Sunday, June 17, 2018

इसी के लिए एकजुट होना है


झूठ, और झूठ – खतरा और भी है
(यह लेख कर्नाटक राज्य में हुए चुनावों के परिणाम आने के पहले लिखा था। 'उद्भावना' पत्रिका के ताज़ा अंक में इसके आने की उम्मीद है)

कर्नाटक के चुनाव हो गए। आगे और चुनाव आने वाले हैं। अगले साल की शुरूआत में संसद के चुनाव होने हैं। यह भी कहा जा रहा है कि सरकार इसी साल के आखिर में ही संसद के चुनाव करवा सकती है। एक जमाना था जब चुनाव उत्सव की तरह आते थे। पार्टी समर्थकों के पीछे छोटे बच्चे उछलते कूदले चलते थे। तुतलाती आवाज़ में नारे देते थे। फिर पता नहीं कब जैसे माहौल में ज़हर घुल गया। जगह-जगह से चुनावी प्रचार के दौरान हिंसा की खबरें आने लगीं। पहले प्रचार में प्रार्थी झूठे वादे किया करते थे। अब विरोधियों पर झूठ के हमले होने लगे। झूठ राजनीति का औजार है। कोई औजार जब ज़रूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया जाए तो उसकी धार कम हो जाती है। औजार थोथा पड़ने लगता है। आखिर में वार उल्टे पड़ने लगते हैं। भारतीय झूठ पार्टी का इन दिनों यह हाल है। राजनेता दम लगाकर कहता है - विरोधियों के झूठ का पर्दाफाश करो। लोग समझ जाते हैं कि विरोधी इस वक्त सच बोल रहे हैं। कई बार तो जो कुछ भी ग़लत वह विरोधियों के साथ कर रहा होता है, उसका दावा यह होता है कि विरोधी उसके साथ ऐसा कर रहे हैं। कहते हैं हिटलर की नात्सी पार्टी के साथ प्रोपागांडा मंत्री रहे गोएवेल्स ने कहा था कि अपने अपराधों का भांडा दूसरों के सर फोड़ो। यही हमारे राष्ट्रनेता का मंत्र है। पर हिटलर और गोेबेल्स चले गए तो आज का झूठा कौन सा हमेशा कामयाब होगा। यानी अगर वह कहे कि विरोधी चोर हैं तो अब लोग जान जाते हैं कि वह कह रहा है कि वह खुद चोर है। जब वह दूसरों को गद्दार कह रहा होता है, हम जानते हैं कि वह खुद गद्दार है। कर्नाटक चुनावों के प्रचार में झूठ कहा गया कि फौजी जरनैलों थिमैया और करियप्पा के साथ कांग्रेस और नेहरू सरकार ने बदसलूकी की। लोगों ने जान लिया कि नेहरू ने ठीक इसका उल्टा किया और उनका उचित सम्मान किया।
2014 के चुनावों के पहले मैंने इस चिंता के साथ कई लेख लिखे थे कि नफ़रत की राजनीति बढ़ रही है और संघ परिवार और उनकी पार्टी की राजनीति हमारे अंदर के शैतान को बाहर लाने में जुटी हुई है तो कुछ दोस्तों को एतराज था कि मैं संघ और भाजपा के खिलाफ इतना क्यों लिख रहा हूँ। हो सकता है कि उनमें से कुछ समझ गए होंगे कि जिन मिथ्याओं को वे सच मान रहे थे, वे सच नहीं थे। हमेशा झूठ को सच बनाना आसान काम नहीं है। कई बार दुहराना पड़ता है। पैसा लगाना पड़ता है और प्रचार के लिए झंडाबरदारों के झुंड बनाने पड़ते हैं। लोगों के बीच अपनी बीमारी, यानी नफ़रत फैलानी पड़ती है। यह सब आसान नहीं है। कुछ वक्त तक तो आम लोग जानकारी के अभाव में सीना-पीटू भाषण से प्रभावित हो जाते हैं, पर ऐसा हमेशा होता ही रहे, यह मुमकिन नहीं है।
