता तो दूसरी ओर वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उठते सवालों को कितनी गंभीरता से लिया जाए, यह सोचने की बात है। ऐलन सोकल (www.physics.nyu.edu/faculty/sokal.html) इस बात से चिंतित था कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की धुनाई करने की प्रवृत्ति हद से आगे बढ़ गई है और बेतुकी बातें ज्यादा हो रही हैं। यहाँ नोट करने की बात है कि सामाजिक विज्ञान में इस तरह के सैद्धांतिक काम में भारतीय विद्वानों की भागीदारी बहुत बड़ी है। सोकल ने १९९६ में "Transgressing the Boundaries: Toward a Transformative Hermeneutics of Quantum Gravity" शीर्षक से अमरीका के सबसे प्रसिद्ध सामाजिक विज्ञान की पत्रिका Social Text में एक बेतुका आलेख लिखा। Social Text के संपादन मंडल (जिनमें मुख्य महान चिंतक फ्रेडरिक जेम्सन थे) ने इसपर सोचा विचारा और Science Wars नामक विशेष अंक में इसे प्रकाशित किया। कहते हैं सोकल ने कुल १२ पन्नों के फुट नोट नारीवादी और पर्यावरणवादी आलोचकों की उक्तियों के दिए। जब आलेख छप गया, सोकल ने प्रेस कान्फरेंस बुलाई और खुलासा किया कि उसने ऐसा यह दर्शाने के लिए किया कि सामाजिक विज्ञान में विज्ञान की आलोचना ऐसी बेतुकी हो गई है कि इसे गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

सोकल अफेयर से जाने जाने वाली इस घटना ने उत्तरआधुनिक आलोचकों को थोड़े दिन परेशान किया, पर आखिर में उन्होंने इसे नज़रअंदाज़ करना शुरु कर दिया। भारत की प्रसिद्ध सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों की पत्रिका Economic and Political Weekly ने १९९६ से ही इस पर बहस की शुरुआत कर दी थी। सोकल की वेबसाइट पर (www.physics.nyu.edu/faculty/sokal/) ये संदर्भ उपलब्ध हैं। सोकल ने बड़े गंभीर सवालों को उठाया है। एक ओर तो उसने यह दिखलाया है कि विज्ञान की जरा सी जानकारी रखने वाले को भी आसानी से उसके आलेख के बेतुके होने का अंदाजा हो सकता था। वैज्ञानिक सत्यों की सार्वभौमिकता पर उसने हलके अंदाज़ में कहा है कि मेरे मकान की खिड़की से छलाँग लगा कर देख लो कि गुरुत्त्वाकर्षण सार्वभौमिक सत्य है या नहीं। वैज्ञानिक सत्यों को उनके सामाजिक आधार के नाम पर नकार कर हम धरती के गर्म होने या एड्स जैसी खतरनाक बीमारियों से जूझ नहीं सकते। उसके अधिकतर संदर्भ पश्चिमी मुल्कों के साथ जुड़े हैं। भारतीय संदर्भ में मीरा नंदा की पुस्तकें (Prophets Facing Backward: Postmodern Critiques of Science and Hindu Nationalism in India और Why the Religious Right Is Wrong: About Separation of Church & State) और आलेख ज्यादा प्रासंगिक हैं। एक तीसरी किताब भी हाल में आई है।

मीरा के बारे में कुछ निजी प्रसंग अगले चिट्ठे में (मिर्ची जी, बोर तो खूब हो रहे होंगे, पर सोचिए कि क्या बात कि अमरीका में रह रही मीरा नंदा चंडीगढ़ में पली हैं और अब भी यहीं अपनी माँ से मिलने आती हैं)...

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

आपने बहुत गंभीर विषय के उपर अपनी लेखनी उठायी है जिससे हिन्दी चिठ्ठाकारी को एक नया आयाम मिला है | मैं आपके लेख बहुत ध्यान से पढता हूँ परन्तु मुझे इस बात से काफी दिक्कत हो रही है कि अक्सर आपके अपने विचार दूसरों के विचारों मे अनायास मिश्रित ( विलयित ) हो जा रहें है | आशा करता हूँ कि आप इस बिन्दु पर सचेत रहेंगे |

मिर्ची सेठ said...

लाल्टू जी - यह तो आसान है। किसी शायर के शब्दों मे -

हड्डियाँ अपने बुजर्गों की तेरी खाक में हैं
घर जो छोड़ा है तो छांव बिछाएं कहाँ
ऐ वतन तुछ से मुंह मोड़ के
जाएं भी तो जाएं कहाँ

(कुछ शब्दों का हेर फेर हो सक्ता है किसी को उपर की पंक्तियाँ ठीक से पता हो तो जरुर लिखें)