आम समझ यह होती है कि नेतृत्व का मतलब है देश या समाज को सही दिशा में ले जाना, यानी सामाजिक स्थिरता और आर्थिक तरक्की की ओर ले चलना। पर समाज का मनोवैज्ञानिक चरित्र भी होता है और जनता को भावनात्मक रूप से अपने वश में रखना, इस पर नेताओं को गंभीरता से सोचना पड़ता है। सोशल मीडिया की नई तक्नोलोजी का इस्तेमाल कर झूठ के तूफानी बवंडर से कायर लोगों की हीन भावनाओं को दबंगई और गुंडागर्दी में बदलने में भाजपा के दिग्गज माहिर साबित हुए हैंगुंडों का आधार बनाए रखने के लिए शीर्ष राजनेता घटिया स्तर तक उतर आता है। कर्नाटक चुनावों के प्रचार में छप्पन इंच जी ने विरोधियों को धमकी तक दे डाली। उनके मुख्य-मंत्री के दावेदार ने कहा कि लोगों के हाथ पैर बँधवाकर अपनी पार्टी को वोट डलवाओ तो राष्ट्रनेता ने विरोधियों को सीमा में रहने का फतवा दे डाला। हालात इस कदर नीचे गिर गए हैं कि इस पर अब कुछ लिखना मायने नहीं रखता। गटर में गंदगी है, यह कब तक लिखा जाए।
जिन पर बाक़ी झूठ आसानी से काम नहीं करते हैं, उन पर एक और झूठ लादा जाता है। वह यह कि कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस के जमाने में खूब भ्रष्टाचार हुए, इसलिए। सपा-बसपा आदि के नेता तो मजाक हैं, इसलिए। इसलिए हमें आँखें बंद कर लेनी चाहिए और चाहे मुसलमान मरे या दलित, वोट झूठ पार्टी को ही देना चाहिए। ज्यादातर लोग गंभीरता से सोचने के काबिल नहीं रह गए हैं। उनको यह सब समझ में नहीं आता कि सबसे अनिश्चित स्थिति में, जब सारे सांसद निर्दलीय हों, फिर भी माहौल फिरकापरस्त हिंसा की राजनीति से बेहतर होगा। मुल्क तो सरकारी अमला चलाता है, राजनेता तो अक्सर प्रशासन में अवरोध की तरह पेश आने लगे हैं। अगर अधिकतर सांसद बड़ी पार्टियों के न भी हो, तो कोई खास संकट नहीं आने वाला। आज की घटिया हिंसा और नफ़रत की राजनीति से तो कुछ भी अच्छा होगा। सच यह है कि और भी विकल्प हैं जिन पर सोचना ज़रूरी है। कभी कहा जाता था कि नेहरू गए तो क्या होगा। फिर यह कि कांग्रेस का विकल्प क्या है। देश की जनता ने कई बार दिखलाया है कि विकल्प कई हैं।
नफ़रत की विचारधारा पर आधारित झूठ पार्टी के समर्थक भी अब जानने लगे हैं कि वे झूठ के अंबार पर खड़े हैं, पर अब जो हो सो हो जैसी सोच के साथ वे अपने नेता के साथ हैं। जैसे कोई खेल हो। अपनी टीम के लोग फाउल कर रहे हैं तो क्या, हमारी टीम है तो हम उसी का समर्थन करेंगे। कई तो वाकई बीमार हैं, उन्हें जीवन जाति-धर्मों के बीच महासंग्राम दिखता है, जहाँ हिंसा और नफ़रत के अलावा कुछ नहीं है। उनका इतिहास, भूगोल, सब कुछ नफ़रत की ज़मीं पर खड़ा है। ये कट्टर संघी या तालिबानी हैं। पैसे और संगठन की ताकत से झूठ का तूफान खड़ा कर, विरोधियों में से कइयों को खरीद कर या उन्हें ब्लैकमेल कर चुप करवा कर और चारों ओर आतंक का माहौल पैदा कर संघ किसी तरह चुनाव जीतने के लिए जुट हु है। इसके अलावा ई वी एम मशीनों की कारीगरी का किस को पता है।
संभावना है कि झूठ, पैसा, ब्लैकमेल, आतंक, ई वी एम मशीनें, हर तरह के फूहड़पन के बावजूद संघ-परिवार आगे आने वाले चुनावों में जीत हासिल न कर पाए ऐसी स्थिति में दो बातों की प्रबल संभावना है। एक तो यह कि भारत और पाकिस्तान में जंग छेड़ दी जाएगी और दूसरी यह कि संघ परिवार अपनी सारी ताकत देश भर में फिरकापरस्त दंगे भड़काने में लगा देगा।
सालों पहले मैंने खेद जताया था कि ये लोग इंसान में असुरक्षा की भावना को भड़का कर हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जगा रहे हैं, तो अक्सर पाठक फ़ोन कर पूछते कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ। एक बार किसी ने कहा कि यह ठीक ही तो है कि 'उन लोगों' को दबाकर रखा जाए। 'वो लोग' बहुत ज्यादा चढ़ गए हैं। मैं फ़ोन पर उस डर और साथ ही दबंगई को सुन रहा था, जिसे जगाने में संघी काबिल हैं। डर जो इंसान को डरे कुत्ते की तरह खूँखार बना देता है। आजकल सीतापुर और कुछ और इलाकों में झुंड में आदमखोर कुत्तों की खबरें आ रही हैं। इनमें से कोई एक कुत्ता हमला नहीं करेगा, पर झुंड में वे आदमखोर बन चुके हैं। दबंगई और दरिंदगी गहरी हीन भावनाओं और कायरता से उपजती हैडर एक ऐसी आदिम प्रवृत्ति है जिससे शरीर में जैव-रासायनिक क्रियाएँ चल पड़ती हैं। जो महज भावनात्मक लगता है, वह कब हमारा जैविक गुण बन जाता है, पता तक नहीं चलता। डर से पसीना ही नहीं छूटता, इससे ऐसी उत्तेजना भी होती है, जो हमें हमलावर बना देती है। दबंगई कायर लोगों में यह एहसास पैदा करती है कि जब तक साथ में और लोग हैं, सत्ता का साथ है, कुछ भी कर लो, धौंस जमाओ, स्त्रियों और बच्चों के साथ हिंसा करो। कई लोगों को एक सा डर होने लगे तो वह सामूहिक राजनैतिक औजार बन जाता है। इसी का फायदा उठाकर संघ परिवार जैसे गुट सत्ता में आते हैं। मनोविज्ञान में इस बात पर शोध हुआ है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सामूहिक गुंडागर्दी के लिए बीमार विचारधारा पर आधारित नेतृत्व, भय में डूबी नुकसानदेह मानसिकता, बड़ी तादाद में लोगों में आहत होने का हसास और बाकी लोगों की सुन्न पड़ गई संवेदनहीन मानसिक दशा कच्चा माल की तरह हैं, जिन्हें सही मौकों पर घुला-मिला कर संकीर्ण सोेच में ग्रस्त नेतृत्व सत्ता हासिल करने के लिए इस्तेमाल करता है।
अपने सामाजिक स्वरूप में एक समूह महज लोगों का हुजूम नहीं होता, बल्कि उसका एक सामूहिक मनोविज्ञान होता है। इसी मनोविज्ञान पर भला या बुरा नेतृत्व भले-बुरे उद्देश्यों के लिए प्रयोग करता है। जैसे एक व्यक्ति में भगवान और शैतान दोनों को जगाया जा सकता है, वैसे ही समुदायों में भी नैतिक संकट के बीज बोए जा सकते हैं और वक्त आने पर उसके ज़हरीले फल तोड़े जा सकते हैं। माना जाता है कि समूह में बड़े संकट अपेक्षा से ज्यादा तेज़ी से आते हैं; दो और दो मिलकर चार नहीं, चार से ज्यादा का प्रभाव दिखलाते हैं। ऐसी स्थिति में शैतान को खुद ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती, कायर लोगों क झुंड उसे नेता न कर तबाही करने लगत है। इतिहास में ऐसा होता रहा है, कभी मुल्कों में, कभी धर्म-संप्रदायों में, तो कभी मुक्तिकामी संगठनों में भी।
सोचने पर लगता है कि आज भी हम अंधकार युग में जी रहे हैं। ऐसे तो इंसान का जीना दूभर हो जाएगा। अगर हम आप कुछ न करें तो हालात वैसे ही हो जाएँगे, जैसे सीरिया, अफग़ानिस्तान जैसे मुल्कों में हैं। हम सचमुच एक खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं और विड़ंबना यह है कि बहुत सारे लोग यह समझते हैं कि यह कोई खास बात नहीं है। जो भी अपने दायरे में सुरक्षित महसूस करता है, उसे लग सकता है कि पॉलिटिक्स तो चलती रहती है; आखिर ऐसा कब था कि कहीं कोई हिंसा न होती हो। इस खतरे को कि ये लोग कभी भी जंग छेड़ सकते हैं, हल्का नहीं लेना चाहिए। अब अगर जंग छिड़े तो कोई नहीं जानता कि वहाँ कहाँ और कब रुकेगी। मोदी सरकार ने पहले ही सुरक्षा के क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए पूरी तरह खोल रखा है। ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो अपनी मुनाफाखोरी के लिए जंगों पर निर्भर हैं। अमेरिका जैसे मुल्कों के वार्षिक निर्यात का बड़ा हिस्सा असलाह की बिक्री है। अमेरिका में युद्धविरोधी आंदोलन सक्रिय तो है पर इस वक्त वहाँ जगखोरों की सरकार है। हमारे भीतरी खतरे भी कम नहीं। संघ की पूरी राजनीति नफ़रत फैला कर सत्ता हासिल करने की है। आज तक यह सही पता नहीं चला है कि गोधरा कांड में सचमुच क्या हुआ था। इसमें कोई अचरज नहीं होगा अगर कभी यह सिद्ध हो जाए कि वह जान बूझ कर नफ़रत फैलाने के लिए पूर्व-नियोजित ढंग से करवाई वारदात थी। अतीत में संघ के साथ रह चुके कई लोगों ने बयान दिए हैं कि कैसे वे जानबूझकर दंगा फैलाने के लिए खुराफातें किया करते थे। भीष्म साहनी की रचनाओं पर आधारित 'तमस' फिल्म का शुरूआती सीन, जिसमें ओम पुरी ने अभिनय किया था, कौन भूल सकता है। सचेत नागरिकों को हर पल जगे रहना होगा कि कभी भी कुछ हो सकता है। अब तो इन लोगों ने खरबों रुपए भी लूट रखे हैं। ये किसी को भी खरीद सकते हैं, कुछ भी करवा सकते हैं। सिर्फ इतना नहीं कि विधान सभा में महज दो सदस्य होते हुए भी सरकार बना ले सकते हैं, इससे कहीं आगे हिंसा के सभी तरीके भी अपना सकते हैं।
हमारे पास हालात से जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। एक ओर निश्चित विनाश है, भीतर बाहर हर तरह की जंग लड़ाई का खतरा है, दूसरी ओर इकट्ठे आवाज़ उठाने का, बेहतर भविष्य के सपने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाने का विकल्प है। एक ओर जंगखोरी और लोगों को फिरकापरस्ती में उलझा कर मुल्क की संप्रभुता गिरवी रखी जा रही है, दूसरी ओर हमारे लोगों के लिए बेहतर तालीम और सेहत के मुद्दे हैं। आज हिंदुस्तान जंगी असलाह की आमद पर खर्च करने की सूची में सबसे ऊपर है। फौजी खित्ते में मुल्क की संपदा को लगाने में हम पाँचवें नंबर पर हैं। साथ ही यह विड़ंबना कि मानव विकास आँकड़े में हम 133 वें नंबर पर हैं। हमें लोगों को यह समझाना होगा कि हमारी लड़ाई पाकिस्तान या चीन के लोगों से नहीं है, वहाँ की हुकूमतों से है और साथ ही मध्य-युगीन मानसिकता वाली हमार अपने मुल्क की हुकूमत से है। सरहद पर मरने वाला सिपाही मरता है तो वह किसी मुल्क का भी हो, उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं। हाकिम नहीं मरते, साधारण सिपाही मरते हैं और उनको शहीद कह कर या उनके परिवार को राहत का पैसा देकर मरे हुए को वापस नहीं लाया जा सकता है। पर हाकिमों की जमात के पास ये सब सोचने की गुंजाइश नहीं है। हमें सोचना होगा कि जंग किसी के भी भले के लिए नहीं है। आज धरती विनाश के कगार पर खड़ी है और संकीर्ण राष्ट्रवादी नज़रिए से हटकर आलमी सोच के साथ हमें तमाम विनाशकारी ताकतों के खिलाफ लड़ना है। अगर सरमाएदारों के बीच मुनाफाखोरी के लिए आलमी समझौते हो सकते हैं तो आम लोगों के बेहतर तालीम और सेहत की सुविधाओं के साथ शांतिपूर्ण ज़िंदगी जीने के लिए समझौते भी हो सकते हैं।
आज इतना हो चुका है कि जब सत्तासीन दल का प्रमुख हमारी देशभक्ति पर सवाल उठाता है, तो लोग समझ ही जाते हैं कि एक गद्दार चीख रहा है और असल देशभक्तों के खिलाफ लोगों को भड़का रहा है। और यह बात सच नहीं है कि कांग्रेस, भाजपा या दीगर क्षेत्रीय दलों के अलावा कोई लोकतांत्रिक विकल्प नहीं है। देश भर में करोड़ों समर्पित लोग बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। इनमें साम्यवादी, समाजवादी, गाँधीवादी, हर तरह के लोग हैं। अव्वल तो इन समर्पित कार्यकर्ताओं को शासन की बागडोर थमानी चाहिए। अगर किसी को शंका भी हो तो किसी भी संसदीय क्षेत्र में बीस प्रार्थियों में से जो सबसे बेहतर है, जो पैसों से नहीं, बल्कि अपनी काबिलियत, कुव्वत और समर्पण की भावना से चुनाव लड़ रहा है, उसकी पहचान करें और उसी को प्रतिनिधि चुनें। जाहिर है कि फिरकापरस्ती और झूठ की बौछार से अपनी पहचान बनाने वाले दलों के प्रार्थी तो ये कतई नहीं होंगे। संघी झूठ प्रचार में यह बात आती रहती है कि भाजपा का विरोध मतलब कांग्रेस का समर्थन है। जाहिर है अब जब मोदी का तिलिस्म रहा नहीं, इस प्रचार का कांग्रेस को बहुत फायदा हुआ है, पर यह बात बिल्कुल बकवास है। संघ की नफ़रत आधारित राजनीति का विरोध करने वाले अधिकतर लोग कांग्रेस की नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और फिरकापरस्ती का हमेशा ही विरोध करते रहते हैं। वे लोग भी जो संघ के बढ़ते आतंक से घबराकर कांग्रेस के समर्थन में खड़े हो रहे हैं, दरअस्ल सभी कांग्रेस समर्थक नहीं हैं।
2019 के चुनावों में संघ के लोग जिस हद तक हो सके देश को तबाही की ओर धकेलेंगे। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जागरुक हर शख्स के लिए लाजिम है कि हम ऐसा न होने दें। इसी के लिए एकजुट होना है और संघर्ष करते रहना है।


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